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शनिवार, 18 मार्च 2023

सॉनेट,अस्ति,मुक्तिका, दोहा, फागुन,गीत, नदी,

सॉनेट
अस्ति

'अस्ति' राह पर चलते रहिए
तभी रहे अस्तित्व आपका
नहीं 'नास्ति' पथ पर पग रखिए
यह भटकाव कुपंथ शाप का

है विराग शिव समाधिस्थ सम
राग सती हो भस्म यज्ञ में
पहलू सिक्के के उजास तम
पाया-खोया विज्ञ-अज्ञ ने

अस्त उदित हो, उदित अस्त हो
कर्म-अकर्म-विकर्म सनातन
त्रस्त मत करे, नहीं पस्त हो
भिन्न-अभिन्न मरुस्थल-मधुवन

काम-अकाम समर्पित करिए
प्रभु चरणों में नत सिर रहिए
१८-३-२०२३
•••
 दोहा सलिला 

रिसते रिसते रस रहित, रिश्ते होते भार।
सरस रहें तो पालिए, नीरस तुरत उतार।।
*
उम्र न गिनिए बरस में, अनुभव से लें माप।
कितना ज्ञान लिया-दिया, यह भी सकते आप।।
*
कहें कहानी सत्य कुछ, कुछ कल्पना नवीन।
भैंस कड़ी गर सामने, नहीं बजाएँ बीन।।
*
मिली जिंदगानी हमें, दिए बिना कुछ मोल।
मूल्यहीन मत मानिए, श्वास श्वास अनमोल।।
*
दोहे फागुन के 
फागुन फगुनायो सलिल, लेकर रंग गुलाल।
दसों दिशा में बिखेरें, झूमें दे दे ताल।।
*
जहँ आशा तहँ स्मिता, बिन आशा नहिं चैन।
बैज सुधेंदु सलिल अनिल, क्यों सुरेंद्र बेचैन।।
*
अफसाना फागुन कहे, दे आनंद अनंत।
रूपचंद्र योगेश हैं, फगुनाहट में संत।।
*
खुशबू फगुनाहट उषा, मोहक सुंदर श्याम।
आभा प्रमिला हमसफ़र, दिनकर ललित ललाम।।
*
समदर्शी हैं नंदिनी, सचिन दिलीप सुभाष।
दत्तात्रय प्राची कपिल, छगन छुए आकाश।।
*
अनिल नाद सुन अनहदी, शारद हुईं प्रसन्न।
दोहे आशा के कहें, रसिक रंग आसन्न।।
*
फगुनाहट कनकाभिती, दे सुरेंद्र वक्तव्य।
फागुन में नव सृजन हो, मंगलमय मंतव्य।।
*
सुधा सुधेन्दु वचन लिए, फगुनाए हम आप।
मातु शारदा से विनय, फागुन मेटे ताप।।
*
मुग्ध प्रियंका ज्योत्स्ना, नवल किरण आदित्य।
वर लय गति यति मंजुला, फगुनाए साहित्य।।
*
किरण किरण बाला बना, माथे बिंदी सूर्य।
शब्द शब्द सलिला लहर, गुंजित रचना तूर्य।।
*
साँची प्राची ने किया, श्रोता मन पर राज।
सरसों सरसा बसंती, वनश्री का है ताज।।
*
छगन लाल पीले न हो, मूठा में भर रंग।
मूछें रंगी सफेद क्यों, देखे दुनिया दंग।।
*
धूप-छाँव सुख-दुःख लिए, फगुनाहट के रंग।
चन्द्रकला भागीरथी, प्रमिला करतीं दंग।।
*
आभा की आभा अमित, शब्द शब्द में अर्थ।
समालोचना में छिपी, है अद्भुत समर्थ।।
१८-३-२०२३
***
मुक्तिका
*
मन मंदिर जब रीता रीता रहता है।
पल पल सन्नाटे का सोता बहता है।।
*
जिसकी सुधियों में तू खोया है निश-दिन
पल भर क्या वह तेरी सुधियाँ तहता है?
*
हमसे दिए दिवाली के हँस कहते हैं
हम सा जल; क्यों द्वेष पाल तू दहता है?
*
तन के तिनके तन के झट झुक जाते हैं
मन का मनका व्यथा कथा कब कहता है?
*
किस किस को किस तरह करे कब किस मंज़िल
पग बिन सोचे पग पग पीड़ा सहता है
१८-३-२०२१
***
गीत
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
१२.३.२०१८
***
मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, सच्चा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
समय की सूखी नदी पर आँसुओं की अँगुलियों से
दिल ने बेहद बेदिली से, दर्द का किस्सा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, दुबारा रिश्ता लिखा
१८-३-२०१६
***
निमाड़ी दोहा:
जिनी वाट मंs झाड नी, उनी वांट की छाँव.
मोह ममता लगन, को नारी छे ठाँव..
१८-३-२०१०
*





शरारों में फागुन कुछ इस तरह आता है जैसे पेंशनधारी के कगते में पेंशन, आई और गई, पता लगने के पाहिले ही लापता। वोला लेते शिशिर की मादकता प्रिय को साथ पाने की कल्पना यथार्थ होकर मन-प्राण को पुलकित कर देती है। उषा की गुनगुनी धुप दुपहरी में प्रिय सखी की तरह और आह्लाददायक लगने लगी है। ऐसे में सायकल उठाये घुमक्कड़ी करना बड़ा ही आनंददायक है। कल घर के पास वाले पोखर से सटे रास्ते पर निकल गया।




निरुद्देश्य पथ भ्रमण कर ही रहा था कि आँखे उलझ कर रह गईं। कचनार और अशोक के पंक्तिबद्ध वृक्ष मोहक फूलो से लद गए थे। मन्त्रमुग्ध सा वहीं रुक गया। कचनार और अशोक दोनो को एक साथ देखना बड़ा ही सम्मोहक अनुभव था। कचनार बर्फ के फाहे सा शीतल और अशोक अंगार सा दहकता हुआ गरम। बस देखता ही रहा। लेकिन इतने मनोहारी पुष्प की तुलना अंगार से मुझे उचित नही लगी। कहीं अन्याय तो नही कर रहा हूँ? लेकिन फिर कुछ याद आता है। राम चरित मानस के पन्ने खुल जाते हैं। विरहाकुल जानकी अशोक वाटिका में कह रही हैं।
नूतन किसलय अनल सामना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना।

थोड़ा संतोष होता है। उपमा सही है। अशोक को निहारने लगता हूँ। इस मनोहारी वृक्ष को देखकर आभास होने लगता है कि बस अब धरित्री पर बसंत अपनी संपूर्ण सैन्यसज्जा के साथ उतरने ही वाला है। फागुन के आने की आहट आने लगी है। फगुनाहट तन और मन दोनों में उल्लास भरने लगी है। किंवदन्तियों के अनुसार फागुन माह में ही चंद्रमा का जन्म भी हुआ था। कदाचित यह सच भी होगा। असंख्य कवियों की कल्पनाओ में उपमान का गौरव प्राप्त शशि का जन्म इस मादक ऋतु में न हुआ होगा तो कब होगा? सोचता हूँ इसे मादक ऋतु न लिख कर मनभावन ऋतु लिखूँ परंतु लेखनी साथ नही देती। साथ देगी भी कैसे? मन के कैनवस पर चित्र उभरता है। वृक्ष नव पल्लवों से भर गए हैं। लताएँ पुष्पों के भार से झुक गयी हैं। तितलियाँ टोलियाँ बना कर सैर को निकल पड़ी हैं। आम रसीली मंजरियों से लद गए हैं और पलाश में आग लग गयी है। ऐसे में इसे मादक लिखना ही सत्य होगा। कुछ और लिखना सरासर झूठ ही होगा। कुछ गलत तो नही कह रहा हूँ। क्या यह ऋतु प्रेमी हृदयों को आकुल नही कर देती है? क्या पुरातन काल से अनगिनत हृदय अनंग के शरों से इसी ऋतु में बींधे न गये होंगे? हाँ, यही सत्य है और कदाचित यही कारण रहा होगा कि बसंत को ही मन्मथ के सहचर होने का गौरव प्राप्त है।

भारतीय परंपरा ने बसंत का आगमन बसंत पंचमी से माना है। प्राचीन भारत में बसंतोत्सव इसी दिन से आरंभ हो कर पूरे माह मनाया जाता था। पहला गुलाल भी इसी दिन उड़ाया जाता है। यहीं से फाल्गुनी या फिर प्रचलित शब्दावली में कहें तो होली का आरंभ भी हो जाता है। लेकिन कभी-कभी कल्पना के पंखों पर उड़ान भरता हूँ। मन आकाश सा विस्तृत हो जाता है। विचार मेघ बन कर तैरने लगते हैं। हो न हो यह रंग उड़ाने की प्रथा हमने प्रकृति से ही सीखी होगी। बसन्त रंगों की बौछार करता हुआ ही तो आता है। चारों ओर रंगों का मेला-सा लग जाता है। खेत के खेत पीली सरसों से भर जाते हैं। कंवल ताल गुलाबी माणिक्यो की तरह छिटक पड़ते हैं। नभ साफ सुथरा नील वर्णीय पुत जाता है और धरा ...हरी कम धानी अधिक दिखाई देती है। विचार और भी आते हैं।

प्राचीन काल में यह उत्सव पूरे माह मनाया जाता था और कुछ मान्यताओ के अनुसार तो दो माह अर्थात चैत्र तक मनाया जाता था। पूरे फाल्गुन और चैत्र तक चलने वाला बसंतोत्सव आजकल के परिदृश्य में देखें तो वस्तुतः फाल्गुन पूर्णिमा पर धूलिवंदन तक ही सिमट कर रह गया है। ऐसा क्यों हुआ होगा? कदाचित इस पर शोध किया जा सकता है। किन्तु फिर सोचने लगता हूँ। सोचता हूँ समय चक्र में परंपराओं और उनसे जुड़े उत्सव भले ही बनते बिगड़ते रहें किन्तु उसमें निहित आत्मा सदैव दैदीप्यमान रहती है। यह मानव मन के उल्लास से जन्मा पर्व है। इसका यही उल्लास, इसकी यही आत्मा कदाचित होली में संरक्षित रह गयी है। होली हँसी ठिठोली का पर्व है। शत्रु को भी मित्र बना लेने का अवसर है। जीवन सबसे सुंदर स्वरूप में शायद स्वयं को इसी पर्व में प्रगट करता है। और रेणु जी के शब्दों में कहूँ तो

सुख से हँसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-
साजन! होली आई है!

विचारो की रेलगाड़ी रुकने का नाम ही नही ले रही। इंजन जलती हुई होलिका के पास आकर रुक जाता है। बचपन में देखा करता था, माँ होली से पहले ही गोबर के उपले हीरक आकर में बनाकर सुखा लेती थी। उनमें मध्य के छेंद में रस्सी डाल माला की तरह दीवार पर लटका देती। होलिका दहन में गेंहूँ की बालियों के साथ इन्हें भी स्वाहा कर दिया जाता। होलिका दहन की उन गगन चूमती अग्नि शिखाओं को देख कर मन निष्पाप हो जाता है। लोग होलिका पूजन में रम जाते हैं। मेरा बाल मन कौतूहल से भर उठता है। एक राक्षसी की पूजा! उत्तर खोजने का प्रयास करता हूँ लेकिन माँ डाँट देती है। उस समय उत्तर नही मिला। उत्तर आज भी नही है लेकिन उत्तर खोजने का आग्रह मैं अपने प्रबुद्ध पाठको के समक्ष रखता हूँ। वैसे सोचता यह भी हूँ कि वरदान के बावजूद होलिका भस्म कैसे हो गयी।

पुराणों के अनुसार तो वरदान ऐसा कवच है कि जिसे स्वयं देने वाला भी नही काट सकता फिर चाहे वह महादेव ही क्यों न हों। इसका भी कोई समाधानकारक उत्तर तो न पा सका। लेकिन कभी कभी सोचता हूँ कि यदि पौराणिक कथाएँ जीवन और अध्यात्म का सार भर ही है तो होलिका और प्रह्लाद की कथा में कौन-सा तत्व छुपा है? कोई मर्मज्ञ वेद ज्ञाता ही इसकी मीमांसा कर सकता है। हाँ, अपनी छोटी सी बुद्धि और समझ से यदि विवेचना करुँ तो लगता है कि अच्छाई को समाप्त नही किया जा सकता। यदि कोई प्रयास करता भी है तो वह ईश्वरीय संरक्षण से मुक्त होता है। आधा अधूरा ही सही किन्तु लगता है उत्तर मिला तो है। होलिका जल कर समाप्त हो जाती है। प्रह्लाद सुरक्षित रह जाता है। प्रह्लाद जो कि आनंद है। बुराइयाँ जल कर खाक हों रही हैं। बुराइयों के नष्ट होते ही आनंद प्रगट होता है।

मन सतरंगी होने लगता है। सोचता हूँ शीघ्र ही अबीर गुलाल उड़ने लगेंगे। ढोलक और मंजीरे की थाप पर फाग और चैती के राग छिड़ जाएँगे। लोटों और गिलासों में ठंडई नापी जाने लगेगी। मन पुलकित हो रहा है। होली पास आ रही है। रसखान की पंक्तियाँ मानस पटल पर उभरने लगी हैं- फागुन लाग्यो जब से तब ते ब्रजमंडल में धूम मच्यो है। मैं अब भी कचनार और अशोक को निहार रहा हूँ। कचनार इठलाने लगा है। अशोक खिलखिला रहा है। मदनदेव ने प्रत्यंचा खींच ली है। अति शीघ्र धरती पर उत्सव प्रारम्भ होने वाला है।




भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
.
भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।


पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।


बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:


ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके


ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी


कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे


तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन


नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के


इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ


लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो


ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी


ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने


ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।


रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:


किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे








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