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मंगलवार, 21 जून 2022

लघुकथा, द्विपदी, सदोका,महाकाव्य,योग दिवस,नवगीत,स्मृति गीत,पिता,दांत,दोहा

लघुकथा
दूसरा चेहरा
साहित्य सेवा को अपना जूनून बताकर उन्होंने संपर्क किया।उनके शहर जाना हुआ तो बहुत आग्रह के साथ अपने आवास पर आमंत्रित किया, सास, पति, पुत्र आदि से परिचय कराकर स्वादिष्ट भोजन कराया, आते-जाते समय चजरण स्पर्श किए।
मेरे शहर में उनका आगमन हुआ तो उन्हें गृह आमंत्रित कर मैंने अपने परिवारजनों से मिलवाया, उनके स्वागत में गोष्ठी आदि का आयोजन किया। वे जिस विधा में लेखन कर रही थीं, उसकी कुछ अनुपलब्ध पुस्तकें भेंट कीं, कुछ योजनाएँ बनाई गईं, उनकी संस्था की अपने शहर में ईकाई आरंभ कराई।
सार यह कि बहुत आत्मीय, मधुर और पारिवारिक संबंध हो गए।
कुछ वर्ष बाद उनका पुनरागमन हुआ। अब तक वे अपनी विधा की प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हो गयी थीं, अपना प्रकाशन गृह आरंभ कर चुकी थीं। प्रकाशन गृह संबंधी कई समस्याओं की चर्चा उन्होंने की। एक महिला रचनाकार के बारे में बताया जिसने उनके अनुसार, उन्हें विश्वास में लेकर अपनी पुस्तक छपाकर भुगतान ही नहीं किया।
मैंने उन्हें सहयोग करने की भावना से अपनी एक पुस्तक की पी डी एफ और नगर के मुद्रक ने जो राशि बताई थी, वह अग्रिम देते हुए उनके प्रकाशन की सफलता हेतु शुभकामना दी।
इसके बाद माह पर माह बीतते रहे पर पुस्तक की प्रगति नहीं हो पाई। इस मध्य बेटे का विवाह तय हुआ तो सोचा की नव दंपत्ति को नव प्रकाशित पुस्तक भेंट करून तथा अतिथितियों को वही पुस्तक प्रति उपहार के रूप में दूँ। उनसे बात की तो उन्होंने अन्य कार्यों में व्यस्त होने का कारण बताकर असमर्थता व्यक्त कर दी। लंबी चर्चा के बाद कहा कि दस प्रतियाँ भिजवा देती हूँ। मैंने बहु-बेटे को नव प्रकाशित पुस्तक भेंट की पर अतिथियों को अन्य उपहार देना पड़ा।
बेटे का विवाह हुए छह माह बीत चुके हैं, अब तक पुस्तक की शेष प्रतियाँ अप्राप्त हैं। अब वे निरंतर प्रकाशकीय गतिविधियाँ बढ़ाती जा रही हैं पर मेरी पुस्तक का शेष कार्य पूर्ण करने या का अवकाश नहीं है उनके पास।
मैं स्तब्ध हूँ यह देखकर कि एक सुसंस्कारी महिला के सुपरिचित चेहरे पर हावी हो गया है व्यावसायिक प्रकाशक का दूसरा चेहरा।
द्विपदी
मौन दर-दीवार हैं; चौपाल चुप
दोस्त भी मिलते हैं अंतरजाल पर।
शब्द सलिला सूखती जा रही है 
जमाना अब इमोजी का आ आ गया। 

सदोका सलिला ५
योग-वियोग
जग की रीत-नीत
जीवन का संगीत।
योग-संयोग
ऐसे होते प्रतीत 
जैसे प्रीत-संगीत।२६।
रिश्ते-नाते
सत्य ही बताते
कोई नहीं किसी का।
कोई न गैर
वही अपना सगा
जो मनाता है खैर।२७।
वादा निभाना
आदमी की निशानी
दुनिया आनी-जानी।
वादा भुलाना
सुरासुरी चलन
स्वार्थ-भोग अगन।२८।
देर सबेर
मिलता कर्म-फल
मत होना विकल।
धीरज धर
तलाश अवसर
वर देगा ईश्वर।२९।
मन उन्मन
हरि का सुमिरन 
लगी रहे लगन।
दूर हो भ्रांति 
जब न हो संक्रांति
तभी मिलेगी शांति।
२१-६-२०२२ 
•••
विमर्श
हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा
*
संस्कृत वांग्मय में काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंध। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या करता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।
महाकाव्य के तत्व -
महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।
१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सरगारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्रे: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपतुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।
२. नायक - महाकव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (सीता, कैकेयी, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकव्य रचा जाए। प्राय: एक नायक रखा जाता है किन्तु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकव्य लिखा जाए तो गोखले, टिकल। लाजपत राय, रविंद्र नाथ, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजरंदर प्रसाद आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।
३. रस - रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। महाकव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व् परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।
अन्य नियम - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरुप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु पथिक जी ने कारण पर लिखित महाकव्य का शीर्षक 'सूतपुत्र' रखकर इस परंपरा को तोडा है।
महाकाव्य : कल से आज
विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अन्तर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।
इस विरासत पर हिंदी साहित्य की महाकाव्य परंपरा में प्रथम दो हैं चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की रामचद्रिका में पांडित्य जनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत भी महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने प्रिय प्रवास और द्वारिका मिश्र ने कृष्णायन की रचना की। कामायनी - जयशंकर प्रसाद, वैदेही वनवास हरिऔध, सिद्धार्थ तथा वर्धमान अनूप शर्मा, दैत्यवंश हरदयाल सिंह, हल्दी घाटी श्याम नारायण पांडेय, कुरुक्षेत्र दिनकर, आर्यावर्त मोहनलाल महतो, नूरजहां गुरभक्त सिंह, गाँधी परायण अम्बिका प्रसाद दिव्य, उत्तर भगवत तथा उत्तर रामायण डॉ. किशोर काबरा, कैकेयी डॉ.इंदु सक्सेना देवयानी वासुदेव प्रसाद खरे, महीजा तथा रत्नजा डॉ. सुशीला कपूर, महाभारती डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, दधीचि आचार्य भगवत दुबे, वीरांगना दुर्गावती गोविन्द प्रसाद तिवारी, क्षत्राणी दुर्गावती केशव सिंह दिखित 'विमल', कुंवर सिंह चंद्र शेखर मिश्र, वीरवर तात्या टोपे वीरेंद्र अंशुमाली, सृष्टि डॉ. श्याम गुप्त, विरागी अनुरागी डॉ. रमेश चंद्र खरे, राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस रामेश्वर नाथ मिश्र अनुरोध, सूतपुत्र महामात्य तथा कालजयी दयाराम गुप्त 'पथिक', आहुति बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।
समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है।
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संपर्क विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४
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आपकी बात -
विनोद कुमार जैन 'वाग्वर'

कलम के धनी, सरस्वती के वरद पुत्र आदरणीय आचार्य श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी से मेरी चलभाष पर प्रथम वार्ता ने उनके सानिध्य में रहकर हिन्दी साहित्य की विधाओं को विधिवत सीखकर लिखने की प्रेरणा दी। फलतः दोहा दोहा नर्मदा मे मेरे दोहों का प्रकाशन हुआ। सलिल जी ने मेरे दोहों को परिष्कृत-परिमार्जित कर निरंतर पढ़ने-लिखने और सुधारने की मंत्र दिया 'पहले एक पसेरी पढ़, फिर तोला लिख। उनकी सतत प्रेरणा से 'दोहा सतसई' पर कार्य चल रहा है। ३०० हाइकु भी प्रकाशित करने प्रेषित किये हैं। बून्देलखण्ड़ की यात्रा के दौरान जबलपुर रोककर सलिल जी के दर्शन लाभ तथा कुछ पल का सानिध्य का सौभाग्य मिला, मिलकर ऐसा लगा जैसे बरसों से उन्हें जानते हूँ, हृदय अभिभूत हो गया। हिन्दी साहित्य उनके कण कण में बसा है। उनके साहित्य प्रेम का जीता जागता प्रमाण उनका निजी बैठक गृह है जो किसी उत्तम पुस्तकालय से कम नहीं, यहाँ दुर्लभ ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। उनसे मिलकर नयी ऊर्जा का संचार हुआ। प्रभु से यही मनाया हूँ कि ऐसा अवसर जो वन में बार-बार लाए ... उनके साहित्य कर्म की समीक्षा करने की शब्द-शक्ति मेरी कलम मेंं कहाँ ?... मैं तो उनके लिखे को पढ़-समझ, प्रशंसा कर ही खुद को धन्य मानता हूँ। माँ शारदे की कृपा व उनका सानिध्य हर पल मिलता रहे, यही कामना है।
सागवाड़ा, राजस्थान।
***
विमर्श:
योग दिवस...
*
- योग क्या?
= जोड़ना, संचय करना.
- संचय क्या और क्यों करना?
= सृष्टि का निर्माण और विलय का कारक है 'ऊर्जा', अत: संचय ऊर्जा का... लक्ष्य ऊर्जा को रूपांतरित कर परम ऊर्जा तक आरोहण कर पाना.
- ऊर्जा संचय और योग में क्या संबंध है?
= योग शारीरिक, मानसिक और आत्मिक ऊर्जा को चैतन्य कर, उनकी वृद्धि करता है .फलत: नकारात्मकता का ह्रास होकर सकारात्मकता की वृद्धि होती है. व्यक्ति का स्वास्थ्य और चिंतन दोनों का परिष्कार होता है.
- योग धनाढ्यों और ढोंगियों का पाखंड है.
= योग के क्षेत्र में कुछ धनाढ्य और ढोंगी हैं. धनाढ्य होना अपराध नहीं है, ढोंगी होना और ठगना अपराध है. पहचानना और बचना अपनी जागरूकता और विवेक से ही संभव है, गेहूं के बोर में कुछ कंकर होने से पूरा गेहूं नहीं फेंका जा सकता. इसी तरह कुछ पाखंडियों के कारण पूरा योग त्याज्य नहीं हो सकता.
- दैनिक जीवन की व्यस्तता और समयाभाव के कारण योग करने नहीं जाया जा सकता.
= योग करने के लिए कहीं जाना नहीं है, न अलग से समय चाहिए. एक बार सीखने के बाद अभ्यास अपना काम करते हुए भी किया जा सकता है. कार्यालय, कारखाना, खेत, रसोई हर जगह योग किया जा सकता है, वह भी अपना काम करते-करते.
- योग कैसे कार्य करता है?
= योग मुद्राएँ शरीर की शिराओं में रक्त प्रवाह की गति को सुधरती हैं. मन को प्रसन्न करती है. फलत: थकान और ऊब समाप्त होती है. प्रसन्न मन काम करने पर परिणाम की मात्रा और गुण दोनों में वृद्धि होती है. इससे मिली प्रशंसा और सफलता अधिक अच्छा करने की प्रेरणा देती है.
- योग खर्ची ला है.
= नहीं योग बिन किसी अतिरिक्त व्यय के किया जा सकता है. योग रोग घटाकर बचत कराता है.
- कैसे?
= योग से सही आसन सीख कर कार्य करते समय शरीर को सही स्थिति में रखें तो थकान कम होगी, श्वास-प्रश्वास नियमित हो तो रक्त प्रवाह की गति और उनमें ओषजन की मात्रा बढ़ेगी.फलत: ऊर्जा, उत्साह, प्रसन्नता और सामर्थ्य में वृद्धि होगी.
- योग सिखाने वाले बाबा ढोंगी और विलासी होते हैं.
= निस्संदेह कुछ बाबा ऐसे हो सकते हैं. उन्हें छोड़कर सच्च्ररित्र प्रशिक्षक को चुना जा सकता है. दूरदर्शन, अंतरजाल आदि की मदद से बिना खर्च भी सीखा जा सकता है.
- योग और भोग में क्या अंतर है?
= योग और भोग एक सिक्के के दो पहलू हैं. 'दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा', जीने के लिए अन्न, वस्त्र, मकान का भोग करना ही होगा. बेहतर जीवन स्तर और आपदा-प्रबंधन हेतु संचय भी करना होगा. राग और विराग का संतुलन और समन्वय ही 'सम्भोग' है. इसे केवल दैहिक क्रिया मानना भूल है. 'सम्भोग' की प्राप्ति में योग सहायक होता है. 'सम्भोग' से 'समाधि' अर्थात आत्म और परमात्म के ऐक्य की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है. अत्यधिक योग और अत्यधिक भोग दोनों अतृप्ति, अरुचि और अंत में विनाश के कारण बनते हैं. 'योग; 'भोग' का प्रेरक और 'भोग' 'योग' का पूरक है.
- योग कौन कर सकता है?
= योग हर जीवित प्राणी कर सकता है. पशु-पक्षी स्वचेतना से प्रकृति अनुसार आचरण करते हैं जो योग है. मनुष्य में बुद्धितत्व की प्रधानता उसे सर्वार्थ से दूर कर स्वार्थ के निकट कर देती है. योग उसे आत्म तत्व के निकट ले जाकर ब्रम्हांश होने की प्रतीति कराता है. कंकर-कंकर में शंकर होने की अनुभूति होते ही वह सृष्टि के कण-कण से आत्मीयता अनुभव करता है. योग मौन से संवाद की कला है. बिन बोले सुनना-कहना और ग्रहण करना और बाँट देना ही सच्चा योग है.
- योग दिवस क्यों?
योग दिवस केवल स्मरण करने के लिए कि अगले योग दिवस तक योगरत रहकर अपने और सबके जीवन को बेहतर और प्रसन्नता पूर्ण बनाएँ.
***
२१.६.२०१८
***
नवगीत
राम रे!
*
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भोर-साँझ लौ गोड़ तोड़ रए
कामचोर बे कैते।
पसरे रैत ब्यास गादी पै
भगतन संग लपेटे।
काम पुजारी गीता बाँचें
गोपी नचें निढाल-
आँधर ठोंके ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भट्टी देह, न देत दबाई
पैलउ माँगें पैसा।
अस्पताल मा घुसे कसाई
थाने अरना भैंसा।
करिया कोट कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल-
बेचें न्याय दलाल
राम रे !
लूट बजा रए गाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
झिमिर-झिमिर-झम बूँदें टपकें
रिस रओ छप्पर-छानी।
दागी कर दई रौताइन की
किन नें धुतिया धानी?
अँचरा ढाँके, सिसके-कलपे
ठोंके आपन भाल
राम रे !
जीना भओ मुहाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
२१-६-२०१६
***
स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं
हर दिन पिता याद आते हैं...
***
बाल कविता:
मेरे पिता
जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया
कंधे पर ले जगत दिखाया
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?'
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया
'फिर दौड़ो' उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया
'बड़े बनो' सपना दिखलाया
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा
मंत्र जीतने का सिखलाया
*
लालच करते देख डराया
आलस से पीछा छुड़वाया
'भूल न जाना मंज़िल-राहें
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया
शशि बन सर से ताप हटाया
मैंने जब भी दर्पण देखा
खुद में बिम्ब पिता का पाया
*
***
दोहा का रंग दांत के संग:
*
दाँतों काटी रोटियाँ, रहें हमेशा याद
माँ-हाथों के कौर सा, पाया कहीं न स्वाद
*
दाँत निपोरो तो मिटे, मन का 'सलिल' तनाव
दाँत दिखाओ चमकते, अच्छा पड़े प्रभाव
*
पाँत दाँत की दमकती, जैसे मुक्ता-माल
अधर-कमल के मध्य में, शोभित लगे कमाल
*
दाँत तले उँगली दबा, लगते खूब जनाब
कभी शांत नटखट कभी, जैसे कली गुलाब
*
दाँतों से नख कुतरते, देते नहीं जवाब
नज़र झुकी बिजली गिरी, पलकें हुईं नकाब
*
दाँत बज रहे- काँपता, बदन चढ़ा ज्वर तेज
है मलेरिया बुला लें, दवा किसी को भेज
*
दाँत न टूटे दूध के,चले निभाने प्रीत
दिल के बिल को देखकर, बिसर गया लव-गीत
*
दाँतों में पल्लू दबा, चला नज़र के तीर
लूट लिया दिल ध्वस्त कर, अंतर की प्राचीर
*
दाँत तोड़कर शत्रु के, सैन्य बचाती देश
जान हथेली पर लिये, कसर न छोड़ें लेश
*
दाँतों लोहे के चने, चबा रहे रह शांत
धीरज को करिये नमन, 'सलिल' न होते भ्रांत
*
दहशतगर्दों के करें, मिलकर खट्टे दाँत
'सलिल' रहम मत खाइये, खींच लीजिए आँत
*
दाँत मिलें तो चनों का, होता रहा अभाव
चने मिले बेदाँत को, कैसे करें निभाव?
*
दाँत खोखले हो गये, समझें खिसकी नींव
सजग रहें खुद सदय हों, पल-पल करुणासींव
*
और दिखाने के 'सलिल', खाने के कुछ और
दाँतों की महिमा अमित, करिए इन पर गौर
*
हैं कठोर बाँटें नहीं, अलग-अलग रह पीर
दाँत टूटते जीभ झुक, बच जाती धर धीर
*
दाँत दीन चुप पीसते, चक्की बिना पगार
जी भर रस ले जीभ चुप, पेट गहे आहार
*
खट्टा मीठा चिरपरा, चाबे निस्पृह संत
आह-वाह रसना करे, नहीं स्वार्थ का अंत
*
जिव्हा बहिन रक्षित-सुखी, गाती मधुरिम छंद
बंधु दाँत रक्षा करे, मिले अमित आनंद
*
योग कर रहा शांत रह, दाँत न करता बैर
जिए ऐक्य-सद्भाव से, हँसी-खुशी निर्वैर
*
दाँत स्वच्छता-दूत है, नित्य हो रहा साफ़
जो घिसता उसको करे, तत्क्षण ही यह माफ़
*
क्षुधा मिटाता उदर की, चबा-चबा दे भोज्य
बचा मसूढ़ों को रहा, दाँत नमन के योग्य
*
उगे टूट गिर फिर बढ़े, दाँत न माने हार
कर्मवीर है सूर्य सा, करे नहीं तकरार
२१-६-२०१५
***
गीत :
उड़ने दो…
*
पर मत कतरो
उड़ने दो मन-पाखी को।
कहो कबीरा
सीख-सिखाओ साखी को...
*
पढ़ो पोथियाँ,
याद रखो ढाई आखर।
मन न मलिन हो,
स्वच्छ रहे तन की बाखर।
जैसी-तैसी
छोड़ो साँसों की चादर।
ढोंग मिटाओ,
नमन करो सच को सादर।
'सलिल' न तजना
रामनाम बैसाखी को...
*
रमो राम में,
राम-राम सब से कर लो।
राम-नाम की
ज्योति जला मन में धर लो।
श्वास सुमरनी
आस अँगुलिया संग चले।
मन का मनका,
फेर न जब तक साँझ ढले।
माया बहिना
मोह न, बाँधे राखी को…
२१-६-२०१३
*

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