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बुधवार, 29 जून 2022

गीत,दोहा,पद,छंद चौपाई, सुरेश वर्मा, गुरु गोबिंद सिंह


 कृति चर्चा :

नीले घोड़े का शहसवार :  महामानवावतार साकार  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
[कृति विवरण : नीले घोड़े का शहसवार, उपन्यास, ISBN ९७८-९३-९१३७८-७६-९, प्रथम संस्करण २०२१, उपन्यासकार - डॉ. सुरेश कुमार  वर्मा, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार २२.५ से.मी. X १४ से.मी., पृष्ठ ३६७, मूल्य ९००/-, अयन प्रकाशन नई दिल्ली।   ]
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                  वर्तमान संक्रमण काल में  लघुकथा, क्षणिका, दोहा, माहिया, हाइकु जैसी लघ्वाकारी सृजन विधाओं का बोलबाला है, महाकाव्य और उपन्यास जैसी विधाओं में सृजन, पठन और पाठन दिन-ब-दिन कम से कम होता जा रहा है। इसके दो कारण हैं - पहला यह कि ये दोनों विधाएँ अपेक्षाकृत अधिक शोध, मनन, मौलिकता, सकारात्मकता तथा श्रम की माँग करती हैं, दूसरा तथाकथित समयाभाव। इन दोनों विधाओं में नायक के चयन हेतु जिन मानकों का उल्लेख साहित्य शास्त्र में हैं, वैसे व्यक्तित्व अब किसी और लोक के वासी जान पड़ते हैं। अपने चारों और देखने पर इन महापुरुषों के  पैर की धूल की कण कहलाने योग्य व्यक्तित्व भी नहीं दिखते। महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने गाँधी जी के बारे में लिखा था कि “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।” यही बात विवेच्य उपन्यास 'नीले घोड़े का शहसवार' के नायक के बारे में भी सत्य है। सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन चरित्र पर आधारित यह उपन्यास सत्य के तानों-बानों पर कल्पना के बेल-बूटे टाँक कर लिखा गया है। उपन्यास में वर्णित घटनाओं और व्यक्तियों की पुष्टि इतिहास से की जा सकती है। यह औपन्यासिक कृति प्रामाणिकता की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी है तथापि यह केवल तथ्य संकलन या इतिहास का पुनर्प्रस्तुतिकरण नहीं है। उपन्यास के कथा-क्रम में कथ्य के विश्लेषण, मूल्याङ्कन और विवेचन में उपन्यासकार की स्वतंत्र चिंतन दृष्टि का परिचय यत्र-तत्र मिलता है। 

                  ऐतिहासिक चरित्रों को उपन्यास में ढालते समय कई चुनौतियों का सामना करना होता है। सबसे पहली चुनौती नायक के चयन की है। भारतीय इतिहास में वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, पुरातत्विक, प्राचीन, अर्वाचीन और सामयिक काल-खंडों में अनेक महानायक हुए हैं। उनमें से किसी एक महानायक को चुनना सागर में से मोती निकलने की तरह दुष्कर है। अनेक धर्मों में से एक और अपेक्षाकृत कम अनुयायियों वाला सिख धर्म जिसे सनातन धर्म की एक शाखा भी कह दिया जाता है, के दस गुरुओं में से एक, जिसका पूरा जीवन छोटे-छोटे युद्धों में बीत गया, जिसने न कोई साम्राज्य खड़ा किया, न कोई नई खोज की, न कोई महान युद्ध जीता, न कोई महान निर्माण किया, उसे उपन्यास का नायक बनाने का सामान्य दृष्टि से औचित्य नहीं है किन्तु इस उपन्यासकार की दृष्टि सामान्येतर और असाधारण है। वह अपने चरित नायक में ऐसे दुर्लभ गुण देख पाता है जिन्हें तत्कालीन लोग देख सके होते तो इतिहास और समाज दोनों का भला हुआ होता और समय के महाग्रंथ में कुछ कालिख लगे पृष्ठ न होते। 

                  उपन्यास अपने चरित नायक के धरावतरण से आरंभ होकर उसके लीला संवरण पर समाप्त होता है। ३६७ पृष्ठीय यह उपन्यास न तो अति विशाल है, न  अति संक्षिप्त। हिंदी साहित्य में तपस्विनी और कृष्णावतार  (क.मा. मुंशी), खरीदी कौड़ियों के मोल (बिमल मित्र), अनुत्तर योगी (वीरेंद्र कुमार जैन) जैसे दीर्घाकारी और कई भागों में लिखे उपन्यासों की समृद्ध विरासत को देखते हुए यह उपन्यास अति विस्तृत नहीं है तथापि लघुता की ओर बढ़ते आकर्षण को देखते हुए गंभीर लेखन, पठनीयता की दृष्टि से जोखिम उठाने की तरह है, वह भी उस समय में जबकि उपन्यास लेखन व्यक्तिगत न होकर चित्रपटीय पटकथाओं की तरह समूह द्वारा किया जा रहा हो। इस उपन्यास के उपन्यासकार डॉ. सुरेश कुमार वर्मा मूलत: भाषा वैज्ञानिक हैं जिनकी बहुमूल्य कृति 'हिंदी अर्थान्तर' बहुचर्चित तथा मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत है। वे इसके पूर्व उपन्यास 'मुमताज़महल', 'रेसमान', 'सबका मालिक एक' तथा  'महाराजा छत्रसाल', नाटक 'दिशाहीन' तथा निम्नमार्गी', कहानी संग्रह 'बारजे पर' तथा 'मंदिर एवं अन्य कहानियाँ', आलोचना ग्रंथ 'डॉ. रामकुमार वर्मा की नाट्यकला', निबंध संग्रह 'करमन की गति न्यारी' तथा 'मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ' जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रस्तुत कर चर्चित तथा प्रशंसित हो चुके हैं। 'नीले घोड़े का शहसवार' इस समृद्ध-सामर्थ्यवान रचनाकार की सृजन यात्रा में प्रकाश-स्तंभ की तरह है। 

                  उपन्यास दो शब्दों के योग से बना है उप + न्यास = उपन्यास अर्थात समीप घटित घटनाओं का वर्णन जिसे पढ़कर ऐसा प्रतीत हो कि यह हमारी ही कहानी, हमारे ही शब्दों में लिखी गई है। 'नीले घोड़े का शहसवार' में सदियों पूर्व घटित घटनाओं को इस तरह शब्दित किया गया है मानो रचनाकार स्वयं साक्षी हो। उपन्यास विधा आधुनिक युग की देन है।  हमारी अन्तः व बाह्य जगत की जितनी यथार्थ एवं सुन्दर अभिव्यक्ति उपन्यास में दिखाई पड़ती है उतनी किसी अन्य विधा में नहीं। 'नीले घोड़े का शहसवार' में  युग विशेष के सामाजिक जीवन और जगत कीजीवन झाँकियाँ संजोई गयी हैं। विविध प्रसंगों की मार्मिक अभिव्यक्ति इतनी रसपूर्ण है कि पाठक पात्रों के साथ-साथ हर्ष या शोक की अनुभूति करता है। प्रेमचंद ने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र' ठीक ही कहा है। उपन्यास 'नीले घोड़े का शहसवार' में तत्कालीन मानव समाज के संघर्षों का वृहद् शब्द-चित्र  चरित्र–चित्रण के माध्यम से किया गया है।

कथावस्तु

                  कथा वस्तु उपन्यास की जीवन शक्ति होती है।  'नीले घोड़े का शहसवार' की कथावस्तु एक ऐतिहासिक चरित्र के जीवन से सम्बन्धित होते हुए भी मौलिक कल्पना से व्युत्पन्न वर्णनों से सुसज्जित है। काल्पनिक प्रसंग इतने स्वाभाविक एवं यथार्थ हैं कि पाठक को उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने में किंचितमात्र भी कठिनाई नहीं होती। उपन्यासकार  ने वास्तव में घटित विश्वसनीय घटनाओं को ही स्थान दिया है। युद्ध में हताहत सैनिकों की चिकित्सा अथवा अंतिम संस्कार हेतु धन की व्यवस्था करने की दृष्टि से गुरु गोबिंद जी द्वारा तीरों के अग्र भाग को स्वर्ण मंडित करने का आदेश दिया जाना, ऐसा ही प्रसंग है जिसकी लेखक ने वर्तमान 'रेडक्रॉस' से तुलना की है।  'नीले घोड़े का शहसवार' में मुख्य कथा गुरु गोबिंद सिंह का व्यक्तित्व-कृतित्व है जिसके साथ अन्य गौण कथाएँ (गुरु तेगबहादुर द्वारा आत्माहुति, मुग़ल बादशाओं  की क्रूरता, हिन्दू राजाओं का पारस्परिक द्वेष आदि) हैं जो मुख्य कथा को यथास्थान यथावश्यक गति देती हैं। ये गौण कथाएँ मुख्य कथा को दिशा, गति तथा विकास देने में सहायक हैं। इन उपकथाओं को मुख्या कथा के साथ इस तरह संगुफित किया गया है कि वे नीर-क्षीर की तरह एक हो सकीहैं। उपन्यासकार मुख्य और प्रासंगिक उपकथाओं को गूँथते समय कौतूहल और रोचकता बनाए रख सका है। 

पात्र व चरित्र चित्रण

                  इस उपन्यास का मुख्य विषय गुरु गोबिन्द सिंह जी के अनुपम चरित्र, अद्वितीय पराक्रम, असाधारण आदर्शप्रियता तथा लोकोत्तर आचरण का चित्रण कर समाज को सदाचरण की प्रेरणा देना है। उपन्यासकार इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल है। उपन्यास में प्रधान पात्र गुरु गोबिंद सिंह जी ही हैं जिनके जन्म से अवसान तक किये गए राष्ट्र भक्ति तथा शौर्यपरक कार्यों का पूरी प्रमाणिकता के साथ वर्णन कर उपन्यासकार न केवल अतीत में घटे प्रेरक प्रसंगों को पुनर्जीवित करता है अपितु उन्हें सम-सामयिक परिदृश्य में प्रासंगिक निरूपित करते हुए, उनका अनुकरण किये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करता है। नायक के जीवन में निरंतर कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, लगातार जान हथेली पर लेकर जूझना पड़ता है, कड़े संघर्ष के बाद मिली सफलता क्षणिक सिद्ध होती है और बार-बार वह छल का शिकार होता है तथापि एक बार भी हताश नहीं होता, नियति को दोष नहीं देता, ईश्वर या बादशाह के सामने गिड़गिड़ाता नहीं ,खुद कष्ट सहकर भी अपने आश्रितों और प्रजा के हित पल-पल प्राण समर्पित को तैयार रहता है। इससे वर्तमान नेताओं को सीख लेकर अपने आचरण का नियमन करना चाहिए। उपन्यास में माता जी, गुरु-पत्नियाँ, गुरु पुत्र, पंच प्यारे, पहाड़ी राजा, मुग़ल बादशाह और सिपहसालार आदि अनेक गौड़ पात्र हैं जो नायक के चतुर्दिक घटती घटनाओं के पूर्ण होने में सहायक होते हैं तथा नायक के दिव्यत्व को स्थापित करने में सहायक हैं।  वे कथानक को गति देकर, वातावरण की गंभीरता कम कर, उपयुक्त वातावरण की सृष्टि करने के साथ-साथ अन्य पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं।

संवाद :

                  संवादों का प्रयोग कथानक को गति देने, नाटकीयता लाने, पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करने, वातावरण की सृष्टि करने आदि उद्देश्यों की पुयर्ती हेतु किया गया है। संवाद पत्रों के विचारों, मनोभावों तथा चिंतन की अभिव्यक्ति कर अन्य पात्रों तथा पाठकों को  घटनाक्रम से जोड़ते हैं। कथोपकथन पात्रों के अनुकूल हैं। संवादों के माध्यम से उपन्यासकार अनुपस्थित होते हुए भी अपने चिन्तन को पाठकों के मानस में आरोपित कर सका है। पंज प्यारों की परीक्षा के समय, सेठ-पुत्र के हाथ से जल न पीने के प्रसंग में, माता, पत्नियों, पुत्रों साथियों तथा सेवकों की शंकाओं का समाधान करते समय गुरु जी द्वारा कहे गए संवाद पाठकों को दिशा दिखाते हैं। ये संवाद न तो नाटकीय हैं, न उनमें अतिशयोक्ति है, गुरु गंभीर चिंतन को सरस, सहज, सरल शब्दों और लोक में परिचित भाषा शैली में व्यक्त किया गया है। इससे पाठक के मस्तिष्क में बोझ नहीं होता और वह कथ्य को ह्रदयंगम कर लेता है।   

वातावरण 

                  वर्तमान संक्रमण काल में भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में मूल्यहीनता, स्वार्थलिप्सा, संकीर्णता तथा भोग-विलास का वातावरण है। इस काल में ऐसे महान व्यक्तित्वों की गाथाएँ सर्वाधिक प्रासंगिक हैं जिन्होंने 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देकर आत्म-त्याग और आत्म-बलिदान के उदाहरण बनकर मानवीय मूल्यों की दिव्य ज्योति को जलाए रख हो ताकि पाठक वर्ग प्रेरित होकर आदर्श पथ पर चल सके। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे ही हुतात्मा हैं जो बचपन में अपने पिता को आत्माहुति की प्रेरणा देते हैं तथा तत्पश्चात मिले गुरुतर उत्तरदायित्व को ग्रहण कर न केवल स्वयं को उसके उपयुक्त प्रमाणित करते हैं बल्कि शिव की तरह पहाड़ी राजाओं के विश्वासघात का गरल पीकर नीलकंठ की भाँति मुगलों से उन्हीं की रक्षा भी करते हैं। उपन्यासकार ने तत्कालिक परिस्थितियों का वर्णन पूरी प्रामाणिकता के साथ किया है। ऐतिहासिक जीवनचरित परक उपन्यास लिखते समय लेखक की कलम को दुधारी की धार पर चलन होता है। एक ओर महानायकत्व की स्थापना, दूसरी र तथ्यों और प्रमाणिकता की रक्षा, तीसरी ओर पठनीयता बनाए रखना और चौथी और सम-सामयिक परिस्थितियों और परिवेश के साथ घटनाक्रम और नायक की सुसंगति स्थापित करते हुए उन्हें प्रासंगिक सिद्ध करना। डॉ. सुरेश कुमार वर्मा इस सभी उद्देश्यों को साधने में सफल सिद्ध हुए हैं।

भाषा शैली :

                  भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है और शैली भावों की का अभिव्यक्ति का ढंग। भाषा के द्वारा उपन्यासकार अपनी मन की बात पाठक तक संप्रेषित करता है। अतः, भाषा का सरल-सहज-सुबोधहोना, शब्दों का सटीक होना तथा शैली का सरस होना आवश्यक है।  डॉ. वर्मा स्वयं हिंदी के प्राध्यापक तथा भाषा वैज्ञानिक हैं। ऐसी स्थिति में बहुधा लेखक पांडित्य प्रदर्शन करने के फेर में पाठकों और कथा के पात्रों के साथ न्याय नहीं कर पाते किन्तु डॉ. वर्मा ने कथावस्तु के अनुरूप पंजाबी मिश्रित हिंदी और पंजाबी काव्यांशों का यथास्थान प्रयोग कर भाषा को पात्रों, घटनाओं तथा परिवेश के अनुरूप बनाने के साथ सहज बोधगम्य भी रखा है। पात्रों के संवाद उनकी शिक्षा तथा वातावरण के साथ सुसंगत हैं। प्रसंगानुकूल भाषा का उदाहरण गुरु द्वारा औरंगजेब को लिखा गया पत्र है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रचुर प्रयोग है। 

जीवन दर्शन व उद्देश्य :

                  किसी भी रचना को रचते समय रचनाकार के मन में कोई न कोई मान्यता, विचार या उद्देश्य होता है। उपन्यास जैसी गुरु गंभीर रचना निरुद्देश्य नहीं की जा सकती। ;नीले घोड़े का शहसवार' की रचना के मूल में निहित उद्देश्य का उल्लेख करते हुए डॉ. वर्मा 'अपनी बात' में गुरु नानक द्वारा समाज सुधर की चर्चा करते समय लिखते हैं '...पहले मनुष्य को ठीक किया जाए ,यदि मनुष्य विकृत रहा तो वह सबको विकृत कर देगा...मनुष्य को सत्य, न्याय, प्रेम करुणा, अहिंसा, समता, क्षमा, पवित्रता, निस्स्वार्थता, परोपकारिता, विनम्रता, जैसे गुणों को अपने व्यक्तित्व में अंगभूत करना चाहिए। फिर समाज से अन्धविश्वास, कुरीति, वर्णभेद, जातिभेद, असमानता आदि का उन्मूलन किया जाए। धर्म के क्षेत्र में सहिष्णुता, स्वतंत्रता, सरलता और मृदुलता के भावों को विकसित करने की जरूरत थी। (आज पहले की अपेक्षा और अधिक है-सं.) 

                  गुरु गोबिंद सिंह जी के अवदान का संकेत करते हुए डॉ. वर्मा लिखते हैं - 'पिता को आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा देनेवाले बालक ने मात्र ९ वर्ष की आयु में गुरुगद्दी सम्हालने के तुरंत बाद ही अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया और वह लक्ष्य था धर्म की रक्षा। 'धर्मो रक्षति रक्षित:' के सूत्र को उन्होंने कसकर पकड़ा और संकल्प किया कि हर पुरुष को लौह पुरुष के रूप में ढाला जाए जो अपनी रक्षा भी कर सके और अपने धर्म की भी... शायद ही किसी कौन या मजहब के इतिहास में ऐसा कोइ महानायक पैदा हुआ हो जिसने हर शख्स को तराशने और संवारने में इतनी मेहनत की हो।'.... आदि गुरु नानकदेव जी ने जिस धर्म की नींव राखी, उस पर कलश चढ़ाने का काम दशमेश गुरु गोबिंदसिंह ने किया। वे बड़े विलक्षण मानव थे। वे कर्मवीर थे,धर्मवीर थे, परमवीर थे। उन्होंने जीवन के विविध आयामों को बहुत ऊँचाई पर ले जाकर स्थिर किया। एक हाथ में शास्त्र था तो उस शास्त्र की रक्षा के लिए दूसरे हाथ में शस्त्र था.... पहल संस्कार कराकर और अमृत चखाकर सिखों में यह विश्वास पैदा कर दिया कि वे अमृत की संतान हैं और मृत्यु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। इससे मूलमंत्र की 'निरभउ' भावना बलवती हुई। इसका यह परिणाम हुआ की सिखों ने मृत्यु का भी तिरस्कार किया और बलिदान का वैभव दिखाने के लिए आगे आए.... गुरु गोबिंद सिंह ने उनमें यह विश्वास भर दिया कि जंग संख्याबल से नहीं, मनोबल से जीती जाती है और यह विश्वास भी कि हर सिख एक लाख शत्रुओं से लड़ने की ताकत रखता है.... तीन बार ऐसे अवसर आए जब मुग़ल सिपहसालार उनकी तेजस्विता देखकर हतप्रभ हो गए, घोड़े से उत्तर पड़े, अपनी तलवार जमीन पर रख दी और रणक्षेत्र को छोड़कर निकल गए.... विश्व के धर्मशास्त्रों में शायद ही इस प्रकार की कोई घटना दर्ज हो कि कोई गुरु अपने ही चेलों को गुरु मानकर उनकी आज्ञा का पालन करे...' उपन्यास नायक के रूप में गुरु गोबिंद सिंह जी के चयन की उपयुक्तता असंदिग्ध है।    

प्रासंगिकता 

                'नीले घोड़े का शहसवार' उपन्यास की प्रासंगिकता विविध प्रसंगों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहज ही देखी जा सकती है। भारत का जन मानस संविधान द्वारा समानता की गारंटी दिए जाने के बाद भी,जाति, धर्म पंथ, संप्रदाय, भाषा, भूषा, लिंग आदि के भेद-भाव से  आज भी ग्रस्त है। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा खालसा धर्म की स्थापना कर मानव मात्र को समान मानने का आदर्श युग की आवश्यकता है। पक्षपात की भावना, निष्पक्ष और सर्वोत्तम के चयन में बाधक होती है, आरक्षण व्यवस्था, अयोग्य को अवसर बन गयी है। गुरु गोबिंद सिंह ने पंज प्यारे चुनने और अमृत छकने में श्रेष्ठता को ही चयन का मानक रखा। यहाँ तक कि गुरु गद्दी भी गुरु ने पुत्रों को नहीं, सर्वोत्तम पात्र को दी। आज देश नेताओं, नौकरशाहों, धनपतियों ही नहीं आम आदमी के भी भ्रष्टाचार से संत्रस्त है। गुरु गोबिंद सिंह ने मसन्दों के भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने में देर न की, साथ ही 'निरमला' के माध्यम से चारित्रिक शुचिता को प्रतिष्ठा दी। अपने और शत्रु दोनों के सैनिकों को पानी पिलाने के प्रसंग में गुरु नई मानव मात्र पीड़ा को समान मानकर राहत देने का सर्वोच्च मूल्य स्थापित किया। कश्मीर के आतंकवादियों द्वारा एक विमान में कुछ भारतीयों का अपहरण कर ले जाने के बदले में सरकार ने कठिनाई से पकड़े दुर्दांत आतंकवादियों को उनके ठिकाने पर पहुँचाया, उन्हें अब तक मारा नहीं जा सका और वे शत्रुदेश में  षड्यंत्र करते हैं। यदि लोगों और नेताओं के मन में गुरु गोबिंद सिंह की तरह आत्मोत्सर्ग की भावना होती तो यह न होता। गुरु ने अपने चार पुत्रों को देश पर बलिदान होने पर भी उफ़ तक न की।

                 'नीले घोड़े का शहसवार' उपन्यास देश के हर नागरिक को न केवल पढ़ना अपितु आत्मसात करना चाहिए। गुरु गोबिंद सिंह के चिंतन, आचरण और आदर्शों को किंचित मात्र भी अपनाया जा सके तो पठान न केवल बेहतर मनुष्य अपितु बेहतर समाज बनाने में भी सहायक होगा।  सर्वोपयोगी कृति के प्रणयन हेतु डॉ. सुरेश कुमार वर्मा साधुवाद के पात्र हैं। 

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छंद सलिला
छंदराज चौपाई
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जन-मन को भाई चौपाई/चौपायी :
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो। रामचरित मानस की रचना चौपाई छंद में ही हुई है।
चौपाई छंद पर चर्चा करने के पूर्व मात्राओं की जानकारी होना अनिवार्य है
मात्राएँ दो हैं १. लघु या छोटी (पदभार एक) तथा दीर्घ या बड़ी (पदभार २)।
स्वरों-व्यंजनों में हृस्व, लघु या छोटे स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा सभी मात्राहीन व्यंजनों की मात्रा लघु या छोटी (१) तथा दीर्घ, गुरु या बड़े स्वरों (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) तथा इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: मात्रा युक्त व्यंजनों की मात्रा दीर्घ या बड़ी (२) गिनी जाती हैं.
चौपाई छंद : रचना विधान-
चारपाई से हम सब परिचित हैं। चौपाई के चार चरण होने के कारण इसे चौपाई नाम मिला है। यह एक मात्रिक सम छंद है चूँकि इसकी चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान रहती है। चौपाई द्विपदिक छंद है जिसमें दो पद या पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु लघु या दोनों में गुरु) होती हैं। चौपायी के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पद में ३२ मात्राएँ होती हैं। चारों चरण मिलाकर चौपाई ६४ मात्राओं का छंद है। चौपाई के चारों चरणों के समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। चौपाई के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर चरण अपने में स्वतंत्र होता है। चौपाई के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं। अत: किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए। चौपाई के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं।
उदाहरण:
१. शिव चालीसा की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें.
जय गिरिजापति दीनदयाला । -प्रथम चरण
१ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
सदा करत संतत प्रतिपाला ।। -द्वितीय चरण
१ २ १ १ १ २ १ १ १ १ २ २ = १६१६ मात्राएँ
भाल चंद्रमा सोहत नीके। - तृतीय चरण
२ १ २ १ २ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
कानन कुंडल नाक फनीके।।
-चतुर्थ चरण
२ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
रामचरित मानस के अतिरिक्त शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्रयुक्त भाषा उस समय की बोलियों (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) है।
निम्न उदाहरण वर्त्तमान काल में प्रचलित खड़ी हिंदी के तथा समकालिक कवियों द्वारा रचे गये हैं।
२. श्री रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
सुबह-सुबह जब जगते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
३. श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
हर युग के इतिहास ने कहा।
भारत का ध्वज उच्च ही रहा।।
सोने की चिड़िया कहलाया।
सदा लुटेरों के मन भाया।।
४. शेखर चतुर्वेदी
मुझको जग में लानेवाले।
दुनिया अजब दिखनेवाले।।
उँगली थाम चलानेवाले।
अच्छा बुरा बतानेवाले।।
५. श्री मृत्युंजय
श्याम वर्ण, माथे पर टोपी।
नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी।।
हरित वस्त्र आभूषण पूरा।
ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा।।
६. श्री मयंक अवस्थी
निर्निमेष तुमको निहारती।
विरह –निशा तुमको पुकारती।।
मेरी प्रणय –कथा है कोरी।
तुम चन्दा, मैं एक चकोरी।।
७.श्री रविकांत पाण्डे
मौसम के हाथों दुत्कारे।
पतझड़ के कष्टों के मारे।।
सुमन हृदय के जब मुरझाये।
तुम वसंत बनकर प्रिय आये।।
८. श्री राणा प्रताप सिंह
जितना मुझको तरसाओगे।
उतना निकट मुझे पाओगे।।
तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो।
मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो।।
९. श्री शेषधर तिवारी
एक दिवस आँगन में मेरे।
उतरे दो कलहंस सबेरे।।
कितने सुन्दर कितने भोले।
सारे आँगन में वो डोले।।
१०. श्री धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
नन्हें मुन्हें हाथों से जब।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
११. श्री संजीव 'सलिल'
कितने अच्छे लगते हो तुम ।
बिना जगाये जगते हो तुम ।।
नहीं किसी को ठगते हो तुम।
सदा प्रेम में पगते हो तुम ।।
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम।
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम।।
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम।
बिल्ली से डर बचते हो तुम।।
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम।
चूजे भाई! रुचते हो तुम।।
अंतिम उदाहरण में चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) लिखी गयी है। यह एक अभिनव साहित्यिक प्रयोग है।
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संजीव भैया के प्रति
डॉ. नीलम खरे
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सदा लेखनी के धनी,श्रीमान संजीव
करते सिरजन नित्य ही,हैं सारस्वत जीव
हैं सारस्वत जीव,करें साहित्य-वंदना
हैं ज्ञानी,उत्कृष्ट,जानते लक्ष्य-साधना
कहती 'नीलम' आज,कभी ना कहें अलविदा
चोखे श्री संजीव,रहें गतिमान वे सदा।
--डॉ नीलम खरे
आज़ाद वार्ड
मंडला(मप्र)-481661
(9425484382)
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छंदों का सम्पूर्ण विद्यालय : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
मंजूषा मन
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से मेरा परिचय पिछले चार वर्षों से है। लगभग चार वर्ष पहले की बात है, मैं एक छंद के विषय मे जानकारी चाहती थी पर यह जानकारी कहाँ से मिल सकती है यह मुझे पता नहीं था, सो जो हम आमतौर पर करते हैं मैंने भी वही किया... मैंने गूगल की मदद ली और गूगल पर छंद का नाम लिखा तो सबसे पहले मुझे "दिव्य नर्मदा" वेब पत्रिका से छंद की जानकारी प्राप्त हुई। मैंने दिव्य नर्मदा पर बहुत सारी रचनाएँ पढ़ीं।
चूँकि मैं भी जबलपुर की हूँ और जबलपुर मेरा नियमित आनाजाना होता है तो मेरे मन में आचार्य जी से मिलने की तीव्र इच्छा जागृत हुई। दिव्य नर्मदा पर मुझे आदरणीय संजीव वर्मा 'सलिल' जी का पता और फोन नम्बर भी मिला। मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और मैंने आचार्य सलिल जी को व्हाट्सएप पर सन्देश लिखा कि मैं भी जबलपुर से हूँ... और जबलपुर आने पर आपसे भेंट करना चाहती हूँ। उन्होंने कहा कि मैं जब भी आऊँ तो उनके निवास स्थान पर उनसे मिल सकती हूँ।
उसके बाद जब में जबलपुर गई तो मैं सलिल जी से मिलने उनके के घर गई। आप बहुत ही सरल हृदय हैं बहुत ही सहजता से मिले और हमने बहुत देर तक साहित्यिक चर्चा की। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए आप बहुत चिंतित एवं प्रयासरत लगे। चर्चा के दौरान हमने हिन्दी छंद, गीत-नवगीत, माहिया एवं हाइकु आदि पर विस्तार से बात की। लेखन की लगभग सभी विधाओं पर आपका ज्ञान अद्भुत है।
ततपश्चात मैं जब भी जबलपुर जाती हूँ तो आचार्य सलिल जी से अवश्य मिलती हूँ। उनके अथाह साहित्य ज्ञान के सागर से हर बार कुछ मोती चुनने का प्रयास करती हूँ।
ऐसी ही एक मुलाकात के दौरान उन्होंने सनातन छंदो पर अपने शोध पर विस्तार से बताया। सनातन छंदों पर किया गया यह शोध नवोदित रचनाकारों के लिए गीता साबित होगा।
आचार्य सलिल जी के विषय में चर्चा हो और उनके द्वारा संपादित "दोहा शतक मंजूषा" की चर्चा हो यह सम्भव नहीं। विश्व वाणी साहित्य संस्थान नामक संस्था के माध्यम से आप साहित्य सेवारत हैं। इसी प्रकाशन से प्रकाशित ये दोहा संग्रह पठनीय होने के साथ साथ संकलित करके रखने के योग्य हैं इनमें केवल दोहे संकलित नहीं हैं बल्कि दोहों के विषय मे विस्तार से समझाया गया है जिससे पाठक दोहों के शिल्प को समझ सके और दोहे रचने में सक्षम हो सके।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के लिए कुछ कहते हुए शब्द कम पड़ जाते हैं किंतु साहित्य के लिए आपके योगदान की गाथा पूर्ण नहीं होती। आपकी साहित्य सेवा सराहनीय है।
मैं अपने हृदयतल से आपको शुभकामनाएं देती हूँ कि आप आपकी साहित्य सेवा की चर्चा दूर दूर तक पहुंचे। आप सफलता के नए नए कीर्तिमान स्थापित करें अवने विश्व वाणी संस्थान के माध्यम से हिंदी का प्रचार प्रसार करते रहें।
मंजूषा मन
कार्यकारी अधिकारी
अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन
ग्राम - रवान
जिला - बलौदा बाजार
पिन - 493331
छत्तीसगढ़
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हमारे बहुत करीब सलिल जी
डॉ. बाबू जोसफ
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के साथ मेरा संबंध वर्षों पुराना है। उनके साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 2003 में कर्णाटक के बेलगाम में हुई थी। सलिल जी द्वारा संपादित पत्रिका नर्मदा के तत्वावधान में आयोजित दिव्य अलंकरण समारोह में मुझे हिंदी भूषण पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस सम्मान समारोह में उन्होंने मुझे कुछ किताबें उपहार के रूप में दी थीं, जिनमें एक किताब मध्य प्रदेश के दमोह के अंग्रेजी प्रोफसर अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल संकलन Off and On भी थी। उस पुस्तक में संकलित अंग्रेजी ग़ज़लों से हम इतने प्रभावित हुए कि हमने उन ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। सलिल जी के प्रयास से हमें इसके लिए प्रोफसर अनिल जैन की अनुमति मिली और Off and On का हिंदी अनुवाद यदा-कदा शीर्षक पर जबलपुर से प्रकाशित भी हुआ। सलिल जी हमेशा उत्तर भारत के हिंदी प्रांत को हिंदीतर भाषी क्षेत्रों से जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। उनके इस श्रम के कारण BSF के DIG मनोहर बाथम की हिंदी कविताओं का संकलन सरहद से हमारे हाथ में आ गया। हिंदी साहित्य में फौजी संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति के कारण इस संकलन की कविताएं बेजोड़ हैं। हमने इस काव्य संग्रह का मलयालम में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक है 'अतिर्ति'। इस पुस्तक के लिए बढ़िया भूमिका लिखकर सलिल जी ने हमारा उत्साह बढ़ाया। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय बात है कि सलिल जी के कारण हिंदी के अनेक विद्वान, कवि,लेखक आदि हमारे मित्र बन गए हैं। हिंदी साहित्य में कवि, आलोचक एवं संपादक के रूप में विख्यात सलिल जी की बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी भाषा का गौरव बढ़ा है। उन्होंने हिंदी को बहुत कुछ दिया है। इस लिए हिंदी साहित्य में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। हमने सलिल जी को बहुत दूर से देखा है, मगर वे हमारे बहुत करीब हैं। हमने उन्हें किताबें और तस्वीरों में देखा है, मगर वे हमें अपने मन की दूरबीन से देखते हैं। उनकी लेखनी के अद्भुत चमत्कार से हमारे दिल का अंधकार दूर हो गया है। सलिल जी को केरल से ढ़ेर सारी शुभकामनाएँ।
डॉ. बाबू जोसफ,
विभागाध्यक्ष हिंदी,
वडक्कन हाऊस, कुरविलंगाडु पोस्ट, कोट्टायम जिला, केरल-686633, मोबाइल.09447868474
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शब्द ब्रम्ह के पुजारी गुरुवर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'*
छाया सक्सेना
श्रुति-स्मृति की सनातन परंपरा के देश भारत में शब्द को ब्रम्ह और शब्द साधना को ब्रह्मानंद माना गया है। पाश्चात्य जीवन मूल्यों और अंग्रेजी भाषा के प्रति अंधमोह के काल में, अभियंता होते हुए भी कोई हिंदी भाषा, व्याकरण और साहित्य के प्रति समर्पित हो सकता है, यह आचार्य सलिल जी से मिलकर ही जाना।
भावपरक अलंकृत रचनाओं को कैसे लिखें यह ज्ञान आचार्य संजीव 'सलिल' जी अपने सम्पर्क में आनेवाले इच्छुक रचनाकारों को स्वतः दे देते हैं। लेखन कैसे सुधरे, कैसे आकर्षक हो, कैसे प्रभावी हो ऐसे बहुत से तथ्य आचार्य जी बताते हैं। वे केवल मौखिक जानकारी ही नहीं देते वरन पढ़ने के लिए साहित्य भी उपलब्ध करवाते हैं । उनकी विशाल लाइब्रेरी में हर विषयों पर आधारित पुस्तकें सुसज्जित हैं । विश्ववाणी संस्थान अभियान के कार्यालय में कोई भी साहित्य प्रेमी आचार्य जी से फोन पर सम्पर्क कर मिलने हेतु समय ले सकता है । एक ही मुलाकात में आप अवश्य ही अपने लेखन में आश्चर्य जनक बदलाव पायेंगे ।
साहित्य की किसी भी विधा में आप से मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है । चाहें वो पुरातन छंद हो , नव छंद हो, गीत हो, नवगीत हो या गद्य में आलेख, संस्मरण, उपन्यास, कहानी या लघुकथा इन सभी में आप सिद्धस्थ हैं।
आचार्य सलिल जी संपादन कला में भी माहिर हैं। उन्होंने सामाजिक पत्रिका चित्राशीष, अभियंताओं की पत्रिकाओं इंजीनियर्स टाइम्स, अभियंता बंधु, साहित्यिक पत्रिका नर्मदा, अनेक स्मारिकाओं व पुस्तकों का संपादन किया है। अभियंता कवियों के संकलन निर्माण के नूपुर व नींव के पत्थर तथा समयजयी साहित्यकार भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' के लिए आपको
नाथद्वारा में 'संपादक रत्न' अलंकरण से अलंकृत किया गया है।
आचार्य सलिल जी ने संस्कृत से ५ नर्मदाष्टक, महालक्ष्यमष्टक स्त्रोत, शिव तांडव स्त्रोत, शिव महिम्न स्त्रोत, रामरक्षा स्त्रोत आदि का हिंदी काव्यानुवाद किया है। इस हेतु हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग को रजत जयंती वर्ष में आपको 'वाग्विदांबर' सम्मान प्राप्त हुआ। आचार्य जी ने हिंदी के अतिरिक्त बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, हरयाणवी, सरायकी आदि में भी सृजन किया है।
बहुआयामी सृजनधर्मिता के धनी सलिल जी अभियांत्रिकी और तकनीकी विषयों को हिंदी में लिखने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। आपको 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय अभियांत्रिकी संरचनाएँ' पर अभियंताओं की सर्वोच्च संस्था इंस्टीटयूशन अॉफ इंजीनियर्स कोलकाता का अखिल भारतीय स्तर पर द्वितीय श्रेष्ठ पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा प्रदान किया गया।
जबलपुर (म.प्र.)में १७ फरवरी को आयोजित सृजन पर्व के दौरान एक साथ कई पुस्तकों का विमोचन, समीक्षा व सम्मान समारोह को आचार्य जी ने बहुत ही कलात्मक तरीके से सम्पन्न किया । दोहा संकलन के तीन भाग सफलता पूर्वक न केवल सम्पादित किया वरन दोहाकारों को आपने दोहा सतसई लिखने हेतु प्रेरित भी किया । आपके निर्देशन में समन्वय प्रकाशन भी सफलता पूर्वक पुस्तकों का प्रकाशन कर नए कीर्तिमान गढ़ रहा है ।
छाया सक्सेना प्रभु

जबलपुर ( म. प्र. )
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बहुमुखी व्यक्तित्व के साहित्य पुरोधा - 'संजीव वर्मा सलिल'
क्रांति कनाटे
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श्री संजीव वर्मा 'सलिल" बहुमुखी प्रतिभा के धनी है । अभियांत्रिकी, विधि, दर्शा शास्त्र और अर्थशास्त्र विषयों में शिक्षा प्राप्त श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी देश के लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार है जिनकी कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीट मेरे, काल है संक्रांति का, सड़क पर और कुरुक्षेत्र गाथा सहित अनेक पुस्तके चर्चित रही है ।
दोहा, कुण्डलिया, रोला, छप्पय और कई छन्द और छंदाधारित गीत रचनाओ के सशक्त हस्ताक्षर सही सलिल जी का पुस्तक प्रेम अनूठा है। इसका प्रमाण इनकी 10 हजार से अधिक श्रेष्ठ पुस्तको का संग्रह से शोभायमान जबलपुर में इनके घर पर इनका पुस्तकालय है ।
इनकी लेखक, कवि, कथाकार, कहानीकार और समालोचक के रूप में अद्वित्तीय पहचान है । मेरे प्रथम काव्य संग्रह 'करते शब्द प्रहार' पर इनका शुभांशा मेरे लिए अविस्मरणीय हो गई । इन्होंने ने कई नव प्रयोग भी किये है । दोहो और कुंडलियों पर इनकी शिल्प विधा पर इनके आलेख को कई विद्वजन उल्लेख करते है ।
जहाँ तक मुझे जानकारी है ये महादेवी वर्मा के नजदीकी रिश्तेदार है । इनकी कई वेसाइट है । ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था के कारण इन्होंने के भजन सृजित किये है और कई संस्कृत की पुस्तकों का हिंदी काव्य रूप में अनुवाद किया है ।
सलिल जी से जब भी कोई जिज्ञासा वश पूछता है तो सहभाव से प्रत्युत्तर दे समाधान करते है । ये इनकी सदाशयता की पहचान है । एक बार इनके अलंकारित दोहो के प्रत्युत्तर में मैंने दोहा क्या लिखा, दोहो में ही आधे घण्टे तक एक दूसरे को जवाब देते रहे, जिन्हें कई कवियों ने सराहा । ऐसे साहित्य पुरोधा श्री 'सलिल' जी साहित्य मर्मज्ञ के साथ ही ऐसे नेक दिल इंसान है जिन्होंने सैकड़ों नवयुवकों को का हौंसला बढ़ाया है । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं है ।
मेरी भावभव्यक्ति -
प्रतिभा के धनी : संजीव वर्मा सलिल
विभा तिवारी
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प्रतिभा के लगते धनी, जन्म जात कवि वृन्द ।
हुए पुरोधा कवि 'सलिल',प्यारे जिनको छन्द ।।
प्यारे जिनको छंद, पुस्तके जिनकी चर्चित ।
छन्दों में रच काव्य, करी अति ख्याति अर्जित ।।
कह लक्ष्मण कविराय, साहित्य में लाय विभा*।
साहित्यिक मर्मज्ञ, मानते वर्मा में प्रतिभा ।।
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पद
छंद: दोहा.
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मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
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२९.६.२०१२, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४
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गीत:
कहे कहानी....
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
*
बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
*
पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
*
अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..
२९-६-२०१०
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