मुक्तक:
शब्द की सीमा कहाँ होती कभी, व्यर्थ शर्मा कर इन्हें मत रोकिये
असीमित हैं भाव रस लय छंद भी, ह्रदय की मृदु भूमि में हँस बोइये
'सलिल' कब रुकता?, सतत बहता रहे नाद कलकल सुन भुला दुःख खोइए
दिल में क्यों निज दर्द ले छिपते रहें करें अर्पित ईश को, फिर सोइये
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