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सोमवार, 13 मार्च 2023

बंगाली कायस्थ

बंगाल में कायस्थ वंश
‘’ शास्त्रों की यह बात है कि भगवान चित्रगुप्त जी के 12 पुत्रों में से एक सुचारु नाम के गौड़-बंगाल देश में आकर बसे और उनके वंशज गौड़ कायस्थ कहलाये। हिन्दू कानून पर श्यामाचरण सरकार की प्रसिद्ध पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ तीसरा संस्करण, पृष्ठ 332-370 में लिखा है कि पूर्व कालीन बंगाली कायस्थ सुचारु के वंशज थे। इसके पश्चात आदि सूर के राज्य काल में जैसा कि पुरानी वंश वृक्षों की पुस्तक कलाओं में लिखा है उनके दरबार में कान्य-कुब्ज के राजा ने परस्पर संधि के उपलक्ष्य में पांच वीर एवं विद्वान कायस्थों को भेजा था। उनके नाम मकरन्द, दशरथ, विराट, पुरुषोत्तम तथा कालिदास थे। इससे ही समकालीन घोष वंश, मौदगल्य गोत्र एवं भारद्वाज गोत्र वाले दत्त वंश और विश्वामित्र गोत्र वाले मित्र वंश का प्रसार हुआ। गौड़ के राजा ने उनका स्वागत और उन्हें सम्मानित किया। जब यह सूचना कान्यकुब्ज लोगों को मिली तो तीन और कायस्थ, जिनके नाम देवदत्त (नाग), चन्द्रचूड़ (दास) और चन्द्र भानु (नाथ) थे, गौड़ देश में आये और कुछ ही समय पश्चात 19 कायस्थ और आये। कारिकाओं से मालूम होता है कि ये सब अपने पूरे कुटुम्बों सहित आदि सूर के राज्यकाल में ही आये और उनका सम्मान पूर्वक स्वागत किया गया। उन्हें रहने तथा निर्वाह आदि निर्मित 27 गॉंव दिये गये। इस समय बंगाल में बौद्ध धर्म था और यही कारण था कि बंगाल में सनातन धर्म को पुन: स्थापित करने के लिये आदि सूर ने कान्यकुब्ज के राजा वीर सिंह को एक पत्र में उच्च कुल के द्विज सनातनी आर्य पुरुषों को गौड़ देश में भेजने को लिखा।। ‘सृजित सौगात बृन्दे बडगराज्ये मदाये-द्विज कुल वरजात: सानुकम्पा: प्रयातु।’एक बहुत पुरानी कारिका में लिखा है कि पहले वे पछिमी राढ़ में बसे और मछली खाने के विरुद्ध थे। पीछे से राजा बंगाल के कहने से कुछ वंश पूर्वी बंगाल से आये और उन्होंने बंगज समाज की स्थापना की। ‘पुरात पशिचमराढ़े मत्स्यत्यागी महा कुल:। ततो बल्लासेनेव मध्या बंगे आवसित:।।’ आदि सूर के लगभग चार शताब्दियों के बाद बल्लाल सेन के शासन काल में बंगाल के कायस्थों की चार शाखायें बंगज, दक्षिण राढ़ीय, उत्तर राढ़ीय और बारेन्द्र नाम से हो गर्इ। इसमें दक्षिण राढ़ीय और बंगज कायस्थ एक ही पूर्वजों के वंशज हैं। बंगाल के कायस्थों की अधिक संख्या उन्हीं दोनों शाखाओं में से है। उत्तर राढ़ीय और वारेन्द्र शाखायें छोटी हैं, जिनमें क्रमश: केवल 5 और 7 मूल कुटुम्ब है। उत्तर राढ़ीय-घोष, सिंह, मित्र, दत्त तथा देव कुटुम्बों के उदगम तथा गोत्र बंगज तथा दक्षिण राढ़ीय समाज के कुटुम्बों से हैं। वारेन्द्र कारिकाओं से पता चला है कि तीन विद्वान कायस्थ भृगु, गुरहर और नन्द दास जो वारेन्द्र, नदी, चकी तथा दास बंशों के मूल पुरुष हैं, कान्यकुब्ज से गौड़ देश में बल्लाल सेन के शासन काल में आये और राढ़ीय कायस्थों के नाम, दत्त, देव तथा सिंह वंशों से मिल जुलकर उन्होंने वारेन्द्र देश अर्थात उत्तर बंगाल में वारेन्द्र समाज बनाया। शताब्दियों तक एक दूसरे से पृथक रहेने के पश्चात अब इन भिन्न भिन्न शाखाओं के कायस्थों में विशेषकर बंग देशीय कायस्थ सभा के प्रयत्नों से अन्र्तवर्गीय विवाह होने लगे है। बंगाल का कायस्थ समाज इस प्रकार बना है।

बंगाल मुख्यत: कायस्थों का देश है और इस पर शताब्दियों तक कायस्थ राज्य करते रहे हैं और वे यहा सर्वश्रेष्ठ गुण सम्पन्न ब्राह्राणों तथा कायस्थों को लाये जिनकी संस्कृति और सभ्यता का भारी प्रभाव पड़ा।

समयानुसार पालवंशों की अवनति हुर्इ और विजय सेन वंश (कायस्थ) के संस्थापक ने गौड़ देश की राजगद्दी पर अपना आसन जमाया तथा भोज विक्रमपुर का राजा बना। ये दोनों वंश सनातन धर्म के अनुयायी थे। इन्होंने प्राचीन वैदिक धर्म को पुर्नजीवित किया। लोगों ने त्यागा हुआ वैदिक धर्म सूत्र (यज्ञोपवीत) आदि पुन: धारण कर लिया। फिर विजयसेन के पुत्र बल्लाल ने पूरा बंगाल जीत लिया और ब्राह्राणों तथा कायस्थों के (दक्षिण राढ़ीय एवं बंडगज) कुलीन धर्म की स्थापना की। जिसका आधार 9 गुणों पर था, जो सनातन धर्म के अनुयायिओं में अवश्य होना चाहिए। ‘नौ गुण परम पुनीत तुम्हारे।’ मानस में कहा है। नौ गुण – - ‘आचारो विनयो विधा प्रतिष्ठा तीर्थदर्शनम। निष्ठावृतितस्तपो दानं नवधा कुल लक्षणम।।’इस प्रकार कुलीन तथा मौलिक के भेद की नींव पड़ी। मौलिक का अभिप्राय उससे है जिसका मूल अर्थात उदगम श्रेष्ठ हो। मौलिक उतने ही श्रेष्ठ कायस्थ हैं जितने कुलीन। भेद केवल इतना ही है कि मौलिक कायस्थों को अब भी कुछ अंशों में वह सामाजिक सम्मान प्राप्त है जो बल्लाल के समय उनके पूर्वजों को प्रदान किया गया था।

भिन्न-भिन्न बंग नामों की उत्पत्ति – बिहार-संयुक्त प्रान्त एवं बुंदेलखण्ड के कायस्थों की भांति बंगाल के कायस्थ अपने नामों के पश्चात माथुर, श्रीवास्तव, भटनागर, सक्सेना, अस्थाना, कुलश्रेष्ठ आदि शब्द नहीं लिखते। बंगाली कायस्थों के अनेक वंश-नाम उनके पूर्वजों के नाम पर हैं। पाँच प्रसिद्व कायस्थ-मकरन्द, दशरथ, विराट, पुरुषोत्तम तथा कालिदास, जो आदि सूर के दरबार में आये थे। घोष, बसु, गुह (अगिन) दत्त तथा मित्र उन्हीं विख्यात पूर्वजों के वंशज है। इसलिये उनके वंशजों को एक दूसरे से पहचानने के लिए उनके नामों के पश्चात वही शब्द (बंगनाम) लगाये जाते हैं। प्राचीन काल में लोगों के नाम केवल एक शब्द के होते थे जैसे – दक्ष, मनु, भृगु, यदु, कृष्ण, राम आदि। फिर लगभग 2000 वर्ष पूर्व से नाम कुछ बड़े होने लगे और संयुक्त शब्द लगाकर बोले जाने लगे जैसे देवदत्त, अगिनमित्र, धर्मदास आदि। उस समय संयुक्त नाम के अनितम शब्द को कर्इ पीढि़यों तक बनाये रखने की प्रथा थी जैसे धर्मदास के वंशजों के नाम क्रम से दुर्गादास विष्णुदास आदि रखे गये। (यह प्रथा आज दिन वैष्णव साधु समाज में प्रचलित है।) पश्चात दास शब्द और संयुक्त होने लगा जैसे दुर्गा कुमार दास, शिवनारायण दास, विष्णु चन्द्र दास आदि। अत: इनके वंश नामों की उत्पत्ति इसी तरह हुर्इ और बंगाल में इसी तरह के नाम रखे जाने लगे।

बिंगाली कायस्थों का गौरव – समय आने पर कायस्थों ने खडग धारण किया और शताब्दियों तक राज्य करते रहे। इसका प्रमाण अबुल फजल अपने ‘आइने अकबरी’ में दे रहा है कि ‘बंगाल पर पहले एक क्षत्रिय वंश ने राज्य किया था। उसकी अवनति के पश्चात चार कायस्थ वंशों ने वहां कर्इ हजारों वर्षों (शताब्दियों) तक शासन किया। उनके नाम क्रमश: भोज, सूर, पाल एवं वंश है। पठानों ने गौड़ देश को सेन राजाओं से जीता और बाद में उन्हें मुगलों ने पराजित किया। सेन राजाओं की अवनति के पश्चात कर्ण सुवर्ण के देव वंश के कायस्थ सरदार स्वतन्त्रता के लिये लगभग दो शताब्दियों तक लड़ते रहे और उस समय भी जबकि मुगल शक्ति अपने शिखर पर थी, सरदार प्रतापादित्य, मुकुन्दराम तथा सीताराम ने मुगलों से लड़ार्इ की और हिन्दू राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया।’

बंगाल एवं आसाम के कायस्थ अपना पूर्वज श्री चित्रगुप्त जी को मानते हैं। ये चित्रगुप्त जी बारह पुत्रों में से हैं। इतिहास के अनुसार र्इसा से पूर्व लगभग 1000 वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश से श्रीवास्तव, सक्सेना, गौड़, निगम, माथुर, अम्बष्ट, भटनागर इत्यादि, बंगाल प्रदेश जो प्राचीन काल में गौड़ देश था, वहा आकर बसे। इनकी सन्तान घोष, बोस, मित्र, मलिक, गुहा, राय, पाल, डे, वैध, नाग, दत्त इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं। उत्तरी भारत कायस्थों से इनका समागम सन 1912 में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स के 22वें अधिवेशन फैजाबाद में हुआ। जिसकी अध्यक्षता आनरेबुल जस्टिस शारदा चरण मित्र ने किया था। सन 1914 र्इ0 25वें अधिवेशन में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स इलाहाबाद के अध्यक्ष महाराजा गिरिजा नाथ राय दीनाजपुर हुये।

सन 1916 र्इ0 में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स के 26वें अधिवेशन, इलाहाबाद के डॉक्टर सर रास बिहारी घोष हुए। सन 1931 र्इ0 में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स के 36वें अधिवेशन, पटना में श्री के0सी0डे0, CIE, ICS अध्यक्ष हुये। सन 1932 र्इ0 में 37वें अधिवेशन आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स, इलाहाबाद के अध्यक्ष आनरेबुल राजा सर मनमथराय चौघरी, नाइट सन्तोषराज्य थे जो 42वें अधिवेशन हैदराबाद (दक्षिण) सन 1938 में पुन: अध्यक्ष निर्वाचित हुये थे। सन 1938 र्इ0 43वें जुबली अधिवेशन इलाहाबाद के अध्यक्ष, कैप्टन आनरेबुल, महाराजा जगदीश नाथ राय, दीनाजपुर हुये।

यूरोप के इतिहासज्ञ, के अनुसार छठी शताब्दी में बंगाल में कायस्थ राजाओं का शासन था। कुछ वर्ष पूर्व जिला फरीदपुर में चार ताम्रपत्र प्राप्त हुये जिसे यह प्रमाणित होता है।

(देखिये, Journal of Asiatic Society Bengal 1911 page 54 and Social History of Kamrup by Rai Sahib Pt. N. N. Basu pages 179 to 181) |

बंगाल के कायस्थ आसाम तक फैले हैं जिनकी भाषा आसामी है परन्तु लिपि बंगाली। आसाम कायस्थ सभा की 500 पृष्ठ के इतिहास में समस्त पूर्वी बंगाल में कायस्थ राजाओं के शासन का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। बंगाल के कायस्थों में विश्व विख्यात पुरुषों में अग्रसर मुख्यत है – सर्वश्री अरविन्द घोष, स्वामी विवेकानन्द (दत्त), विपिनचन्द्र पाल (गौड़), सर रास बिहारी बोस, खुदी राम बोस, जगदीश चन्द्र बोस, सुभाष चन्द्र बोस एवं लार्ड एस0 पी0 सिन्हा।

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