दोहा सलिला
श्री हरिशंकर दुबे जी के प्रति
*
ॐ अनाहद नाद ही, सकल सृष्टि का मूल।
नित्य निनादित 'नर्मदा', मेटे भव के शूल।।
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वन्दन 'भारत'-'भारती', गणपति शारद मात।
'हरि शंकर' अभिषेक कर, जबलपुरी सुख पात।।
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सँग गौतम-गोविंद के, मुदित कृष्ण अजिताभ।
आशीषें चंद्रा-उषा, सृजन कल्प तरु पात।।
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नीना पूनम प्रीति की, आशा सफलीभूत।
रूह हुई संजीव लख, रूही हर्ष प्रभूत।।
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मोहन करें विनोद हँस, शशि देखें धीरेंद्र।
कृष्ण कांत की कांति सम, जनगण मन रसिकेंद्र।।
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'सुनिए पंडित जी' 'धरा अकुलानी' क्यों आज?
'दुखवा कासे कहूँ' री!, सजनी चुप किस व्याज?
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'गुलबकावली' सूखती, 'अर्धसत्य' की जीत।
करे 'पाठशाला' विहँस, 'गोशाला' से प्रीत।।
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'मौत माsस्टर की' हुई, 'परदेसी' के हाथ।
'भाव भूमियाँ' भिन्न ये, ऊँचे-नीचे माथ।।
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नयन पटल पर दिख रहे, भावनाओं के चित्र।
'शब्द-चित्र' अनुभूति के, धरातली हैं मित्र।।
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भावभूमियाँ हैं 'प्रगति-पीड़ा' के आयाम।
भारत में नारी हुई, 'रत्ना' चिर निष्काम।।
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है साहित्य-समाज का, नाता नित जीवंत।
सत्-शिव-सुंदर मूल्य हैं, शाश्वत अमिट अनंत।।
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कथ्य-शिल्प-शैली सहज, शब्द सुबोध सटीक।
नवता-लघुता मिल गले, नई बनातीं लीक।।
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गद्य-पद्य भू-गगन सम, गाएँ जीवन-गान।
शब्द-शब्द फूँके सतत, विहँस जान में जान।।
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हरिशंकर साहित्य की, प्रबल अनवरत धार।
हिंदी मैया का करे, मनभवन श्रृंगार।।
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स्वर संगम - अ से अ:
अभिमन्यु सम संघर्ष कर, भेदा बाधा-व्यूह।
आकारित रचनाओं में, मानव मूल्य समूह।।
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इसने-उसने जो कहा, उस पर दिया न ध्यान।
ईशाराधन कर किया, शब्द-बाण संधान।।
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उत्तम मूल्यों का सृजन, ले सहेज साहित्य।
ऊर्जा बनकर सभ्यता, सके उगा आदित्य।।
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एक-एक को जोड़ना, अनुपम बने प्रसंग।
ऐक्य भाव साहित्य का, बने मिलन का रंग।।
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ओम व्योम तक छा सके, गूँज सके अभियान।
और-और हिंदी बढ़े, हो पूरा अरमान।।
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अंश पूर्ण हो भारती, सके जगत में व्याप।
अ: अखंडानंद हो, आप आप में आप।।
११.६.२०२२
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कार्यशाला:
रचना-प्रतिरचना राकेश खंडेलवाल-संजीव
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गीत
संस्कार तो बंदी लोक कथाओं में
रिश्ते-नातों का निभना लाचारी है
*
जन्मदिनों से वर्षगांठ तक सब उत्सव
वाट्सएप की एक पंक्ति में निपट गये
तीज और त्योहार, अमावस पूनम भी
एक शब्द "हैप्पी" में जाकर सिमट गये
सुनता कोई नही, लगी है सीडी पर
कथा सत्यनारायण कब से जारी है
*
तुलसी का चौरा, अंगनाई नहीँ रहे
अब पहले से बहना-भाई नहीं रहे
रिश्ते जिनकी छुअन छेड़ती थी मन में
मधुर भावना की शहनाई, नहीं रहे
दुआ सलाम रही है केवल शब्दो में
और औपचारिकता सी व्यवहारी हैं
*
जितने भी थे फेसबुकी संबंध हुए
कीकर से मन में छाए मकरंद हुये
भाषा के सब शब्द अधर की गलियों से
फिसले, जाकर कुंजीपट में बंद हुए
बातचीत की डोर उलझ कर टूट गई
एक भयावह मौन हर तरफ तारी है
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प्रतिगीत:
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
भाव भूलकर क्यों शब्दों में सिमट गए?
शिव बिसराकर, शव से ही क्यों लिपट गए?
फ़िक्र पर्व की, कर पर्वों को ठुकराया-
खुशी-खुशी खुशियों से दबकर चिपट गए।
व्यथा-कथा के बने पुरोहित हम खुद ही-
तिनका हो, कहते: "पर्वत पर भारी" क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
किसकी इच्छा है वह सच को सही कहे?
कौन यहाँ पर जो न स्वार्थ की बाँह गहे?
देख रहे सब अपनेपन के किले ढहे-
किंतु न बदले, द्वेष-घृणा के वसन तहे।
यक्ष-प्रश्न का उत्तर, कहो! कौन देगा-
हुई निराशा हावी, आशा हारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
क्षणभंगुर है सृष्टि सत्य यह जान लिया।
अचल-अटल निज सत्ता-संतति मान लिया।
पानी नहीं आँख में किंचित शेष रहा-
धानी रहे न धरती, हठ यह ठान लिया।
पूज्या रही न प्रकृति, भोग्या मान उसे
शोषण कर बनते हैं हमीं पुजारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
कक्का-मम्मा, मौसा-फूफा हार गए,
'अंकल' बिना लड़े रण सबको मार गए।
काकी-मामी, मौसी-फूफी भी न रहीं-
'आंटी' के पाँसे नातों को तार गए।
हलो-हाय से हाय-हाय के पथ पर चल-
वाह-वाह की सोचें चाह बिसारी क्यों?.
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
मुखपोथी से जुड़े, न आँखों में देखा
नेह निमंत्रण का करते कैसे लेखा?
देह देह को वर हँस पुलक विदेह हुई-
अंतर्मन की भूल गयी लछमन रेखा।
घर ही जिसमें जलकर ख़ाक हुआ पल में-
उन शोलों को कहा कहो अग्यारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
११.६.२०१८
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नारी पर नर मर मिटे, है जीवन का सत्य
मरता हो तो जी उठा, यह भी नहीं असत्य
यह भी नहीं असत्य, जान पर जान लुटाता
जान जान को सात जन्म तक जान न पाता
कहे सलिल कविराय, मानिये माया आरी
छाया दे या धूप, उसी की मर्जी सारी
११-६-२०१७
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कृति चर्चा
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[पुस्तक परिचय- ढलती हुई धूप, कविता संग्रह, ISBN ९७८-९३-८४९७९-८०-५, सुरेश चन्द्र सर्वहारा, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८९८७। कवि संपर्क ३ ऍफ़ २२ विज्ञान नगर, कोटा ३२४००५, ९९२८५३९४४६]
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अनुभूति की अभिव्यक्ति गद्य और पद्य दो शैलियों में की जाती है। पद्य को विविध विधाओं में वर्गीकृत किया गया है। कविता सामान्यतः छंदहीन अतुकांत रचनाओं को कहा जाता है जबकि गीत लय, गति-यति को साधते हुए छंदबद्ध होता है। इन्हें झरने और नदी के प्रवाह की तरह समझा जा सकता है। अनुभूति और अभिव्यक्ति किसी बंधन की मुहताज नहीं होती। रचनाकार कथ्य के भाव के अनुरूप शैली और शिल्प चुनता है, कभी-कभी तो कथ्य इतना प्रबल होता है कि रचनाकार भी उपकरण ही हो जाता है, रचना खुद को व्यक्त करा लेती है। कुछ पद्य रचनाऐँ दो विधाओं की सीमारेखा पर होती हैं अर्थात उनमें एकाधिक विधाओं के लक्षण होते है। इन्हें दोनों विधाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है। कवि - गीतकार सुरेशचंद्र सर्वहारा की कृति 'ढलती हुई धूप' कविता के निकट नवगीतों और नवगीत के निकट कविताओं का संग्रह है। विवेच्य कृति की रचनाओं को दो भागों 'नवगीत' और 'कविता' में वर्गीकृत भी किया जा सकता था किन्तु सम्भवतः पाठक को दोनों विधाओं की गंगो-जमुनी प्रतीति करने के उद्देश्य से उन्हें घुला-मिला कर रख आगया है।
कविता की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, न हो सकती है। गीत की समसामयिक विसंगति और विषमता से जुडी भावमुद्रा नव छन्दों को समाहित कर नवगीत बन जाती है जबकि छंद आंशिक हो या न हो तो वह कविता हो जाती है। 'ढलती हुई धूप' के मुखपृष्ठ पर अंकित चन्द्र का भ्रम उत्पन्न करता अस्ताचलगामी सूर्य इन रचनाओं के मिजाज की प्रतीति बिना पढ़े ही करा देता है। कवि के शब्दों में- ''आज जबकि संवेदना और रसात्मकता चुकती जा रही है फिर भी इस धुँधले परिदृश्य में कविता मानव ह्रदय के निकट है।''
प्रथम रचना 'शाम के साये' में ६ पंक्तियों के मुखड़े के बाद ५ पंक्तियों का अंतरा तथा मुखड़े के सम भार और तुकांत की ३-३ पंक्तियाँ फिर ६ पंक्तियों का अन्तरा है। दोनों अंतरों के बीच की ६ में से ३ पंक्तियाँ अंत में रख दी जाएँ तो यह नवगीत है। सम्भवत: नवगीत होने या न होने को लेकर जो तू-तू मैं-मैं समीक्षकों ने मचा रखी है उससे बचने के लिए नवगीतों को कविता रूप में प्रस्तुत किया गया है।
दिन डूबा / उत्तरी धरती पर / धीरे-धीरे शाम
चिट्ठी यादों की / ज्यों कोेेई / लाई मेरे नाम।
लगे उभरने पीड़ाओं के / कितने-कितने दंश
दीख रहे कुछ धुँधलाए से / अपनेपन के अंश।
सिमट गए / सायों जैसे ही / जीवन के आयाम
लगा दृश्य पर / अंधियारों का / अब तो पूर्ण विराम।
पुती कालिमा / दूर क्षितिज पर / सब कुछ हुआ उदास
पंछी बन / उड़ गए सभी तो / कोेेई न मेरे पास
खुशियों की तलाश, जाड़े की शाम, धुँधली शाम, पत्ते, चिड़िया, दुःख के आँसू, ज़िंदगी, उतरती शाम, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, बासंती हवा, यादों के बादल, याद तुम्हारी, दर्द की नदी, कविता और लड़की, झुलसते पाँव, फूल बैंगनी, जाड़े की धूप, माँ का आँचल, रिश्ते, समय शकुनि, लल्लू, उषा सुंदरी आदि रचनाएँ शिल्प की दृष्टि से नवगीत के समीप है जबकि पहली बारिश, धुंध में, कागज़ की नाव, ढलती हुई धूप, सीमित ज़िंदगी, सृजन, मेघदर्शन, बंजर मन, पेड़ और मैं, याद की परछाइयाँ, सूखी नदी, फूल खिलते हैं, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध, वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, एक बुजुर्ग का जाना, नव वर्ष, विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम आदि कविता के निकट हैं।
सर्वहारा जी के मत में ''साहित्य का सामाजिक सरोकार भी होना चाहिए जो सामाजिक बुराइयों का बहिष्कार कर सामाजिक परिवर्तन का शंखनाद करे।'' इसीलिए विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम,वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध जैसी कवितायें लिखकर वे पीड़ितों के प्रति संवेदनाएं व्यक्त करते हैं। ''युद्ध का ही / दूसरा नाम है बर्बरता / जो कर लेती है हरण / आँखों की नमी के साथ / धरती की उर्वरता'', और ''खुश नहीं / रह पाते / जीतनेवाले भी / अपराध बोध से / रहते हैं छीजते / हिमालय में गल जाते हैं'' लिखकर कवि संतुष्ट नहीं होता, शायद उसे पाठकीय समझ पर संदेह है, इसलिए इतना पर्याप्त हों पर भी वह स्पष्ट करता है ''पांडवों के शरीर / जो जैसे-तैसे कर / महाभारत हैं जीतते''।
पर्यावरण की चिंता सूखी नदी, फूल खिलते हैं, पेड़ और मैं, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, दर्द की नदी आदि रचनाओं में व्यक्त होती है। फूलों और खुशियों का रिश्ता अटूट है-
''रह-रह कर / झर रहे / फूल हरसिंगार के।
भीनी-भीनी / खुशबू से / भीग गया मन
साँसों को / बाँध रहा / नेह का बंधन
लौट रहे / दिन फिर से / प्यार और दुलार के।
थिरक उठा / मस्ती से / आँगन का पोर - पोर
नच उठा / खुशियों से / घर-भर का / ओर - छोर
गए रहा ही / गीत कौन / मान और मनुहार के।
रातों को / खिलते थे / जीवन में झूमते
प्रातः को / हँस - हँस अब / मौत को हैं चूमते
अर्थ सारे / खो गए हैं / जीत और हार के''
इस नवगीत में फूल और मानव जीवन के साम्य को भी इंगित किया गया है।
सर्वहारा जी हिंदी - उर्दू की साँझा शब्द सम्पदा के हिमायती हैं। गीतों के कथ्य आम जन को सहजता से ग्राह्य हो सकने योग्य हैं। उनका 'गुलमोहर' नटखट बच्चों की क्रीड़ा का साथी है '' दूर - दूर तक / फैले सन्नाटों / औे लू के थपेड़ों को / अनदेखा कर / घरवालों की / आँख चुराकर / छाँव तले आए / नटखट बच्चों संग / खेलता गुलमोहर'' तो टेसू आश - विश्वास के रंग बिखेरता है - '' बिखर गए / रंग कई / आशा - विश्वास के / निखर गए / ढंग नए / जीवन उल्लास के / फागुन के फाग से / भा गए टेसू के फूल।''
गाँव से शहरों की पलायन की समस्या 'लल्लू' में मुखरित है-
लल्लू! / कितने साल हो गए / तुमको शहर गए
खेतों में / पसरा सन्नाटा / सूखे हैं खलिहान / साँय - साँय / करते घर - आँगन / सिसक रहे दालान।
भला कौन/ ऐसे में सुख से / खाये और पिए।
शब्द - सम्पदा और अभिव्यक्ति - सामर्थ्य के धनी सुरेश जी के स्त्री विमर्श विषयक गीत मार्मिकता से सराबोर हैं। इनमें पीड़ा और दर्द का होना स्वाभाविक है किन्तु आशा की किरण भी है-
देखते ही देखते / बह चली / रोशनी की नदी / उसके पथ में आज
कई काली रातों के बाद / फैला है उजाला / सुनहरी भोर का
एक नए / है यह आगाज।
सुरेश जी विराम चिन्हों को अनावश्यक समझने के काल में उनके महत्त्व से न केवल परिचित हैं अपितु विराम चिन्हों का निस्संकोच प्रयोग भी करते हैं। अल्प विराम, पूर्ण विराम, संयोजक चिन्ह आदि का उपयोग पाठक को रुचता है। इन गीतों की कहन सहज प्रवाहमयी, भाषा सरस और अर्थपूर्ण तथा कथ्य सम - सामयिक है। बिम्ब और प्रतीक प्रायः पारम्परिक हैं। पंक्तयांत के अनुप्रास में वे कुछ छूट लेते हुए चिड़िया, बुढ़िया, गडरिया, गगरिया जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग बेहिचक करते हैं।
सारतः, इन नवगीतों में नवगीत जैसी ताजगी, ग़ज़लों जैसी नफासत, गीतों की सी सरसता, मुकतक की सी चपलता, छांदस संतुलन और मौलिकता है जी पाठकों को केवल आकृष्ट करती है अपितु बाँधकर भी रखती है। यह पठनीय कृति लोकप्रिय भी होगी।
समीक्षक- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४
११-६-२०१६
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द्विपदी
स्लोगन, प्रॉमिस, लेक्चर, लोकतंत्र के नाम
मनी, करप्शन, धाँधली, बिक जाओ बेदाम
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कृति चर्चा
पठनीय ही नहीं अपितु चिंतनीय और संग्रहणीय भी है 'काल है संक्रांति का'
(पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, ISBN ८१७७६१०००-७ , गीत-नवगीत, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२०११ म.प्र., दूरभाष-०७६१ २४१११३१, चलभाष- ९४२५१ ८३२४४, प्रथम संस्करण २०१६, मूल्य २००/- पेपरबैक संस्करण, ३००/- सजिल्द संस्करण।
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, एकन्तिका, निकट बावन चुंगी चौक, हरदोई २४१००१ उ. प्र., दूरभाष ०५८५२ २३२३९२।)
ह्रदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अनुभूतियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवादी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं एवं टटके बिम्बों के सहारे दुनिया - जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप से विद्रोह कर नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का पुनः प्रचलन आरंभ हुआ।
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुतः यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक गीत में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- '' काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग / मनुज करनी देखकर है / खुद नियति भी दंग।'' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत भी उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है- ''तकदीर से मत हों गिले / तदबीर से जय हों किले / मरुभूभि से जल भी मिले / तन ही नहीं, मन भी खिले / करना सदा वह जो सही। ''
इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है - ''मिली दिहाड़ी / चल बाजार / चावल - दाल किलो भर ले ले / दस रुपये की भाजी / घासलेट का तेल लिटर भर / धनिया - मिर्ची ताज़ी। ''सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवाले इस लघु मानव की दशा अति दयनीय है।
इसी विषय पर 'राम बचाए' शीर्षक नवगीत की ये पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं - ''राम - रहीम बीनते कूड़ा / रज़िया - रधिया झाड़ू थामे / सड़क किनारे बैठे लोटे / बतलाते कितने विपन्न हम। ''
हमारी नई पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कवि के शब्दों में - ''हाथों में मोबाइल थामे गीध-दृष्टि पगडंडी भूली / भटक न जाए / राजमार्ग पर जाम लगा है / कूचे - गली हुए हैं सूने / ओवन - पिज्जा का युग निर्दय / भटा कौन चूल्हे में भूने ?'' सचमुच आज की व्यवस्था ही चरमरा गई है। ''
सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनैतिक प्रदूषण के चित्र खींचने का कमाल भी किया है। देखें - 'लोकतंत्र का पंछी बेबस / नेता पहले दाना डालें / फिर लेते पर नोंच / अफसर रिश्वत गोली मारें / करें न किंचित सोच। '' अथवा बातें बड़ी - बड़ी करते हैं / मनमानी का पथ वरते हैं / बना - तोड़ते संविधान खुद / दोष दूसरों पर मढ़ते हैं। '' इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी - छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- ''वह खासों में ख़ास है / रुपया जिसके पास है।'', ''तुम बंदूक चलाओ तो / हम मिलकर कलम चलाएँगे।'', ''लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है।'', वेश संत का / मन शैतान।'', ''अंध-श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है।'', ''खुशियों की मछली को / चिंता का बगुला / खा जाता है।'', ''कब होंगे आज़ाद / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?'' आदि।
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन -हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- ''उम्मीदों की फ़सल / उगाना बाकी है / अच्छे दिन नारों - वादों से कब आते हैं? / कहें बुरे दिन / मुनादियों से कब जाते हैं?'' इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है- ''खों - खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी / पछुआ अम्मा बड़बड़ करतीं / डाँट लगतीं तगड़ी।''
निष्कर्षतः, कृति के सभी गीत - नवगीत एक से बढ़कर एक सुन्दर, सरस, भावप्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छंदों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर खरी उतरनेवाली हैं।
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरण वहीं गद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आईना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु चिंतनीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से और अधिक सार्थक कृतियों की अपेक्षा की जा सकती है।
***
नवगीत
क्यों??...
*
कहीं धूप क्यों?,
कहीं छाँव क्यों??...
*
सबमें तेरा
अंश समाया,
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब-
खोते हैं क्यों?
जब खोते
तब पाते पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?...
*
नीचे-ऊपर,
ऊपर-नीचे।
झूलें सब
तू डोरी खींचे,
कोई डरता,
कोई हँसता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?...
*
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता
चुप सर धुनता।
तू परखे,
दे संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...
११-६-२०१२
***
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