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बुधवार, 21 अगस्त 2013

muktak: -sanjiv


सामयिक मुक्तक:
संजीव 
*
प्रश्नों में ही उत्तर, बाहर कहीं खोजने क्यों जाएँ ?
बिके हुए जो धर्म-विरोधी, स्वार्थों की जय-जय गाएँ
श्रेष्ठ मूल्य-कर्तव्य धर्म है, सदा धर्म-सापेक्ष रहें
वहीं धर्म-निरपेक्ष न जो निस्वार्थ तनिक भी रह पाएँ
*
मूल्य सनातन जिसे न सोहे, उसे स्वदेशी लगते गैर
पूज विदेशी-पैर उसी से रहा चाहता अपनी खैर
पहले हुए गुलाम, दुबारा होंगे अगर न चेते हम
जयचंदों से मुक्त न हो पाए अब तक है इतना गम 
 *
खुद को ग्यानी समझ अन्य को बच्चा नादां मान रहे
धर्म न खुद का जानें लेकिन रार धर्म से ठान रहे
राजनीति स्वार्थों की चेरी इसकी हो या उसकी हो
सृजन-सिपाही व्यर्थ विवाद न करें तनिक यह ध्यान रहे
*
जिन्हें दंभ ज्ञानी होने का, ओढ़ें छद्म नम्रता जो
मठाधीश की तरह आचरण, चाहे सत्य उपेक्षित हो
ऐसे ही संसद में बैठे जन-प्रतिनिधि का स्वांग धरे-
करतूतों को भारत माता देख रही है लज्जित हो
*
रूपया नीचे गिरता जाता, सत्ताधारी हर्षित हैं
जो विपक्ष में भाषण देकर खुद पर होते गर्वित हैं
बोरा भर रूपया ले जाएँ, मुट्ठी भर दाना लायें -
कह नादां विरोधकर्ता को, दाना खुद को भरमायें
*
होगा कौन प्रधान फ़िक्र यह, फ़िक्र देश की जो भूले
वहम अहम् का पाले कहते गगन उठाये हैं लूले
धृतराष्ट्री शासक आमंत्रित करता 'सलिल' महाभारत-
कृष्ण युद्ध आयोजित करते असत मिटे, बच रहता सत
*
​​

3 टिप्‍पणियां:

kusum vir ने कहा…

Kusum Vir via yahoogroups.com

// बिके हुए जो धर्म-विरोधी, स्वार्थों की जय-जय गाएँ - - -
पहले हुए गुलाम, दुबारा होंगे अगर न चेते हम
जयचंदों से मुक्त न हो पाए अब तक है इतना गम

आदरणीय आचार्य जी,
यही चिंता मुझे खाए जाती है l
एक सच्चे देशभक्त की तरह आपने अपनी रचना में जो हुंकार भरी है,
उसके अनुसरण में भगवान करे हम सब एक होकर देश को बचा सकें l

आप जैसे देशभक्त भारत माँ के सपूत हों, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ,
सादर,
कुसुम वीर

Mahipal Tomar ने कहा…

Mahipal Tomar via yahoogroups.com


' सलिल ' जी आपके सोच को नमन । यही नहीं हर उस भारतवासी को जिसे 'गुलामी ' नहीं भाती यही सोच होगी ।
सादर ,
महिपाल

kusum vir ने कहा…

Kusum Vir via yahoogroups.com

आदरणीय आचार्य जी,
सत्य को उजागर करती कविता,
ख़ासकर ;

// सृजन-सिपाही व्यर्थ विवाद न करें तनिक यह ध्यान रहे //

एक अनुसरणीय तथ्य l
सादर,
कुसुम वीर