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गुरुवार, 15 सितंबर 2016

doha

दोहे 
सलिल न बन्धन बाँधता, बहकर देता खोल। 
चाहे चुप रह समझिए, चाहे पीटें ढोल।। 
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अंजुरी भर ले अधर से, लगा बुझा ले प्यास।
मन चाहे पैरों कुचल, युग पा ले संत्रास।। 
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उठे, बरस, बह फिर उठे, यही 'सलिल' की रीत। 
दंभ-द्वेष से दूर दे, विमल प्रीत को प्रीत।। 
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स्नेह संतुलन साधकर, 'सलिल' धरा को सींच। 
बह जाता निज राह पर, सुख से आँखें मींच।। 
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क्या पहले क्या बाद में, घुली कुँए में भंग। 
गाँव पिए मदमस्त है, कर अपनों से जंग।।

जो अव्यक्त है, उसी से, बनता है साहित्य। 
व्यक्त करे सत-शिव तभी, सुंदर का प्रागट्य।। 
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नमन नलिनि को कीजिए, विजय आप हो साथ। 
'सलिल' प्रवह सब जगत में, ऊँचा रखकर माथ।।

हर रेखा विश्वास की, शक-सेना की हार। 
सक्सेना विजयी रहे, बाँट स्नेह-सत्कार। 
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