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सोमवार, 20 मार्च 2023

अस्तिबोध और संक्रांतिकाल,पुरोवाक,सुनीता सिंह

पुरोवाक् 

                                                         'अस्तिबोध और संक्रांतिकाल" 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

                                                                                *

                                   वर्तमान संक्रांति काल मनुष्य और मनुष्यता दोनों के सम्मुख नित नई चुनौतियाँ उपस्थित कर रहा है। ये चुनौतियाँ दैहिक-दैविक और भौतिक ही नहीं आध्यात्मिक-आत्मिक-तात्विक और नैष्ठिक भी हैं। पञ्च तत्व की देह सप्त स्वरों के संसर्ग से सतरंगे संसार को इतना रमणीय बना लेती है कि स्वयं परमेश्वर को भी अवतार लेकर सर से सराबोर होने में सार्थकता प्रतीत होती है और वह बार-बार धराधाम पर आकर अपने अस्तित्व का बोध अर्थात अस्तिबोध करने के लिए आत्मप्रेरित होता है।  

                                   एक दृष्टि से काल का हर चरण संक्रांति काल होता है क्योंकि वह अतीत की पूर्वपीठिका पर भविष्य के भवन का निर्माण करता है। वर्तमान संक्रांति काल 'न भूतो न भविष्यति' अर्थात अभूतपूर्व इसलिए है कि यह समस्त पूर्व कालों की तिलाना में अधिक जटिल, अधिक मलिन, अधिक त्वरित मानवीत वृत्तियों से ग्रस्त है। पूर्व में दनुजों, दानवों, असुरों, निशाचरों आदि ने सत-शिव-सुंदर को मिटाने के प्रयास किए किंतु दैवीय और मानवीय शक्तियों ने का सम्मिलन शुभ के विनाश हेतु संकल्पित अशुभ को मिटाने हेतु समर्थ हो सका। जलंधर, भस्मासुर, त्रिपुरासुर आदि को परात्पर शिव इसलिए नष्ट कर सके कि वे लोक और सती की अगाध निष्ठा के केंद्र तथा आत्मलीन थे। जलंधर, भस्मासुर, त्रिपुरासुर आदि को परात्पर शिव इसलिए नष्ट कर सके कि वे लोक और सती की अगाध निष्ठा के केंद्र तथा आत्मलीन थे। कनककशिपु के अहंकार के सम्मुख प्रह्लाद की विनयशीलता पराजित नहीं हुई तो केवल इसलिए कि उसकी निष्ठा ध्रुव के संकल्प के तरह अविचलित रही और भक्त के बस में रहनेवाले भगवान को स्तंभ से प्रगट होना पड़ा। शुंभ-निशुंभ के पराक्रमियों सेनापतियों और उनके अपार बल-विक्रम को आदि शक्ति धुलधूल में इसलिए मिटा सकीं कि सकल देवताओं में अपरिमित ऐक्य भाव और देवी के प्रति अटूट निष्ठा थी।   
  
                                   वर्तमान संक्रमण काल विशिष्ट इसलिए है कि शुभत्व उपासक मानव मानवीयता से विमुख होकर दानवीयता की ओर  उन्मुख होता जा रहा है। 'स्व' में लीन होकर सर्व का शुभ करने की नीति को विस्मृत कर वह लोक मांगल्य के आदि देवता शिव और उनकी आदिशक्ति शिवा के शिवत्व से दूर हो गया है। 'कंकर से शंकर' गढ़ सकने की सर्व व्यापकता से सर्वथा दूर होकर संकुचन और विलोपन की कगार पर पहुँचकर असुर विनाशी, विष्णु विनाशक विष्णु की भक्तवत्सलता और शरणागतवत्सलता की रीति को हृदयंगम न कर विष्णुत्व के लिए अस्पर्श्य हो गया है। अमृतत्व की रक्षा करने में असमर्थ होकर मनु-पुत्र सारस्वत साधना में अंतर्निहित अमलता, विमलता और धवलता की त्रिवेणी ही नहीं, शुचिता-साधना और निस्वार्थता की नेह-नर्मदा को प्रदूषित और नष्ट कर प्रजापिता ब्रह्मा के ब्रह्मत्व से हीं हो गया है। फलत:, जन-जीवन के हर अंश और सकल में नकारात्मक ऊर्जाओं (शक्तियों) का प्रभाव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। 

                                   स्वातंत्र्योत्तर काल में धीरे-धीरे 'मानवीय प्रवृत्तियों और आचरण को प्रेरित और नियंत्रित करनेवाले सर्वजन हिताय ,सर्वजन सुखाय' रचे जाने वाले साहित्य की विधाओं से भी ''सत-शिव-सुंदर'' घटते-घटते लगभग ओझल हो गया है। पारंपरिक रचना विधाओं में हास्य-लास्य, लालित्य-चारुत्व, बोध-संदेश, सकारात्मक दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर रचना कर्म किया गया किन्तु इस काल में नवगीत, लघुकथा और व्यंग्य लेख आदि विधाएँ केवल और केवल विसंगतियों, विडंबनाओं और टकरावों को उभाड़कर द्वेष भाव का प्रसार कर रही हैं। फलत:, आत्मानुशासन, बंधुत्व, संयम, सद्भाव, सहकार, सदाचार, आस्था, विश्वास, निष्ठा आदि के लोप होने का खतरा मुँह बाए खड़ा है। विडंबना यह है कि नकारात्मक ऊर्जा प्रधान सृजन ने किशोर युवा ही नहीं बाल मानस तक को प्रदूषित कर दिया है। परिणाम स्वरूप समाज में समाज के सभी वर्गों में हो रहे अपराधों की संख्या और विकरालता में कल्पनातीत वृद्धि हुई है। मनुष्य अपने घर में, अपने निकट संबंधियों में भी खुद को सुरक्षित नहीं पा रहा है। 'विवाह' और 'परिवार' जैसी कालजयी समाजि कसंस्थाएँ खतरे में हैं। मनुष्य- जीवन में लोभ, वासना और असंतोष ने मनुष्य से सुख-चैन छीन लिया है। ऐसे समय में सकारात्मक मूल्यपरक चिंतन अपरिहार्य हो गया है। 

                                  समय की माँग पर युवा साहित्यकार (उच्च प्रशासनिक अधिकारी भी) श्री सुनीता सिंह ने नकारात्मकता के घटाटोप तिमिर को चीरकर उषा की उजास बिखेरने का संकल्प कर ''अस्तिबोध : भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता'' ' शीर्षक कृति की रचना की है। इस अपरिहार्य और मांगलिक कार्य के लिए सुनीता जी साधुवाद की पात्र हैं। तीन भागों (अस्तिबोध : अर्थ और आयाम, भक्ति काव्य में अस्ति  बोध तथा आधुनिक साहित्य में अस्तिबोध) में विभक्त यह कृति त्रिकालिक (विगत, वर्तमान और भावी) साहित्य के मध्य सकारात्मक चिन्तन का सेतु स्थापित करता है। तीन का मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। त्रिदेव (विधि-हरि-हर), त्रिकाल (कल-आज-कल), त्रिऋण (देव-पितृ-ऋषि), त्रिअग्नि (पापाग्नि-जठराग्नि-कालाग्नि), त्रिदोष (वात-पित्त-कफ), त्रिलोक (स्वर्ग-धरती-पाताल), त्रिवेणी (गंगा-यमुना-सरस्वती), त्रिताप (दैहिक-दैविक-भौतिक), त्रिऋतु (पावस-शीत-ग्रीष्म), त्रिराम (परशुराम-श्रीराम-बलराम) तथा त्रिमातुल (कंस-शकुनि-माहुल) ही नहीं त्रिपुर, त्रिनेत्र, त्रिशूल, त्रिदल, तीज, तिराहा और त्रिभुज भी तीन का महत्व प्रतिपादित करते हैं।  

                                कृति में चौदह अध्याय हैं। इनमें अस्तिबोध की अवधारण, महत्त्व, प्रकृति, विज्ञान, अस्तबोध के साथ संबंध, काव्य में स्थान, भक्ति काल में स्थान, सगुण-निर्गुण भक्ति धरा में स्थान, सामाजिकता, प्रासंगिकता, समाधान, रचनाकार तथा क्रांतिधर्मिता जैसे आवश्यक बिंदुओं की सम्यक विवेचना की गई है। चौदह इंद्र, चौदह मनु, चौदह विद्या और चौदह रत्नों की तरह ये चौदह अध्याय पाठक के ज्ञान चक्षुओं को खोलकर उसे नव चिंतन हेतु प्रवृत्त करते हैं। 

                                अस्ति-बोध अस्तित्व के लिए अपरिहार्य है। 'अस्ति' का बोध तभी हो सकता है जब 'नास्ति' का बोध हो। 'अस्ति' की अनुभूति ही 'आस्तिकता' की प्रतीति कराती है। जिसे 'अस्ति' का अहसास हो जाता है उसकी हस्ती आम से खास हो जाती है। अस्ति का बोध न हो तो सुर ही असुर हो जाता है, असुर का सुर में रूपांतरण हो सकता है। 'अस्ति बोध' के अभाव में  'उदय' ही 'अस्त' की पटकथा लिख देता है। धर्म और कर्म दोनों का पालन करने में अस्ति-बोध सहायक होता है। राग-विराग, योग-भोग आदि में समन्वय और संतुलन अस्तिबोध से ही संभव है। अस्तिबोध का अभाव 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' के दर पर खड़ा कर देता है। ग़ालिब के अनुसार 'क़र्ज़ की पीते मय अउ' ये समझते की हाँ / रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन'। फाकामस्ती रंग न लेकर बदरंग कर देती है। अस्ति-बोध के आभाव में ज़फ़र लिखता है 'लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में'। अस्तिबोध होने पर शिव हों या मीरा उनके लिए  गरल भी अमृत बन जाता है।  

                                अस्ति ही 'भक्ति' और 'अनुरक्ति' बनकर आस को विश्वास में रूपांतरित कर देती है, विश्वास ही नीरसता को सरसता में बदल देता है। रस-लीन होकर रस-निधि को पाकर  रस-खान हुआ जा सकता है। अस्ति 'स्व' को 'सर्व' में रूपांतरित कर कंकर में शंकर की प्रतीति कर-करा सकती है। 'अस्ति' ही अहं के वहम से मुक्त  कर भक्ति की और उन्मुख कर देती है। 'भगत के बस में हैं भगवान्' की प्रतीति अस्ति बिना संभव नहीं हो सकती। अस्ति रैदास, कबीर आदि को उच्च वर्णीय जनों का गुरु बना देती है। अस्ति की राह में सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत, ऊँच-नीच आदि भेद-भाव स्वत्: ही शून्य हो जाते हैं। 

                                नर के नारायण में रूपांतरण ही नहीं, अस्ति बोध नारायण के नर में अवतरण को भी संभव कर देता है। जड़-चेतन की हर समस्या का समाधान अस्तिबोध से संभव है। अस्ति ही प्रकृति को विकृति होने से बचाकर सुकृति बनने की ओर प्रेरित करती है।  

'अस्ति' राह पर चलते रहिए
तभी रहे अस्तित्व आपका
नहीं 'नास्ति' पथ पर पग रखिए
यह भटकाव कुपंथ शाप का
है विराग शिव समाधिस्थ सम
राग सती हो भस्म यज्ञ में
पहलू सिक्के के उजास तम
पाया-खोया विज्ञ-अज्ञ ने
अस्त उदित हो, उदित अस्त हो
कर्म-अकर्म-विकर्म सनातन
त्रस्त मत करे, नहीं पस्त हो
भिन्न-अभिन्न मरुस्थल-मधुवन

                                अस्ति ही पंच तत्वों की काया को, मोह-माया की छाया से मुक्त कर, माटी को माटी से जुड़े रहने की राह दिखाती है। जड़ से जुड़े बिना जीव संजीव नहीं हो सकता। अस्ति की प्रतीति नीति बनकर रीति का आधार और प्रीति का श्रृंगार हो जाती है। प्रकाश स्तंभ जिस तरह अन्धकार से पथिक को ठोकर खाने से बचाता है, उसे तरह 'अस्तिबोध' जीव के जीवन को सोद्देश्यता प्रदान कर निरर्थक होने से बचाता है। सूर्य, चंद्र हो या जुगनू अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार तम हरकर उजास देने का कार्य यथाशक्ति करते हैं।अस्तिबोध हो तो वे या उनको उच्च-हीन नहीं  कहा जा सकता। अस्तिबोध न तो शोषण करता है, न शोषण होने देता है। इसीलिए अस्तिबोध को आरक्षण भी नहीं चाहिए। अस्तिबोध से कंकर भी शंकर हो है और अस्तिबोध  शंकर को कंकर होने में देर नहीं लगाती। अस्ति का नाद अनहद होकर हर हद को तोड़कर दिग्दिगंत तक है। 

स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।
                                ऐसा कोई समय न था, न है और न होगा जब 'अस्ति-दूत' न हों और जब 'अस्ति-शत्रु' न हों। इन दोनों का साथ आत्मा और देह की तरह अविच्छिन्न था, है रहेगा। किसी को पहचानना हो तो मन-प्रतिष्ठा, धन-दौलत, दान-दक्षिणा आदि से नहीं उसको हुआ अस्ति-बोध के आधार पर पहचानिए और उसका मूल्याङ्कन करिए। यह कृति पाठकों को उनका अपना अस्तित्व-बोध करने के पथ पर सहायक होगी। सलिल से अभिषेक करें, पद प्रक्षालन करें अथवा उसका पान करें, लाभ ही होता है किन्तु सलिल धार में अपने कद से अधिक गहराई तक चले जाएँ तो पैर उखड़ने में देर नहीं लगती। इसी तरह अस्ति-बोध को शीश पर, ह्रदय  में,हाथ में अथवा पैरों में हो क्यों न रखें, कलयाण होगा किन्तु उसे अन्य के अस्ति-बोध को नगण्य मानने की भूल न करने दें। 'एस्टी' और 'अस्तित्व' 'अहं' या 'अहंकार' बनने पाए।
                               'अस्तिबोध : भक्ति काव्य की क्रांतिधर्मिता' शीर्षक यह कृति केवल वर्तमान की नहीं अपितु हर देश-काल में मानवीय जिजीविषा और अस्मिता की पहचान और कल्याण के लिए आवश्यक कृति है। वेद, पुराण, उपनिषद आदि तभी रचे जा सकते हैं जब 'अस्तिबोध' हो चुका हो। गीता, बाइबिल, ग्रंथ साहब, सत्यार्थ प्रकाश या कुरआन तभी प्रकाशित हो सकती है जब निमित्त या माध्यम अस्तिबोध संपन्न हो। प्रिय सुनीता जी ने इस सरल-जटिल विषय पर अध्ययन-विमर्श, पठन-पाठन, मनन-चिंतन कर, नीर- परिचय देते हुए, यह कृति प्रस्तुत की है। सुनीता जी के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य संकेतों और सुझावों को सकारात्मक ऊर्जा के साथ ग्रहण करना, एकाग्रचित्त होकर खोज व अध्ययान करना, स्वतंत्र मौलिक चिंतन-मनन कर, विचारों को व्यवस्थित रूप से सम्यक शब्द चयन कर सहज भाषा में प्रस्तुत कर पाठकीय प्रतिक्रिया को समुचित विनम्रता सहित ग्रहण करना है। सुनीता जी अपनी अध्ययन -क्षमता, कार्य-गरिमा और सृजन-श्रेष्ठता की ऐसी त्रिवेणी है जो निकट आनेवाले को मंदिर से उठती मंत्रोच्चार की ध्वनि की लय की तरह अस्तिमयता की प्रतीति करती हैं।

                               वर्तमान संक्रमण काल में अस्ति परक भावधारा की सर्वाधिक आवश्यकता है। महाभारत पश्चात् मूल्यों के संक्रमण काल में 'आस्तीक' ने अशुभ की भावधारा को अवरुद्ध कर शुभत्व की स्थापना की थी। भारत की मूल नाग संस्कृति के प्रदूषित होने पर उसे श्री राम, श्रीकृष्णादि द्वारा दंडित किया गया। खांडव वन में अर्जुन ने आग्नेयास्त्र का प्रयोग कर नागों को निकला भागने का अवसर दिए बिना उनका सर्वनाश कर दिया। तक्षक उस समय खांडव वन से बाहर गया था, सो बच गया। कृष्णार्जुन से बदला लेने के लिए उसने कुरुक्षेत्र में कर्ण की अमोघ शक्ति घटोत्कच पर चल जाने के बाद, कर्ण से अनुरोध किया कि उसे बाण के फल पर स्थान देकर कर्ण शर चलाए तो वह अर्जुन का नाश कर देगा। कर्ण न माना और कृष्णार्जुन द्वारा मारा गया। बाद में एक वनवासी ने शर प्रहार कर कृष्ण का देहांत किया। कृष्ण के निर्देशानुसार यादव कुल की स्त्रियों को गोकुल ले जाते समय वनवासियों ने आक्रमण कर अर्जुन को बंदी बनाकर यादव कुल की समस्त स्त्रियों को छीन के अपनी पत्नियाँ बना लिया। तक्षक ने पांडवों के वंशज परीक्षित को डँसकर अपना बदला पूरा किया तो परीक्षित-पुत्र जन्मेजय ने सर्प यज्ञ कर नागों का विनाश करना आरंभ कर दिया। 'नास्ति' की नकारात्मकता से सर्वनाश की आशंका हुई तो शंकारि  शंकर के नाती (जरत्कारु-मनसा के पुत्र ) आस्तीक 'अस्ति' की धर्म ध्वजा थामे  उपस्थित हो गए और नास्ति को नकारते हुए 'स्वस्ति' मय वातावरण की सृष्टि की। श्रावण शुक्ल पंचमी को आस्तीक ने नाग यज्ञ से उपजे कलुष की कालिमा को श्वेत गोरस से शांत किया था। इसलिए तब से श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाकर विषधर के जहरीलापन का दूध अर्पित कर शमन किया जाता है। 'नास्ति' (निगेटिव एनर्जी) पर 'स्वस्ति' (पॉजिटिव एनर्जी) की विजय का ऐसा पर्व अन्यत्र कहीं, किसी सभ्यता में किसी समय नहीं मनाया गया।                                

सॉनेट
स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।
• 
स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।

                               'अस्तिबोध - भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता' इस घोर कलिकाल में आस्तीक द्वारा लाई गयी स्वस्ति भावना की पुनरावृत्ति का अनूठा प्रयास है। जीव को संजीव बनाने का यह सात्विक सारस्वत अनुष्ठान और उसकी 'होता' सुनीता जी तो साधुवाद की पात्र हैं ही, वे पाठकगण जो इस 'अस्तियज्ञ' में समिधा अर्पित करेंगे, वे भी 'स्वस्ति' के सारस्वत वाहक बनेंगे। नागों के नाती कायस्थों का वंशज मैं इस 'अस्तियज्ञ' और 'स्वस्ति स्थापन' का पौरोहित्य कर धन्य हूँ। 
***
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

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