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बुधवार, 28 सितंबर 2016

chancharik-charit dohawali

चंचरीक - चरित दोहावली 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
*
'चंचरीक' प्रभु चरण के, दैव कृपा के पात्र 
काव्य सृजन सामर्थ्य के, नित्य-सनातन पात्र 
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'नारायण' सा 'रूप' पा, 'जगमोहन' शुभ नाम 
कर्म कुशल कायस्थ हो, हरि को हुए प्रणाम
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'नारायण' ने 'सूर्य' हो, प्रगटाया निज अंश 
कुक्षि 'वासुदेवी' विमल, प्रमुदित पा अवतंश 
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सात नवंबर का दिवस, उन्निस-तेइस वर्ष 
पुत्र-रुदन का स्वर सुना, खूब मनाया हर्ष 

बैठे चौथे भाव में, रवि शशि बुध शनि साथ 
भक्ति-सृजन पथ-पथिक से, कहें न नत हो माथ 
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रवि उजास, शशि विमलता, बुध दे भक्ति प्रणम्य 
शनि बाधा-संकट हरे, लक्ष्य न रहे अगम्य 
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'विष्णु-प्रकाश-स्वरूप' से, अनुज हो गए धन्य 
राखी बाँधें 'बसन्ती, तुलसी' स्नेह अनन्य 
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विद्या गुरु भवदत्त से, मिली एक ही सीख 
कीचड में भी कमलवत, निर्मल ही तू दीख 
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रथखाना में प्राथमिक, शिक्षा के पढ़ पाठ 
दरबार हाइ स्कूल में, पढ़े हो सकें ठाठ 
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भक्तरत्न 'मथुरा' मुदित, पाया पुत्र विनीत 
भक्ति-भाव स्वाध्याय में, लीन निभाई रीत
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'मन्दिर डिग्गी कल्याण' में, जमकर बँटा प्रसाद 
भोज सहस्त्रों ने किया, पा श्री फल उपहार 
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'गोविंदी' विधवा बहिन, भुला सकें निज शोक 
'जगमोहन' ने भक्ति का, फैलाया आलोक 
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पाठक सोहनलाल से, ली दीक्षा सविवेक 
धीरज से संकट सहो, तजना मूल्य न नेक 
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चित्र गुप्त है ईश का, निराकार सच मान 
हो साकार जगत रचे, निर्विकार ले जान 
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काया स्थित ब्रम्ह ही, है कायस्थ सुजान 
माया की छाया गहे, लेकिन नहीं अजान 
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पूज किसी भी रूप में, परमशक्ति है एक 
भक्ति-भाव, व्रत-कथाएँ, कहें राह चल नेक 
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'रामकिशोरी' चंद दिन, ही दे पायीं साथ 
दे पुत्री इहलोक से, गईं थामकर हाथ 
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महाराज कॉलेज से, इंटर-बी. ए. पास 
किया, मिले आजीविका, पूरी हो हर आस 
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धर्म-पिता भव त्याग कर, चले गए सुर लोक 
धैर्य-मूर्ति बन दुःख सहा, कोई सका न टोंक 
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रचा पिता की याद में, 'मथुरेश जीवनी' ग्रन्थ 
'गोविंदी' ने साथ दे, गह सृजन का पंथ 
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'विद्यावती' सुसंगिनी, दो सुत पुत्री एक 
दे, असमय सुरपुर गयीं, खोया नहीं विवेक 
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महाराजा कॉलेज से, एल-एल. बी. उत्तीर्ण 
कर आभा करने लगे, अपनी आप विकीर्ण 
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मिली नौकरी किन्तु वह, तनिक न आयी रास 
जुड़े वकालत से किये, अनथक सतत प्रयास 
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प्रगटीं माता शारदा, स्वप्न दिखाया एक 
करो काव्य रचना सतत, कर्म यही है नेक 
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'एकादशी महात्म्य' रच, किया पत्नि को याद 
व्यथा-कथा मन में राखी, भंग न हो मर्याद 
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रच कर 'माधव-माधवी', 'रुक्मिणी मंगल' काव्य 
बता दिया था कलम ने, क्या भावी संभाव्य 
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सन्तानों-हित तीसरा, करना पड़ा विवाह 
संस्कार शुभ दे सकें, निज दायित्व निबाह 
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पा 'शकुंतला' हो गया, घर ममता-भंडार 
पाँच सुताएँ चार सुत, जुड़े हँसा परिवार 
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सावित्री सी सुता पा, पितृ-ह्रदय था मुग्ध 
पाप-ताप सब हो गए, अगले पल ही दग्ध 
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अधिवक्ता के रूप में, अपराधी का साथ 
नहीं दिया, सच्चाई हित, लड़े उठाकर माथ 
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दर्शन 'गलता तीर्थ' के, कर भूले निज राह 
'पयहारी' ने हो प्रगट, राह दिखाई चाह 
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'सन्तदास'-संपर्क से, पा आध्यात्म रुझान 
मन वृंदावन हो चला, भरकर भक्ति-उड़ान 
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'पुरुषोत्तम श्री राम चरित', रामायण-अनुवाद 
कर 'श्री कृष्ण चरित' रचा, सुना अनाहद नाद 
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'कल्कि विष्णु के चरित' को, किया कलम ने व्यक्त 
पुलकित थे मन-प्राण-चित, आत्मोल्लास अव्यक्त 
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चंचरीक मधुरेश थे, मंजुल मृदुल मराल 
शंकर सम अमृत लुटा। पिया गरल विकराल 
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मोहन सोहन विमल या, वृन्दावन रत्नेश 
मधुकर सरस उमेश या , थे मुचुकुन्द उमेश 
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प्रेमी गुरु प्रणयी वही, अम्बु सुनहरी लाल 
थे भगवती प्रसाद वे, भगवद्भक्त रसाल
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सत्ताईस तारीख थी, और दिसंबर माह 
दो हजार तेरह बरस, त्यागा श्वास-प्रवाह 
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चंचरीक भू लोक तज, चित्रगुप्त के धाम 
जा बैठे दे विरासत, अभिनव ललित ललाम 
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उन प्रभु संजीव थे, भक्ति-सलिल में डूब 
सफल साधना कर तजा, जग दे रचना खूब 
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निर्मल तुहिना दूब पर, मुक्तामणि सी देख 
मन्वन्तर कर कल्पना, करे आपका लेख 
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जगमोहन काया नहीं, हैं हरि के वरदान 
कलम और कवि धन्य हो, करें कीर्ति का गान ४२ 
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