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शुक्रवार, 24 जून 2022

पिता, गीत, छंद पञ्चचामर,हाइकू, बरगद, विनीता राहुरीकर

 कवि और कविता : सरला वर्मा

सर ला दें भजकर भजन, अंजलि में भर आज। 
निशि-दिन मन संजीव हो, संगीता हर काज।।
*
योग किया; व्यय रोककर, गुना किया दिन-रात। 
भाग भाग से; भाग पा, भाग मिली सौगात।।
*
बुक बुटीक में कर दिया, दिल सुशील के नाम।
दम दे जमीं दमोह में, रूचि बैठी सिर थाम।। 
*
चेले केले खा रहे, छिलके ले आचार्य। 
मौन  हुए संतोष कर, उमा सधे सब काज।।
*
पहली-अंतिम शादियाँ, गई व्यवस्था टूट। 
शिखा भूमि पर व्यवस्था, कर दी बैठ अटूट।।
*
विद्या रेखा खींच दे, गुरु मंजरी ललाम। 
संत जयंत बसंत की, शैली काम अकाम।।
*
आकांक्षा इंद्रा-दया, ऋचा स्मिता रवींद्र। 
बने वसीयत कमल की आभा-विभा कवीन्द्र।        
*
वेद वंदना शशि करें, छाया वसुधा साथ। 
माया-गीता शालिनी, मौली थामे हाथ।।
*
शंभु नाथ आशीष दें, आस्था रहे अभंग। 
भावुकता के भाव को, देखे दुनिया दंग।।
*
गुडविल में गुड बिल छिपा, वर्षा कर भुगतान। 
दिल मजबूत करो सलिल, तभी बचेगी आन।।
*
हँसी लबों पर हो सदा, चेहरे पर हो ओज। 
माथे पर सूरज सजे, दे खुशियों को भोज।।
२४-६-२०२२ 
***
कृति चर्चा:
'पराई जमीन पर उगे पेड़' मन की तहें टटोलती कहानियाँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: 'पराई जमीन पर उगे पेड़, कहानी संग्रह, विनीता राहुरीकर, प्रथम संस्करण, २०१३, आकार २२ से. मी. x १४ से. मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १७८, मूल्य २५०/-, अरुणोदय प्रकाशन, ९ न्यू मार्किट, तात्या टोपे नगर भोपाल, ९१७५५२६७३६२४]
*
मनुष्य के विकास के साथ ही कहने की कला का विकास हुआ। कहने की कला ने विज्ञान बनकर साहित्य की कई विधाओं को जन्म दिया। गद्य में कहानी, भाषण, लघुकथा, परिचर्चा, साक्षात्कार, व्यंग्य, संस्मरण, चर्चा, संगोष्ठी आदि और पद्य में गीत, भजन आदि कहने की कला के विधिवत विकास के ही परिणाम हैं। कहानी वह जो कही जाए। कही वह जाए जो कहने योग्य हो। कहने योग्य वह जो किसी का शुभ करे। सत्य-शिव-सुन्दर की प्रस्तुति भारतीय वांग्मय का आदर्श है। साम्यवादी यथार्थवादी विडंबनाओं और विसंगतियों या पाश्चात्य विलासितापूर्ण लेखन को भारतीय मनीषा ने कभी भी नहीं सराहा। भारत में काम पर भी लिखा गया तो विज्ञान सम्मत तरीके से शालीनतापूर्वक। सबके मंगल भाव की कामना कर लिखा जाए तो उसके पाठक या श्रोता को अपने जीवन पथ में जाने-अनजाने आचरण को संयमित-संतुलित करने में सहायता मिल जाती है। सोद्देश्य लेखन की सकारात्मक ऊर्जा नकारात्मक ऊर्जा का शमन करती है।
युवा कहानीकार विनीता राहुरीकर के कहानी संग्रह 'पराई ज़मीं पर उगे पेड़' को पढ़ना जिंदगी की रेल में विविध यात्रियों से मिलते-बिछुड़ते हुए उनके साथ घटित प्रसंगों का साक्षी बनने जैसा है। पाठक के साथ न घटने पर भी कहानी के पात्रों के साथ घटी घटनाएँ पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करती हैं। वह तटस्थ रहने का प्रयास करे तो भी उसकी संवेदना किसी पात्र के पक्ष और किसी अन्य पात्र के विरुद्ध हो जाती है। कभी सुख-संतोष, कभी दुःख-आक्रोश, कभी विवशता, कभी विद्रोह की लहरों में तैरता-डूबता पाठक-मन विनीता के कहानीकार की सामर्थ्य का लोहा मानता है।
विनीता जी की इन कहानियों में न तो लिजलिजी भावुकता है, न छद्म स्त्री विमर्श। ये कहानियाँ तथाकथित नारी अधिकारों की पैरोकारी करते नारों की तरह नहीं हैं। इनमें गलत से जूझकर सुधारने की भावना तो है किन्तु असहमति को कुचलकर अट्टहास करने की पाशविक प्रवृत्ति सिरे से नहीं है। इन कहानियों के पात्र सामान्य हैं। असामान्य परिस्थितियों में भी सामान्य रह पाने का पौरुष जीते पात्र जमीन से जुड़े हैं। पात्रों की अनुभूतियों और प्रतिक्रियाओं के आधार पर पाठक उन्हें अपने जीवन में देख-पहचान सकता है
विनीता जी का यह प्रथम कहानी संकलन है। उनके लेखन में ताजगी है। कहानियों के नए कथानक, पात्रों की सहज भाव-भंगिमा, भाषा पर पकड़, शब्दों का सटीक उपयोग कहानियों को पठनीय बनाता है। प्राय: सभी कहानियाँ सामाजिक समस्याओं से जुडी हुई हैं। समाज में अपने चतुर्दिक जो घटा है, उसे देख-परखकर उसके सकारात्मक-नकारात्मक पक्षों को उभारते हुए अपनी बात कहने की कला विनीता जी में है। विवेच्य संग्रह में १६ कहानियाँ हैं। कृति की शीर्षक कहानी 'पराई ज़मीं पर उगे पेड़' में पति-पत्नी के जीवन में प्रवेश करते अन्य स्त्री-पुरुषों के कारण पनपती दूरी, असुरक्षा फिर वापिस अपने सम्बन्ध-सूत्र में बँधने और उसे बचाने के मनोभाव बिम्बित हुए हैं। वरिष्ठ कथाकार मालती जोशी ने इस कहानी में प्रयुक्त प्रतीक के बार-बार दूहराव से आकर्षण खोने का तथ्य ठीक ही इंगित किया है। अपने सम्बन्ध को स्थायित्व देने और असुरक्षा से मुक्त होने के लिए संतति की कामना करना आदर्श भले ही न हो यथार्थ तो है ही। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु के जन्म से दाम्पत्य को स्थायित्व मिलता है।
वैभवशाली पति को ठुकरानेवाली 'ठकुराइन' दिवंगता सौतन के पुत्र को अपनाकर गरीबी में किन्तु स्वाभिमानपूर्वक जीवन गुजारती है। यह चरित्र असाधारण है। 'वट पूजा' कहानी में एक दूसरे को 'स्पेस' देने के मुगालते में दूर होते जाने की मरीचिका, अन्यों के प्रति आकर्षण तथा समय रहते अपने नैकट्य स्थापित कर संबंध को पुनर्जीवित करने की ललक स्पन्दित है। अपनी जड़ों से जुड़े रहने की चाहत में अतीतजीवी होकर जड़ होते बुजुर्गो, उनके मोह में अपने भविष्य को सँवारने में चूकते या भविष्य को संवारने में कर्तव्य निभाने से चूकने का मलाल पाले युवा दंपति की कशमकश 'चिड़िया उड़ गई फुर्र' कहानी में उठाई गई है। 'समानांतर रेखाएँ कहानी में पति से घरेलू कार्य में सहयोग की अपेक्षा कर निराह होती कामकाजी पत्नी की विवशता पाठक के मन में सहानुभूति तो जगाती है किन्तु पति की भी कुछ अपेक्षा हो सकती है यह पक्ष अनछुआ रह जाने से बात एकतरफा हो गयी है।
पिता के सामान में किसी अपरिचित स्त्री के प्रेम-पत्र मिलने से व्यथित किशोरी पुत्री 'खंडित मूर्ति' कहानी के केंद्र में हैं। यह कथानक लीक से हटकर है। माता से यह जानकर कि वे पत्र किसी समय उन्हीं पति द्वारा रखे गए नाम ने लिखे थे, बेटी पूर्ववत हो पाती है। 'अनमोल धरोहर' कहानी में संयुक्त परिवार, पारिवारिक संबंधों और बुजुर्गों की महत्ता प्रतिपादित करती है। वृद्धों को अनुपयोगी करार देकर किनारे बैठाने के स्थान पर उन्हें उनके उपयुक्त जिम्मेदारी देकर उनकी उपादेयता और महत्त्व बनाये रखने का सत्य प्रतिपादित करती है कहानी 'नई जिम्मेदारी'। कैशोर्य में बलात्कार का शिकार हुई युवती का विवाह के प्रति अनिच्छुक होना और एक युवक द्वारा सब कुछ जानकर भी उसे उसके निर्दोष होने की अनुभूति कराकर विवाह हेती तत्पर होना कहानी 'तुम्हारी कोई गलती नहीं' में वर्णित है। निस्संतान पत्नी को बिना बताये दूसरा विवाह करनेवाले छलिया पति के निधन पर पत्नी के मन में भावनात्मक आवेगों की उथल-पुथल को सामने लाती है कहानी 'अनुत्तरित प्रश्न'। 'जिंदगी फिर मुस्कुरायेगी' में मृत्यु पश्चात अंगदान की महत्ता प्रतिपादित की गई है। 'दिखावे की काट' कहानी दिवंगत पिता की संपत्ति के प्रति पुत्र के मोह और पुत्री के कर्तव्य भाव पार आधृत है।
'बिना चेहरे की याद' में भिन्न रुचियों के विवाह से उपजी विसंगति और असंतोष को उठाया गया है किन्तु कोई समाधान सामने नहीं आ सका है। परिवारजनों की सहमति के बिना प्रेमविवाह कर अलग होने के बावजूद परिवारों से अलग न हो पाने से उपजी शिकायतों के बीच भी मुस्कुराते रहने का प्रयास करते युवा जोड़े की कहानी है 'धूल और जाले'। निस्संतान दम्पति द्वारा अन्य के सहयोग से संतान प्राप्ति के स्थान पर अनाथ शिशु को अपनाने को वरीयता 'चिड़िया और औरत' कहानी का कथ्य है। अंतिम कहानी 'गाँठ' का कथानक सद्य विवाहिता नायिका और उसकी सास में मध्य तालमेल में कमी के कारण पति के सामने उत्पन्न उलझन और पिता द्वारा बेटी को सही समझाइश देने के ताने-बाने से बुना गया है।
विनीता जी की कहानियाँ वर्तमान समाज में हो रहे परिवर्तनों, टकरावों, सामंजस्यों और समाधानों को लेकर लिखी गयी हैं। कहानियों का शिल्प सहज ग्राह्य है। नाटकीयता या अतिरेक इन कहानियों में नहीं है। भाषा शैली और शब्द चयन पात्रों और घटनाओं के अनुकूल है। 'हालत' शब्द का बहुवचन हिंदी में 'हालतों' और उर्दू में 'हालात' होता है, 'हालातों' पूरी तरह गलत है (खंडित मूर्ति, पृष्ठ ६५)। चरिते चित्रण स्वाभाविक और कथानुकूल है। अधिकांश कहानियों में स्त्री-विमर्श का स्वर मुखर होने के बावजूद एकांगी नहीं है। वे स्त्री विमर्श के नाम पर अशालीन होने की महिला कहानीकारों की दुष्प्रवृत्ति से पूरी तरह दूर रहकर शालीनता से समस्या को सामने लाती हैं। पारिवारिक इकाई, पुरुष या बुजुर्गों को समस्या का कारण न कहकर वे व्यक्ति-व्यक्ति में तालमेल की कमी को कारण मानकर परिवार के भीतर ही समाधान खोजते पात्र सामने लाती हैं। यह दृष्टिकोण स्वस्थ्य सामाजिक जीवन के विकास में सहायक है। उनके पाठक इन कहानियों में अपने जीवन में उत्पन्न समस्याओं के समाधान पा सकते हैं। एक कहानीकार के नाते यह विनीता जी की सफलता है कि वे समस्याओं का समाधान संघर्ष और जय-पराजय में नहीं सद्भाव और साहचर्य में पाती हैं।
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१ ८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
२४-६-२०१७
***
छंद सलिला:
प्रमाणिका और पञ्चचामर छंद
*
प्रमाणिका
अन्य नाम: नगस्वरूपिणी
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है. अष्टाक्षरी छंदों के २५६ प्रकार हो सकते हैं। प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ल ग' है।
इसके दोगुने को पञ्चचामर कहते हैं।
ज़रा लगा प्रमाणिका।
लक्षण: जगण रगण + लघु ।s। s। s । s यति ४. ४
उदाहरण:
१.
ज़रा लगाय चित्तहीं। भजो जु नंद नंदहीं।
प्रमाणिका हिये गहौ। जु पार भौ लगा चहौ। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
सही-सही उषा रहे
सही-सही दिशा रहे
नयी-नयी हवा बहे
भली-भली कथा कहे -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
जगो उठो चलो बढ़ो
सभी यहीं मिलो खिलो
न गाँव को कभी तजो
न देव गैर का भजो - संजीव
पञ्चचामर
अन्य नाम: नराच, नागराज
पञ्चचामर एक सोलहाक्षरी छंद है. सोलहाक्षरी छंदों के ६५,५३६ प्रकार हो सकते हैं. प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ज र ज ग' है.
यह प्रमाणिका का दोगुना होता है: प्रमाणिका पदद्वयं वदंति पंचचामरं
लक्षण: जगण रगण जगण रगण जगण + गुरु ।s। ।s। ।s। ।s। ।s। s
उदाहरण:
१.
जु रोज रोज गोपतीय डार पंच चामरै।
जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं।
सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।
कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं।
सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
उठो सपूत देश की, धरा तुम्हें पुकारती
विषाद से घिरी पड़ी, फ़टी दशा निहारती
किसान हो कुदाल लो, जवान हो मशाल लो
समग्र बुद्धिजीवियों, स्वदेश को संभाल लो -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे!
करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे!
सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी.
करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी.
रावण कृत शिवतांडव स्तोत्र की रचना पञ्चचामर छंद में ही है.
जटाटवीगलज्जल:प्रवाहपावितस्थले। गलेSवलंब्यलंबितां भुजंगतुंगमालिकां।।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादमड्डमर्वयं। चकार चंडताण्डवं तनोतुन: शिव: शिवं।।
२४-६-२०१५
***
द्विपदी :
*
कदमों से अंदाज़ा कद का कर लेते हैं
नज़र जमीं पर रखने वाले गलत न होते
*
***
मुक्तक:
*
रौशनी कब चराग करते हैं?
वो न सीने में आग धरते हैं.
तेल-बाती सदा जला करती-
पूजकर पैर 'सलिल' तरते हैं.
*
मिले वरदान चाह की हमने
दान वर का नहीं किया तुमने
दान बिन मान कहाँ मिल सकता
उँगलियों पर लिया नचा हमने
*
माँग थी माँग आज भर देना
दान कन्या का झुका सर लेना
ले लिया कर में कर न छूटेगा
ज़िंदगी भर न चुके, कर देना
२४-६-२०१५
***
शुभ कामना गीत:
अनुश्री-सुमित परिणय १२-६-२०१५ बिलासपुर
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने हँस कहा:
'मन तू मन से मिल गया
है' मन ने फँस कहा
'हाथ थाम ले जरा
तू संग-संग चल,
मान भी ले बात मेरी
तू न यूँ मचल.
बेरहम न बन कठोर-
दिल जरा पिघल,
आ गया बिहार से
बिलासपुर सम्हल'
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने धँस कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने रुक कहा:
'क्या करूँ मैं साथ तेरे
चार-कदम चल?
कौन जनता न कहीं
जाए तू बदल?
देख किसी और को
न जाए झट फिसल?
कैसे मान लूँ कि तेरी
प्रीत है असल?
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने तन कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने मुड़ कहा:
'मैं न राम सिया को जो
भेज दे जंगल
मैं न कृष्ण प्रेमिका को
जो दे खुद बदल.
लालू-राबड़ी सी करें
प्रीत हम अटल.
मोटियार मैं तू
मोटियारी है नवल.'
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने तक कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने झुक कहा:
चक्रवात जैसी अपनी
प्रीत हो प्रबल।
लाख हों भूकम्प नहीं
प्यार हो निबल
सात जनम संग रहें
हो न हम निबल
श्वास-श्वास प्रीत व्याप्त
ज्यों भ्रमर-कमल
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने मिल कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने फिर कहा:
नीर-क्षीर मिल गया
न कोई दे दखल
अंतरों से अंतरों को
पल में दें मसल
चित्र गुप्त ज़िंदगी के
देख-जान लें
रीत प्रीत की निभा
सकें, सजल नयन
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने हँस कहा.
*
संगीत संध्या
११.६.२०१५
होटल ईस्ट पार्क बिलासपुर
***
: मुक्तिका:
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
***
हाइकु सलिला
*
रात की बात
किसी को मिली जीत
किसी को मात..
*
फूल सा प्यारा
धरती पर तारा
राजदुलारा..
*
करते वंदन
लगाकर चन्दन
हँसे नंदन..
*
आता है याद
दूर जाते ही देश
यादें अशेष..
*
कुसुम-गंध
फैलती सब ओर.
देती आनंद..
*
देना या पाना
प्रभु की मर्जी
पा मुस्कुराना..
*
आंधी-तूफ़ान
देता है झकझोर
चले न जोर..
*
उखाड़े वृक्ष
पल में ही अनेक
आँधी है दक्ष..
*
बूँदें बरसें
सौधी गंध ले सँग
मन हरषे..
*
करे ऊधम
आँधी-तूफ़ान, लिए
हाथ में हाथ..
*
बादल छाये
सूरज खिसियाये
भू मुस्कुराये.
*
नापते नभ
आवारा की
तरह नाच बादल..
***
मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..

बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..

पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, निखरती रही मिट्टी मेरी..

ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..

कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..

खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों से.
पाक-नापाक चटकती रही मिट्टी मेरी..

खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..

गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..

राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती रही मिट्टी मेरी..

कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही मिट्टी मेरी..
***
कथा-गीत:
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो...
*
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो...

है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.

धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.

मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.

वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.

रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.

कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.

मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.

है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.

जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.

अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.

बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.

भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारो.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो..
***
गीत:
तो चलूँ ……
*
जिसकी यादों में 'सलिल', खोया सुबहो-शाम.
कण-कण में वह दीखता, मुझको आठों याम..
दूरियाँ उससे जो मेरी हैं, मिटा लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
मैं तो साया हूँ, मेरा ज़िक्र भी कोई क्यों करे.
जब भी ले नाम मेरा, उसका ही जग नाम वरे..
बाग़ में फूल नया, कोई खिला लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
ईश अम्बर का वो, वसुधा का सलिल हूँ मैं तो
जहाँ जो कुछ है वही है, नहीं कुछ हूँ मैं तो..
बनूँ गुमनाम, मिला नाम भुला लूँ तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
वही वो शेष रहे, नाम न मेरा हो कहीं.
यही अंतिम हो 'सलिल', अब तो न फेरा हो कहीं..
नेह का गेह तजे देह, विदा दो तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
***
स्मृति गीत / शोक गीत
*
याद आ रही पिता तुम्हारी
याद आ रहीपिता तुम्हारी...
*
तुम सा कहाँ मनोबल पाऊँ?
जीवन का सब विष पी पाऊँ.
अमृत बाँट सकूँ स्वजनों को-
विपदा को हँस सह मुस्काऊँ.
विधि ने काहे बात बिगारी?
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
रही शीश पर जब तव छाया.
तनिक न विपदा से घबराया.
आँधी-तूफां जब-जब आये-
हँसकर मैंने गले लगाया.
बिना तुम्हारे हुआ भिखारी.
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
मन न चाहता खुशी मनाऊँ.
कैसे जग कोगीत सुनाऊँ?
सपने में आकर मिल जाओ-
कुछ तो ढाढस-संबल पाऊँ.
भीगी अँखियाँ होकर खारी.
याद आ रही पिता तुम्हारी...
२४-६-२०१०
*

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