कृति चर्चा :
नवगीत २०१३: रचनाधर्मिता का दस्तावेज
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: नवगीत २०१३ (प्रतिनिधि नवगीत संकलन), संपादक डॉ. जगदीश व्योम, पूर्णिमा बर्मन, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १२ + ११२, मूल्य २४५ /, प्रकाशक एस. कुमार एंड कं. ३६१३ श्याम नगर, दरियागंज, दिल्ली २ ]
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विश्व वाणी हिंदी के सरस साहित्य कोष की अनुपम निधि नवगीत के विकास हेतु संकल्पित-समर्पित अंतर्जालीय मंच अभिव्यक्ति विश्वं तथा जाल पत्रिका अनुभूति के अंतर्गत संचालित ‘नवगीत की पाठशाला’ ने नवगीतकारों को अभिव्यक्ति और मार्गदर्शन का अनूठा अवसर दिया है. इस मंच से जुड़े ८५ प्रतिनिधि नवगीतकारों के एक-एक प्रतिनिधि नवगीत का चयन नवगीत आंदोलन हेतु समर्पित डॉ. जगदीश व्योम तथा तथा पूर्णिमा बर्मन ने किया है.
इन नवगीतकारों में वर्णमाला क्रमानुसार सर्व श्री अजय गुप्त, अजय पाठक, अमित, अर्बुदा ओहरी, अवनीश सिंह चौहान, अशोक अंजुम, अशोक गीते, अश्वघोष, अश्विनी कुमार आलोक, ओम निश्चल, ओमप्रकाश तिवारी, ओमप्रकाश सिंह, कमला निखुर्पा, कमलेश कुमार दीवान, कल्पना रामानी, कुमार रवीन्द्र, कृष्ण शलभ, कृष्णानंद कृष्ण, कैलाश पचौरी, क्षेत्रपाल शर्मा, गिरिमोहन गुरु, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, गीता पंडित, गौतम राजरिशी, चंद्रेश गुप्त, जयकृष्ण तुषार, जगदीश व्योम, जीवन शुक्ल, त्रिमोहन तरल, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, धर्मेन्द्र कुमार सिंह, नचिकेता, नवीन चतुर्वेदी, नियति वर्मा, निर्मल सिद्धू, निर्मला जोशी, नूतन व्यास, पूर्णिमा बर्मन, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, प्रवीण पंडित, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, भारतेंदु मिश्र, भावना सक्सेना, मनोज कुमार, विजेंद्र एस. विज, महेंद्र भटनागर, महेश सोनी, मानोशी, मीना अग्रवाल, यतीन्द्रनाथ राही, यश मालवीय, रचना श्रीवास्तव, रजनी भार्गव, रविशंकर मिश्र, राजेंद्र गौतम, राजेंद्र वर्मा, राणा प्रताप सिंह, राधेश्याम बंधु, रामकृष्ण द्विवेदी ‘मधुकर’, राममूर्ति सिंह अधीर, संगीता मनराल, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रावेन्द्र कुमार रवि, रूपचंद शास्त्री ‘मयंक’, विद्यानंदन राजीव, विमल कुमार हेडा, वीनस केसरी, शंभुशरण मंडल, शशि पाधा, शारदा मोंगा, शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, शिवाकांत मिश्र ‘विद्रोही’, शेषधर तिवारी, श्यामबिहारी सक्सेना, श्याम सखा श्याम, श्यामनारायण मिश्र, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’, संगीता स्वरूप, संजीव गौतम, संजीव वर्मा ‘सलिल’, सुभाष राय, सुरेश पंडा, हरिशंकर सक्सेना, हरिहर झा तथा हरीश निगम सम्मिलित हैं.
उक्त सूची से स्पष्ट है कि वरिष्ठ तथा कनिष्ठ, अधिक चर्चित तथा कम चर्चित, नवगीतकारों का यह संकलन ३ पीढ़ियों के चिंतन, अभिव्यक्ति, अवदान तथा गत ३ दशकों में नवगीत के कलेवर, भाषिक सामर्थ्य, बिम्ब-प्रतीकों में बदलाव, अलंकार चयन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवगीत के कथ्य में परिवर्तन के अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री मुहैया कराता है. संग्रह का कागज, मुद्रण, बँधाई, आवरण आदि उत्तम है. नवगीतों में रूचि रखनेवाले साहित्यप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होंगे. नवगीत के कलेवर में सतत हो रहे शैल्पिक तथा भाषिक परिवर्तन का अध्ययन करना हो तो यह संकलन बहुत उपयोगी होगा. नवगीतकारों की पृष्ठभूमि की विविधता नगरीय / ग्रामीण अंचल, उच्च / मध्य / निम्न आर्थिक स्थिति, शिक्षिक विविधता, कार्यक्षेत्रीय विभिन्नता आदि नवगीत के विषय चयन, प्रयुक्त शब्दावली तथा कहाँ पर प्रभाव छोड़ती है. उल्लेखनीय है कि नवगीतकारों में सैनिक-अर्ध सैनिक बल, अधिवक्ता, चिकित्सक, बड़े व्यापारी, राजनेता आदि वर्गों से प्रतिनिधित्व लगभग शून्य है जबकि न्याय, अभियांत्रिकी, उच्च शिक्षा, चिकित्सा आदि वर्गों से नवगीतकार हैं.
शोध छात्रों के लिये इस संकलन में नवगीत की विकास यात्रा तथा परिवर्तन की झलक उपलब्ध है. नवगीतों का चयन सजगतापूर्वक किया गया है. किसी एक नवगीतकार के सकल सृजन अथवा उसके नवगीत संसार के भाव पक्ष या कला पक्ष को किसी एक नवगीत के अनुसार नहीं आँका जा सकता किन्तु विषय की परिचर्या (ट्रीटमेंट ऑफ़ सब्जेक्ट) की दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है. नवगीत चयन का आधार नवगीत की पाठशाला में प्रस्तुति होने के कारण सहभागियों के श्रेष्ठ नवगीत नहीं आ सके हैं. बेहतर होता यदि सहभागियों को एक प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया जाता और उसे पाठशाला में प्रस्तुत कर सम्मिलित किया जा सकता. हर नवगीत के साथ उसकी विशेषता या खूबी का संकेत नयी कलमों के लिये उपयोगी होता.
संग्रह में नवगीतकारों के चित्र, जन्म तिथि, डाक-पते, चलभाष क्रमांक, ई मेल तथा नवगीत संग्रहों के नाम दिये जा सकते तो इसकी उपयोगिता में वृद्धि होती. आदि में नवगीत के उद्भव से अब तक विकास, नवगीत के तत्व पर आलेख नई कलमों के मार्गदर्शनार्थ उपयोगी होते. परिशिष्ट में नवगीत पत्रिकाओं तथा अन्य संकलनों की सूची इसे सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में अधिक उपयोगी बनाती तथापि नवगीत पर केन्द्रित प्रथम प्रयास के नाते ‘नवगीत २०१३’ के संपादक द्वय का श्रम साधुवाद का पात्र है. नवगीत वर्तमान स्वरुप में भी यह संकलन हर नवगीत प्रेमी के संकलन में होनी चाहिए. नवगीत की पाठशाला का यह सारस्वत अनुष्ठान स्वागतेय तथा अपने उद्देश्य प्राप्ति में पूर्णरूपेण सफल है. नवगीत एक परिसंवाद के पश्चात अभिव्यक्ति विश्वं की यह बहु उपयोगी प्रस्तुति आगामी प्रकाशन के प्रति न केवल उत्सुकता जगाती है अपितु प्रतीक्षा हेतु प्रेरित भी करती है.
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पुस्तक सलिला:
हिरण सुगंधों के- आचार्य भगवत दुबे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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पुस्तक परिचय: हिरण सुगंधों के, गीत-नवगीत संग्रह रचनाकार- आचार्य भगवत दुबे, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर साहिबाबाद २०१००५, प्रथम संस्करण- २००४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- १२१।
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विविध विधाओं में गत ५ दशकों से सृजनरत वरिष्ठ रचनाधर्मी आचार्य भगवत दुबे रचित ‘हिरण सुगंधों के’ के नवगीत किताबी कपोल कल्पना मात्र न होकर डगर-डगर में जगर-मगर करते अपनों के सपनों, आशाओं-अपेक्षाओं, संघर्षों-पीडाओं के जीवंत दस्तावेज हैं। ये नवगीत सामान्य ग्राम्य जनों की मूल मनोवृत्ति का दर्पण मात्र नहीं हैं अपितु उसके श्रम-सीकर में अवगाहन कर, उसकी संस्कृति में रचे-बसे भावों के मूर्त रूप हैं। इन नवगीतों में ख्यात समीक्षक नामवर सिंह जी की मान्यता के विपरीत ‘निजी आत्माभिव्यक्ति मात्र’ नहीं है अपितु उससे वृहत्तर आयाम में सार्वजनिक और सार्वजनीन यथार्थपरक सामाजिक चेतना, सामूहिक संवाद तथा सर्वहित संपादन का भाव अन्तर्निहित है। इनके बारे में दुबे जी ठीक ही कहते हैं-
‘बिम्ब नये सन्दर्भ पुराने
मिथक साम्यगत लेकर
परंपरा से मुक्त
छान्दसिक इनका काव्य कलेवर
सघन सूक्ष्म अभिव्यक्ति दृष्टि
सारे परिदृश्य प्रतीत के
पुनः आंचलिक संबंधों से
हम जुड़ रहे अतीत के’
अतीत से जुड़कर वर्तमान में भविष्य को जोड़ते ये नवगीत रागात्मक, लयात्मक, संगीतात्मक, तथा चिन्तनात्मक भावभूमि से संपन्न हैं। डॉ. श्याम निर्मम के अनुसार: ‘इन नवगीतों में आज के मनुष्य की वेदना, उसका संघर्ष और जीवन की जद्दोजहद को भली-भाँति देखा जा सकता है। भाषा का नया मुहावरा, शिल्प की सहजता और नयी बुनावट, छंद का मनोहारी संसार इन गीतों में समाया है। आम आदमी का दुःख-दर्द, घर-परिवार की समस्याएँ, समकालीन विसंगतियाँ, थके-हारे मन का नैराश्य और संवेदनहीनता को दर्शाते ये नवगीत नवीन भंगिमाओं के साथ लोकधर्मी, बिम्बधर्मी और संवादधर्मी बन पड़े हैं।’
श्रम ढहाकर ही रहेगा / अब कुहासे का किला
झोपडी की अस्मिता को / छू न पाएँगे महल अब
पीठ पर श्रम की / न चाबुक के निशां / बन पाएँगे अब
बाँध को / स्वीकारना होगा / नहर का फैसला
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चुटकुले, चालू चले / औ' गीत हम बुनते रहे
सींचते आँसू रहे / लतिकाओं, झाड़ों के लिए
तालियाँ पिटती रहीं / हिंसक दहाड़ों के लिए
मसखरी, अतिरंजना पर / शीश हम धुनते रहे
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उच्छृंखल हो रही हवाएँ / मौसम भी बदचलन हुआ है
इठलाती फिरती हैं नभ पर / सँवर षोडशी नील घटाएँ
फहराती ज्यों खुली साड़ियाँ / सुर-धनु की रंगीं ध्वजाएँ
पावस ऋतु में पूर्ण सुसज्जित / रंगमंच सा गगन हुआ है
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महाकाव्य, गीत, दोहा, कहानी, लघुकथा, गज़ल, आदि विविध विधाओं की अनेक कृतियों का सृजन कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके आचार्य दुबे अद्भुत बिम्बों, सशक्त लोक-प्रतीकों, जीवंत रूपकों, अछूती उपमाओं, सामान्य ग्राम्यजनों की आशाओं-अपेक्षाओं की रागात्मक अभिव्यक्ति पारंपरिक पृष्ठभूमि की आधारशिला पर इस तरह कर सके हैं कि मुहावरों का सटीक प्रयोग, लोकोक्तियों की अर्थवत्ता, अलंकारों का आकर्षण इन नवगीतों में उपस्थित सार्थकता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, बेधकता तथा रंजकता के पंचतत्वों के साथ समन्वित होकर इन्हें अर्थवत्ता दे सका है।
दबे पाँव सूर्य गया / पश्चिम की ओर
प्राची से प्रगट हुआ / चाँद नवकिशोर
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भूखा पेट कनस्तर खाली / चूल्हा ठंडा रहा
अंगीठी सोयी मन मारे
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सूखे कवित्त-ताल / मुरझाए पद्माकर
ग्रहण-ग्रस्त चंद
गीतों से निष्कासित / वासंती छंद
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आम आदमी का दैनंदिन दुःख-सुख इन नवगीतों का उत्स और लक्ष्य है। दुबे जी के गृहनगर जबलपुर के समीप पतित पावनी नर्मदा पर बने बरगी बाँध के निर्माण से डूब में आयी जमीन गँवा चुके किसानों की व्यथा-कथा कहता नवगीत पारिस्थितिक विषमता व पीड़ा को शब्द देता है:
विस्थापन कर दिया बाँध ने
ढूँढें ठौर-ठिकाना
बिके ढोर-डंगर, घर-द्वारे
अब सब कुछ अनजाना
बाड़ी, खेत, बगीचा डूबे
काटा आम मिठौआ
उड़ने लगे उसी जंगल में
अब काले कौआ
दुबे जी ने भाष की विरासत को ग्रहण मात्र नहीं करते नयी पीढ़ी के लिए उसमें कुछ जोड़ते भे एहेन। अपनी अभिव्यक्ति के लिये उनहोंने आवश्यकतानुसार नव शब्द भी गढ़े हैं-
सीमा कभी न लाँघी हमने
मानवीय मरजादों की
भेंट चाहती है रणचंडी
शायद अब दनुजादों की
‘साहबजादा’ शब्द की तर्ज़ पर गढ़ा गया शब्द ‘दनुजादा’ अपना अर्थ आप ही बता देता है। ऐसे नव प्रयोगों से भाषा की अभिव्यक्ति ही नहीं शब्दकोष भी समृद्ध होता है।
दुबे जी नवगीतों में कथ्य के अनुरूप शब्द-चयन करते हैं- खुरपी से निन्वारे पौधे, मोची नाई कुम्हार बरेदी / बिछड़े बढ़ई बरौआ, बखरी के बिजार आवारा / जुते रहे भूखे हरवाहे आदि में देशजता, कविता की सरिता में / रेतीला पड़ा / शब्दोपल मार रहा, धरती ने पहिने / परिधान फिर ललाम, आयेगी क्या वन्य पथ से गीत गाती निर्झरा, ओस नहाये हैं दूर्वादल / नीहारों के मोती चुगते / किरण मराल दिवाकर आधी में परिनिष्ठित-संस्कारित शब्दावली, हलाकान कस्तूरी मृग, शीतल तासीर हमारी है, आदमखोर बकासुर की, हर मजहबी विवादों की यदि हवा ज़हरी हुई, किन्तु रिश्तों में सुरंगें हो गयीं में उर्दू लफ्जों के सटीक प्रयोग के साथ बोतलें बिकने लगीं, बैट्समैन मंत्री की हालत, जब तक फील्डर जागें, सौंपते दायित्व स्वीपर-नर्स को, आवभगत हो इंटरव्यू में, जीत रिजर्वेशन के बूते आदि में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग जिस सहजता से हुआ है, वह दुबेजी के सृजन सामर्थ्य का प्रमाण है।
गीतों के छांदस विधान की नींव पर आक्रामक युगबोधी तेवरपरक कथ्य की दीवारें, जन-आकांक्षाओं की दरार तथा जन-पीडाओं के वातायन के सहारे दुबे जी इन नवगीतों के भवन को निर्मित-अलंकृत करते हैं। इन नवगीतों में असंतोष की सुगबुगाहट तो है किन्तु विद्रोह की मशाल या हताशा का कोहरा कहीं नहीं है। प्रगतिशीलता की छद्म क्रन्तिपरक भ्रान्ति से सर्वथा मुक्त होते हुए भी ये नवगीत आम आदमी के लिये हितकरी परिवर्तन की चाह ही नहीं माँग भी पूरी दमदारी से करते हैं। शहरी विकास से क्षरित होती ग्राम्य संस्कृति की अभ्यर्थना करते ये नवगीत अपनी परिभाषा आप रचते हैं। महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में प्रतिष्ठित तथाकथित पुरोधाओं द्वारा घोषित मानकों के विपरीत ये नवगीत छंद व् अलंकारों को नवगीत के विकास में बाधक नहीं साधक मानते हुए पौराणिक मिथकों के इंगित मात्र से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर पाठक के चिंतन-मनन की आधारभूमि बनाते हैं। प्रख्यात नवगीतकार, समीक्षक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार- ‘अनेक गीतकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति उतारने की कोशिश पहले भी की है तथापि मेरी जानकारी में जितनी प्रचुर और प्रभूत मात्रा में भगवत दुबे के गीत मिलते हैं उतने प्रमाणिक गीत अन्य दर्जनों गीतकारों ने मिलकर भी नहीं लिखे होंगे।’
"हिरण सुगंधों के" के नवगीत पर्यावरणीय प्रदूषण और सांस्कृतिक प्रदूषण से दुर्गंधित वातावरण को नवजीवन देकर सुरभित सामाजिक मर्यादाओं के सृजन की प्रेरणा देने में समर्थ हैं। नयी पीढ़ी इन नवगीतों का रसास्वादन कर ग्राम-नगर के मध्य सांस्कृतिक राजदूत बनने की चेतना पाकर अतीत की विरासत को भविष्य की थाती बनाने में समर्थ हो सकती है।
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पुस्तक सलिला-
ज़ख्म - स्त्री विमर्श की लघुकथाएँ
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[पुस्तक विवरण- ज़ख्म, लघुकथा संग्रह, विद्या लाल, वर्ष २०१६, पृष्ठ ८८, मूल्य ७०/-, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क द्वारा श्री मिथलेश कुमार, अशोक नगर मार्ग १ ऍफ़, अशोक नगर, पटना २०, चलभाष ०९१६२६१९६३६]
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वैदिक काल से भारतीय संस्कृति सनातनता की पोषक रही है। साहित्य सनातन मूल्यों का सृजक और रक्षक की भूमिका में सत्य-शिव-सुन्दर को लक्षित कर रचा जाता रहा। विधा का 'साहित्य' नामकरण ही 'हित सहित' का पर्याय है. हित किसी एक का नहीं, समष्टि का। 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रम्ह' सत्य और ज्ञान ब्रम्ह की तरह अनन्त हैं। स्वाभाविक है कि उनके विस्तार को देखने के अनेक कोण हों। दृष्टि जिस कोण पर होगी उससे होनेवाली अनुभूति को ही सत्य मान लेगी, साथ ही भिन्न कोण से हो रही अनुभूति को असत्य कहने का भ्रम पाल लेगी। इससे बचने के लिये समग्र को समझने की चेष्टा मनीषियों ने की है। बोध कथाओं, दृष्टांत कथाओं, उपदेश कथाओं, जातक कथाओं, पंचतंत्र, बेताल कथाओं, किस्सा चहार दरवेश, किस्सा हातिम ताई, अलीबाबा आदि में छोटी-बड़ी कहानियों के माध्यम से शुभ-अशुभ, भले-बुरे में अंतर कर सकनेवाले जीवन मूल्यों के विकास, बुरे से लड़ने का मनोबल देने वाली घटनाओं का शब्दांकन, स्वस्थ्य मनोरंजन देने का प्रयास हुआ। साहित्य का लक्ष्य क्रमश: सकल सृष्टि, समस्त जीव, मानव संस्कृति तथा उसकी प्रतिनिधि इकाई के रूप में व्यक्ति का कल्याण रहा।
पराभव काल में भारतीय साहित्य परंपरा पर विदेशी हमलावरों द्वारा कुठाराघात तथा पराधीनता के दौर ने सामाजिक समरसता को नष्टप्राय कर दिया और तन अथवा मन से कमजोर वर्ग शोषण का शिकार हुआ। यवनों द्वारा बड़ी संख्या में स्त्री-हरण के कारण नारियों को परदे में रखने, शिक्षा से वंचित रखने की विवशता हो गयी। अंग्रेजों ने अपनी भाषा और संस्कृति थोपने की प्रक्रिया में भारत के श्रेष्ठ को न केवल हीं कहा अपितु शिक्षा के माध्यम से यह विचार आम जन के मानस में रोप दिया। स्वतंत्रता के पश्चात अवसरवादी राजनिति का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति रह गया। समाज को विभाजित कर शासन करने की प्रवृत्ति ने सवर्ण-दलित, अगड़े-पिछड़े, बुर्जुआ-सर्वहारा के परस्पर विरोधी आधारों पर राजनीति और साहित्य को धकेल दिया। आधुनिक हिंदी को आरम्भ से अंग्रेजी के वर्चस्व, स्थानीय भाषाओँ-बोलियों के द्वेष तथा अंग्रेजी व् अन्य भाषाओं से ग्रहीत मान्यताओं का बोझ धोना पड़ा। फलत: उसे अपनी पारम्परिक उदात्त मूल्यों की विरासत सहेजने में देरी हुई।
विदेश मान्यताओं ने साहित्य का लक्ष्य सर्वकल्याण के स्थान पर वर्ग-हित निरुपित किया। इस कारण समाज में विघटन व टकराव बढ़ा। साहित्यिक विधाओं ने दूरी काम करने के स्थान पर परस्पर दोषारोपण की पगडण्डी पकड़ ली। साम्यवादी विचारधारा के संगठित रचनाकारों और समीक्षकों ने साहित्य का लक्ष्य अभावों, विसंगतियों, शोषण और विडंबनाओं का छिद्रान्वेषण मात्र बताया। समन्वय, समाधान तथा सहयोग भाव हीं साहित्य समाज के लिये हितकर न हो सका तो आम जन साहित्य से दूर हो गया। दिशाहीन नगरीकरण और औद्योगिकीकरण ने आर्थिक, धार्मिक, भाषिक और लैंगिक आधार पर विभाजन और विघटन को प्रश्रय दिया। इस पृष्ठभूमि में विसंगतियों के निराकरण के स्थान पर उन्हें वीभत्स्ता से चित्रित कर चर्चित होने ही चाह ने साहित्य से 'हित' को विलोपित कर दिया। स्त्री प्रताड़ना का संपूर्ण दोष पुरुष को देने की मनोवृत्ति साहित्य ही नहीं, राजनीती आकर समाज में भी यहाँ तक बढ़ी कि सर्वोच्च न्यायलय को हबी अनेक प्रकरणों में कहना पड़ा कि निर्दोष पुरुष की रक्षा के लिये भी कानून हो।
विवेच्य कृति ज़ख्म का लेखन इसी पृष्ठ भूमि में हुआ है। अधिकांश लघुकथाएँ पुरुष को स्त्री की दुर्दशा का दोषी मानकर रची गयी हैं। लेखन में विसंगतियों, विडंबनाओं, शोषण, अत्याचार को अतिरेकी उभार देने से पीड़ित के प्रति सहानुभूति तो उपज सकती है, पर पीड़ित का मनोबल नहीं बढ़ सकता। 'कथ' धातु से व्युत्पन्न कथा 'वह जो कही जाए' अर्थात जिसमें कही जा सकनेवाली घटना (घटनाक्रम नहीं), उसका प्रभाव (दुष्प्रभाव हो तो उससे हुई पीड़ा अथवा निदान, उपदेश नहीं), आकारगत लघुता (अनावश्यक विस्तार न हो), शीर्षक को केंद्र में रखकर कथा का बुनाव तथा प्रभावपूर्ण समापन के निकष पर लघुकथाओं को परखा जाता है। विद्यालाल जी का प्रथम लघुकथा संग्रह 'जूठन और अन्य लघुकथाएँ' वर्ष २०१३ में आ चुका है। अत: उनसे श्रेष्ठ लघुकथाओं की अपेक्षा होना स्वाभाविक है।
ज़ख्म की ६४ लघुकथाएँ एक ही विषय नारी-विमर्श पर केंद्रित हैं। विषयगत विविधता न होने से एकरसता की प्रतीति स्वाभाविक है। कृति समर्पण में निर्भय स्त्री तथा निस्संकोच पुरुष से संपन्न भावी समाज की कामना व्यक्त की गयी है किन्तु कृति पुरुष को कटघरे में रखकर, पुरुष के दर्द की पूरी तरह अनदेखी करती है। बेमेल विवाह, अवैध संबंध, वर्ण-वैषम्य, जातिगत-लिंगगत, भेदभाव, स्त्री के प्रति स्त्री की संवेदनहीनता, बेटी-बहू में भेद, मिथ्याभिमान, यौन-अपराध, दोहरे जीवन मूल्य, लड़कियों और बहन के प्रति भिन्न दृष्टि, आरक्षण का गलत लाभ, बच्चों से दुष्कर्म, विजातीय विवाह, विधवा को सामान्य स्त्री की तरह जीने के अधिकार, दहेज, पुरुष के दंभ, असंख्य मनोकामनाएँ, धार्मिक पाखण्ड, अन्धविश्वास, स्त्री जागरूकता, समानाधिकार, स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों पर भिन्न सोच, मध्य पान, भाग्यवाद, कन्या-शिक्षा, पवित्रता की मिथ्या धारणा, पुनर्विवाह, मतदान में गड़बड़ी, महिला स्वावलम्बन, पुत्र जन्म की कामना, पुरुष वैश्या, परित्यक्ता समस्या, स्त्री स्वावलम्बन, सिंदूर-मंगलसूत्र की व्यर्थता आदि विषयों पर संग्रह की लघुकथाएं केंद्रित हैं।
विद्या जी की अधिकांश लघुकथाओं में संवाद शैली का सहारा लिया गया है जबकि समीक्षकों का एक वर्ग लघुकथा में संवाद का निषेध करता है। मेरी अपनी राय में संवाद घटना को स्पष्ट और प्रामाणिक बनने में सहायक हो तो उन्हें उपयोग किया जाना चाहिए। कई लघुकथाओं में संवाद के पश्चात एक पक्ष को निरुत्तरित बताया गया है, इससे दुहराव तथा सहमति का आभाव इंगित होता है। संवाद या तर्क-वितरक के पश्चात सहमति भी हो सकती है। रोजमर्रा के जीवन से जुडी लघुकथाओं के विषय सटीक हैं। भाषिक कसाव और काम शब्दों में अधिक कहने की कल अभी और अभ्यास चाहती है। कहीं-कहीं लघुकथा में कहानी की शैली का स्पर्श है। लघुकथा में चरित्र चित्रण से बचा जाना चाहिए। घटना ही पात्रों के चरित को इंगित करे, लघुकथाकार अलग से न बताये तो अधिक प्रभावी होता है। ज़ख्म की लघुकथाएँ सामान्य पाठक को चिंतन सामग्री देती हैं। नयी पीढ़ी की सोच में लोच को भी यदा-कदा सामने लाया गया है।संग्रह का मुद्रण सुरुचिपूर्ण तथा पाठ्य त्रुटि-रहित है।
२६-३-२०१६
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