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गुरुवार, 30 मार्च 2023

रेल राकेश मालवीय

rakmal405@gmail.com, ९७५२७ ८४२५० संपादक राजभाषा सरिता 
रेल गीत (पश्चिम मध्य जोन जबलपुर) १
गीतकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
9425183244
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निश-दिन दौड़े सरपट रेल, कहती सबसे रखना मेल।
लेकर टिकिट सफर करना, नहीं स्वच्छता-रक्षा खेल।।
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पश्चिम-मध्य रेल्वे अनुपम, नव विकास की सबल धुरी।
जबलपुर, भोपाल व कोटा, धरती मोहक हरी-भरी।।
विंध्य-सतपुड़ा-मेकल पर्वत, रेवा-चंबल सलिलाएँ।
कान्हा, रणथंभौर, भरतपुर, बांधवगढ़, साँची भाएँ।।
दुर्गा, कमला, कामकंदला, कीर्ति अमर ज्यों जगमग ज्वेल
*
भीमबेटका, आदमगढ़ के शैलचित्र इतिहास कहे।
जाबाली, महेश योगी, ओशो, शकुंतला संत रहे।।
है चूना, सीमेंट, कोयला, आयुध निर्माणी पहचान।
राजासौरस नर्मडेंसिस, घुघवा फॉसिल अद्भुत शान।।
जंक्शन कटनी अरु इटारसी, रेलों की है रेलमपेल
*
जबलपुर कमलापति स्टेशन, अपनी आप मिसाल है।
कोचिंग हब कोटा जबलपुर, बरगी बाँध कमाल है।।
निशातपुरा की कोच फैक्ट्री, नव निर्माण सतत करती।
शारद मैया, आल्हा-ऊदल, जगनिक ईसुरि की धरती।।
जोड़ 'सलिल' मालवा-विंध्य को, लक्ष्य वरे हर बाधा झेल
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गीत २
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा।
करता यात्री-माल ढुलाई, श्रम-कौशल इसके देवा.....
*
मुख्यालय है नगर जबलपुर, संस्कारधानी प्यारी।
नंदीकेश, जाबाली, योगी, ओशो की छवि है न्यारी।।
जीवाश्मों-डायनासौरों का, ठौर नर्मदा की घाटी।
स्वतन्त्रता संघर्ष विरासत, शौर्य अमर है परिपाटी।।
आदिवासियों ने पूजा है नागदेव-निंगा देवा।
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....
*
कमलापति, भोपाल, मालवा, महाकाल क्षिप्रा, साँची।
कोटा, रणथंभौर बाँकुरा, देशभक्ति पुस्तक बाँची।।
पक्षी अभ्यारण्य भरतपुर, कृष्ण नाथद्वारा बैठे।
जगनिक-ईसुर, आल्हा-फागें, गाँव-गाँव घर-घर पैठे।।
ज्वार-बाजरा, अरहर-मक्का, कोदो महुआ है मेवा।
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....
*
कोच फैक्ट्री, कोच रेस्तरां, रेल-पाठों का नव निर्माण।
ब्रॉडगेज-विद्युतीकरण ने, परिपथ में फूँके हैं प्राण।।
साफ़-सफाई, हरियाली अरु, वेग वृद्धि से समय-बचत।
जनभाषा में हो जन-शिक्षण, 'सलिल' बचे खरचा-लागत।।
नव विकास के नव सपनों का, कोइ नहीं हम सा लेवा।
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....
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लेख
राष्ट्रीयता के पर्याय सुभद्रा जी-लक्ष्मण सिंह जी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                 सुभद्रा जी की ख्याति राष्ट्रवादी प्रथमत: कवयित्री और बाद में सभानेत्री के रूप में फ़ैली। सुभद्रा जी की सहज-स्वाभाविक राष्ट्रीय भावधारापरक काव्यधारा के प्रवाहित होने में उनकी अभिन्न सखी महीयसी महादेवी वर्मा जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शालेय जीवन से ही सुभद्रा-महादेवी की जोड़ी विद्रोही प्रवृत्ति के लिए चर्चित रही किन्तु यह विद्रोह सुविचारित और सकारात्मक था। महादेवी का बाल विवाह को नकारकर अविवाहित रहना और सुभद्रा का विवाह में दहेज़ और पर्दा प्रथा को ठुकराना तत्कालीन परिवेश में दुष्कर और चुनौतीपूर्ण कदम थे। लक्ष्मणसिंह जी ने परिवारिक विरोधों और आर्थिक अभावों की परवाह न कर सुभद्रा के साथ मिलकर देश के स्वतंत्रता हेतु सर्वस्व के संकल्प को प्राणप्रण से पूर्ण किया। राष्ट्रीय भावधारा सुभद्रा जी और लक्ष्मण सिंह जी दोनों के काव्य में पल्ल्वित-पुष्पित होकर सत्याग्रहियों और जन सामान्य के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में सामने आई।

                 लक्ष्मण सिंह जी के एक अभिन्न मित्र की बहिन थीं सुभद्रा। प्रथम साक्षात् में ही दोनों के मन में यह भाव आया कि वे पूर्व परिचित हैं। सुभद्रा जी 'प्रथम दर्शन' शीर्षक से लिखती हैं -

प्रथम जब उनके दर्शन हुए, हठीली आँखें अड़ ही गईं
बिना परिचय के एकाएक, हृदय में उलझन पड़ ही गई

                 लक्ष्मण सिंह जी ने सुभद्रा जी को किस दिव्य दृष्टि से देखा, इसकी बानगी उनकी यह कविता प्रस्तुत करती है -

वह ठिठक अड़ैली चंचल थी, ज्यों प्रीति लाज में घुली हुई।
थी हँसी रसीले होंठों की, नव रूप सुधा से धुली हुई।।

                 इस दिव्य दंपत्ति का मिलन दैहिक से अधिक आत्मिक अद्वैत का महायज्ञ था। दोनों एक दूसरे के पूरक थे और दोनों का प्राप्य था भारत का स्वातंत्र्य। लक्ष्मण सिंह जी के कवि की पहचान हिंदी साहित्य में अपेक्षाकृत कम है। लक्ष्मण सिंह चौहान रचित साहित्य में नाटक कुली-प्रथा, उत्सर्ग, दुर्गावती और अंबपाली लिखे जो लोकप्रिय हुए। उन्होंने 'त्रिधारा' सामूहिक काव्य संकलन का संपादन-प्रकाशन भी किया था जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी, केशवप्रसाद पाठक तथा सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रतिनिधि रचनाएँ सम्मिलित थीं। 'वंदे मातरम्' शीर्षक निम्न हिंदी ग़ज़ल में उनकी काव्य कुशलता और राष्ट्रीय भावना की बानगी है -

''चल दिए माता के बंदे जेल वंदे मातरम्
देशभक्तों की यही है गैल वंदे मातरम्
हैं जहाँ गाँधी गए; बरसों तिलक भी थे जहाँ
हम भी वहाँ के कष्ट लेंगे झेल वंदे मातरम्''

उदित हुआ नक्षत्र गगन पर

                 जन्मजात काव्य प्रतिभा की धनी सुभद्रा जी ने मात्र ६ वर्ष की आयु में पहली तुकबन्दी की -

तुम बिन व्याकुल हैं सब लोगा।
तुम तो हो इस देश के गोगा।।

                 गोगा उत्तर प्रदेश और अन्य प्रांतों में पूजित लोकदेवता हैं जो अदृश्य रहकर भक्तों का भला करते हैं। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह गोगा जी के भजन गाते थे।

                 मात्र ९ वर्ष की आयु में १९१३ में प्रयाग से प्रकाशित पत्रिका मर्यादा में 'सुभद्रा कुँवरि' नाम से उनकी प्रथम काव्य रचना 'नीम प्रकाशित हुई जिसकी आरंभिक पंक्तियाँ निम्न हैं -

'सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे।'

अपनी मिसाल आप

                पाँच संतानों सुधा, अजय, विजय, अशोक व ममता की माता सुभद्रा जी ने दुधमुँहे बच्चों को अपनी राष्ट्रभक्ति-पथ और साहित्यिक सृजन में बाधक नहीं बनने दिया। उन्होंने पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन में समन्वय, समंजय और संतुलन की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत की। वर्ष १९१९ में लक्ष्मण सिंह जी से विवाह पश्चात सुभद्रा जी जबलपुर आ गईं हुए १९२० में स्वातंत्र्य संघर्ष में कूद पड़ीं। बापू के सादगी के महामंत्र को इस तरह अंगीकार किया कि चूड़ी-बिंदी और किनारेवाली साड़ी तक त्याग दी। १९२० में अखिल भारतीय कोंग्रस के नागपुर अधिवेशन में लक्ष्मण सिंह जी और सुभद्रा जी दोनों कार्यकारिणी सदस्य के रूप में सम्मिलित थे। बापू ने पूछ 'बेन तुम्हारा ब्याह हो गया।' सुभद्रा ने कहा 'हाँ,' उत्साहपूर्वक बताया पति भी साथ आए हैं। बापू आश्वस्त हुए तो 'बा' ने सस्नेह डाँटा कि चूड़ी-बिंदी और किनारेवाली साड़ी पहनो। गृहप्रवेश के साथ ही पर्दा प्रथा का विरोध करनेवाली विद्रोहिणी सुभद्रा ने 'बा' का स्नेहादेश शिरोधार्य किया। १९२२ में झंडा सत्याग्रह में सुभद्रा जी देश की प्रथम महिला सत्याग्रही बनीं तथा १९२३ तथा १९४२ के सत्याग्रह आंदोलनों में हिस्सेदारी कर दो बार कारावास भी पाया। उनकी कविताओं की सहज-स्वाभाविक वृत्ति राष्ट्रीय पौरुष को ललकारने-जगाने की है। देश की पहली महिला सत्याग्रही सुभद्रा जी के ३ कहानी संग्रह बिखरे मोती, उन्मादिनी तथा सीधे-सादे चित्र तथा काव्य संग्रह मुकुल व त्रिधारा प्रकाशित हुए हैं। भारत सरकार ने उनकी याद में एक डाक टिकिट निर्गत किया तथा एक भारतीय तट रक्षक जहाज का नामकरण किया है। जबलपुर नगर निगम प्रांगण में उनकी मानवाकार संगमरमरी प्रतिमा स्थापित की गयी है।

सुभद्रा जी का साहित्यिक वैशिष्ट्य

                 सुभद्रा जी कविता लिखती नहीं थीं, कविता उनके माध्यम से खुद को व्यक्त करती थी। अभिन्न सखी महादेवी जी की ही तरह सुभद्रा जी का भी काव्य माथापच्ची का परिणाम नहीं, ह्रदय की तीव्रतम भावनाओं और गहन अनुभूतियों का सहज प्रागट्य होता था। देश-प्रेम, नारी- जागरण और अन्याय से संघर्ष सुभद्रा जी की जन्मजात प्रवृत्तियाँ थीं। उन्होंने छायावादी आत्माभिव्यक्ति और राष्ट्रीय लोकाभिव्यक्ति नारी जागरण और समाज सुधार का नीर-क्षीर मिश्रण प्रकृत एवं आकर्षक परिधान में प्रस्तुत कर जन-मन जीत लिया। उनकी अभिव्यक्तियाँ सरल, सहज बोधगम्य एवं अकृत्रिम हैं। प्रगीत शिल्प उनकी अनुभूतियों का आवरण नहीं, आत्मिक तत्व है। वे अनुभूतियों पर काव्य को आरोपित नहीं करतीं, वे काव्यमय अनुभूतियाँ अनुभव करती हैं। उनकी अभिव्यंजना ही काव्यमयी है। राजनैतिक परवशता का विरोध, समाजिक विसंगतियों पर प्रहार, पारिवारिक ममत्व की प्रतीति के साथ राष्ट्रीय गौरव गान करते समय सुभद्रा जी की रचनाओं में कहीं अंतर्विरोध नहीं है। वे सर्वत्र राग, सृजन और नव निर्माण के गीत जाती हैं, कहीं भी विनाश या ध्वंस की कामना नहीं करतीं। वे क्रांतिकारिणी हैं, विद्रोहिणी हैं पर उनकी क्रांति बंदूक की नली से नहीं उपजती, उनका विद्रोह रक्तधार नहीं बहाता।

सुभद्रा जी के काव्य में आशावाद

                 उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से आरंभ काव्य यात्रा में सुभद्रा जी सतत अहिंसक सत्याग्रहों का भिन्न हिस्सा रहीं। वे पति की सहधर्मिणी रहीं, अनुगामिनी नहीं। लक्ष्मण सिंह जी जैसा अद्भुत जीवन साथी का अखंड विश्वास सुभद्रा का संबल और प्रेरणाशक्ति था। उन्हें पूर्ण विश्वास था की गाँधीवादी अहिंसक संघर्ष ही देश को स्वतंत्रता दिला सकेगा। 

                 सुभद्रा जी के काव्य में देश और परिवार दो धुरियाँ सहज दृष्टव्य हैं। उनकी दो सर्वाधिक प्रसिद्ध गीति रचनाएँ 'झाँसी की रानी' तथा 'कदंब का प्रेम' इन धुरियों पर ही रची गई हैं। वे 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' की विरासत को ग्रहणकर समस्त देशवासियों की पीड़ा अपनी मानकर उसके शमन हेतु जूझती हैं। अभावों और कठिनाइयों से घिरी रहकर भी वे कभी निराश नहीं हुईं। सुभद्रा जी लिखती हैं -

मैंने हँसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना
बरसा करता पल-पल पर मेरे जीवन में सोना
मैं अब तक जान न पाई, कैसी होती है पीड़ा
हँस-हँस जीवन में कैसे करती है चिंता क्रीड़ा।

                 सुभद्रा जी का आशावाद उनकी रचनाओं में उत्साह, उमंग, स्फूर्ति, साफल्य और विजय के रूप में शब्दित होकर पाठकों में नवाशा, विश्वास, ओज तथा कर्मठता का संचार करता है।

सुभद्रा काव्य में श्रृंगार रस

                 सुभद्रा जी के काव्य में श्रृंगार रस की मनोहर छवियाँ जहँ-तहँ शोभित हुई हैं। उनका श्रृंगार भोग-विलास नहीं, त्याग और समर्पण के साथ कर्तव्य पथ पर चलने की प्रेरणा बनता है।

मैं जिधर निकल जाती हूँ, मधुमास उतर आता है।
नीरस जन के जीवन में रस घोल-घोल जाता है।
सुखर सुमनों के दल पर मैं मधु संचालन करती।
मैं प्राणहीन का अपने प्राणों से पालन करती।

                 सुभद्रा जी की नारी प्रिय की अर्धागिनी के रूप में लक्ष्मण सिंह जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी होने के साथ-साथ पाँच बच्चों के लालन-पालन में प्राण-प्राण से निमग्न होती है। वे नारी विमर्श और नारी जागरण करते हुए अर्धांगिनीत्व और मातृत्व को बाधक नहीं साधक पाती हैं। प्रस्तुत हैं दाम्पत्य जीवन में अपने प्रिय के प्रति सुभद्रा जी के अखंडित विश्वास की साक्षी देती दो पंक्तियाँ -

तुम कहते हो आ न सकोगे, मैं कहती हूँ आओगे।
सखे! प्रेम के इस बंधन को यों ही तोड़ न पाओगे।
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सुभद्रा साहित्य में वात्सल्य सलिला

                 सुभद्रा जी का मातृत्व अपने बचपन और अपने बच्चों के बचपन का नीर-क्षीर सम्मिश्रण है।  जीवन की विविध जटिलताओं के बीच सुभद्रा जी बच्चों के बचपन में अपने बचपन को फिर-फिर जी रही थीं और सुधियों के सागर से संजीवनी पा रही थीं। देखिए एक  झलकी  -

शैशव के सुन्दर प्रभात का मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में जीवन का हुलास देखा।
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सुभद्रा काव्य में उद्दाम राष्ट्रीय भावधारा

                 तरुण सुभद्रा ने भारत-भारती को एक ही जाना था। उसके लिए हिंदी की सेवा भी भारत माता की सेवा थी। आज की कॉंवेंटी पीढ़ी को यह जानना चाहिए की जब देश में गिनी-चुनी आंग्ल शिक्षा संस्थाएं थीं तब सुभद्रा जी 'क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज प्रयाग' की मेधावी छात्र होते हुए, आंग्ल भाषा में काव्य रचना करने में समर्थ होते हुए भी हिंदी में काव्य रचना कर रही थीं।

जिनको तुतला-तुतला करके शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको प्राप्त हुआ है माँ का प्यार ।।

सारत: यह निर्विवाद है कि सुभद्रा जी एक साहित्य उनके जीवन-संघर्षों की अनकही गाथा कहता है। वे सत्य की आँखों में आँखें डालकर अपनी कलम चलाती हैं। यथार्थ की कुरूपता में भी सत्य-शिव-सुंदर की पाउस्थिति देख और दिखा सकने के लिए जो दिव्य दृष्टि चाहिए वह सुभद्रा जी में है। उनका स्त्री विमर्श कहीं और कभी पुरुष विरोधी नहीं होता, यह उनका वैशिष्ट्य है। विरूपता में सुरूपता की स्थापना करती सुभद्रा जी महीयसी की काल्पनिक छायावादी सौंदर्य सृष्टि का न तो अनुकरण करती हैं न विरोध। एक ही काल में पारस्परिक प्रगाढ़ स्नेह संबंध में गुँथी दोनों काव्य प्रतिभाएँ एक दूसरे की पूरक हैं। महीयसी एक बार मुक्ति की कामना से बौद्ध धर्म में दीक्षित होने गईं भी तो मोह भंग होते ही वापिस आ गईं और सुभद्रा जी तो स्वामी विवेकानंद की तरह मृत्योपरांत भी धरती और जीवन से जुड़े रहने की कामना करती रहीं। वह अपनी मृत्यु के बारे में कहती थीं कि "मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है । मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों और नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियाँ गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे।"
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४

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