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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

एक रचना

एक रचना:
*
आत्म मोह से
रहे ग्रस्त जो
उनकी कलम उगलती विष है
करें अनर्थ
अर्थ का पल-पल
पर निन्दाकर
हँस सोते हैं
*
खुद को
कहते रहे मसीहा
औरों का
अवदान न मानें
जिसने गले लगाया उस पर
कीच डालने का हठ ठानें
खुद को नहीं
तोलते हैं जो
हल्कापन ही
जिनकी फितरत
खोल न पाते
मन की गाँठें
जो पाया आदर खोते हैं
*
मनमानी
व्याख्याएँ  करते
लिखें उद्धरण
नकली-झूठे
पढ़ पाठक, सच समझ
नहीं क्यों
ऐसे लेखक ऊपर थूके?
सबसे अधिक
बोलते हैं वे
फिर भी शिकवा
बोल न पाए
ऐसे वक्ता
अपनी गरिमा खो
जब भी मिलते रोते हैं
*

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