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मंगलवार, 6 सितंबर 2016

dopadi-doha

दोपदी
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अब न ललक फूल की बाकी रही
आदमी fool हो गया शायद
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फूल कर कुप्पा प्रशंसा से हुए
सु-मन ने काँटा चुभा पिचका दिया
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दोहा सलिला
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गौ भाषा को दोह ले, दोहा दुग्ध समान
गागर में सागर भरे, पढ़-समझें मतिमान
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बात मर्म की कह रहा, सुनिये धरकर धीर
शाह भिखारी ही मिले, मिले अमीर फ़क़ीर
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पैर उठाये है 'सलिल', जब तक सर का भार
सर अकड़ा है गर्व से, सर पर सर बलिहार
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रूप चन्द्र का निरखकर, सविता क्यों सन्तप्त?
दर्शन राम किशोर के, कर हो जाए तृप्त
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लता विटप तरु धन्य हैं, प्रीत करें मिथिलेश
सींच 'सलिल' कर दूर दें, मन में व्यथा अशेष
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तुम रखते ही हो नहीं, सूखा हुआ गुलाब
इसीलिये भारी लगे, तुम्हें किताब जनाब
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दूर न दर्शन रह गये, मोबाइल में देख
अब उर में खिंचती नहीं, है यादों की रेख
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क्या जवाब दूँ बतायें, नहीं रहा कुछ सूझ
मौन हुई मति क्यों कहें, बात न आती बूझ
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मौन न हों मति सोचकर, दोहा लिख लें एक
मन से मन की बात हो, दोहे में सविवेक
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६.९.२०१६

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