लघुकथाः
जीवन मूल्य
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फेसबुक पर मित्रता अनुरोध पाकर उसका प्रोफाइल देखा, पति एक छोटा व्यवसायी, एक बच्चा, एक बच्ची। रचनाओं की प्रशंसा कर उसने मेरे बारे में पूछा तो मैंने सहज भाव से उत्तर दे दिया। कुछ दिन औपचारिक चैट-चर्चा के बाद उसने पति की कम आय और आर्थिक कठिनाई की चर्चा की।
दो शिशुओं की शिक्षा आदि पर संभावित व्यय को देखते हुए मैंने उसे पति के व्यवसाय में सहयोग करने अथवा खुद कुछ काम करने का परामर्श दिया। वह कैसे भी सरकारी नौकरी चाहती थी। मैंने स्पष्ट कहा कि सामान्य द्वितीय श्रेणी से स्नातक के लिये सरकारी नौकरी संभव नहीं है। घर से दूर कुछ हजार रुपये की निजी नौकरी में बच्चों की देखरेख नहीं हो सकेगी, बेहतर है मीठा-नमकीन, बड़ी-पापड़ आदि बनाकर दोपहर में बैंक, कॉलेज, सरकारी दफ्तरों में कार्यरत महिलाओं को बेचे। कम पूँजी में अच्छा लाभ हो सकता है, चूँकि नौकरीपेशा महिलायें इस कार्य के लिये समय नहीं निकाल पातीं, बाजार भाव से १०% कम कीमत में अच्छा सामान जरूर खरीदेंगी, फिर भी पूँजी से दोगुना लाभ होगा।
उसने उत्तर दिया कि इस सबमें बहुत समय बर्बाद होगा। उसे बहुत जल्दी और अधिक धन चाहिए ताकि चैन की ज़िंदगी जी सके। मैंने सोच लिया उसे उसके हाल पर छोड़ दूँ। अचानक उसका सन्देश आया आपसे कुछ पूछूँ बुरा तो नहीं मानेंगे? पूछो कहते ही सन्देश मिला मैं आपके शहर में जहाँ आप कहें आ जाऊँ तो मुझे आपके साथ रात बिताने का कितना रूपया देंगे?
काटो तो खून नहीं की स्थिति में मेरा मस्तिष्क चकरा गया, तुरंत उससे पूछा कि किसी की विवाहिता और दो-दो बच्चों की माँ होते हुए भी वह अपने पिता के समान के व्यक्ति से ऐसा कैसे कह सकती है? बच्चों और गृहस्थी पर कैसा दुष्प्रभाव होगा क्या सोचा है? पति की कमाई में कुछ संयम से इज्जत की ज़िंदगी गुजरना बहुत अच्छा है। अब मुझसे संपर्क न करे। मैंने अपनी मित्र मंडली से उसे निकाल दिया। यदा-कदा अब भी फेसबुक पर उसकी क्षमायाचना और शुभकामनायें रचनाओं की प्रतिक्रिया में प्राप्त होती है पर मैं उत्तर न देने की अशिष्टता के अलावा कुछ नहीं कर पाता, किन्तु चिंतित अवश्य करते है बदलते जीवन मूल्य।
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