गीत:
एक जुट प्रहार हो
घना जो अन्धकार हो
*
गूंजती पुकार हो
बह रही बयार हो
घेर ले तिमिर घना
कदम-कदम पे खार हो
हौसला चुके नहीं
शीश भी झुके नहीं
बाँध मुट्ठियाँ बढ़ो
घना जो अन्धकार हो
*
नित नया निखार हो
भूल का सुधार हो
काल के भी भाल पर
कोशिशी प्रहार हो
दुश्मनों से जूझना
प्रश्न पूछ-बूझना
दाँव-पेंच-युक्तियाँ
एक पर हजार हो
घना जो अन्धकार हो
*
हार की भी हार हो
प्यार को भी प्यार हो
प्राणदीप लो जला
सिंगार का सिंगार हो
गरल कंठ धारकर
मौत को भी मारकर
ज़िंदगी की बंदगी
विहँस बार-बार हो
घना जो अन्धकार हो
*
3 टिप्पणियां:
Makesh K Tiwari mukuti@gmail.com
आचार्य जी,
नमन इस सुन्दर और ओजपूर्ण गीत के लिए......
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
amitasharma2000@yahoo.com [ekavita]
हार की भी हार हो
प्यार को भी प्यार हो
प्राणदीप लो जला
सिंगार का सिंगार हो
गरल कंठ धारकर
मौत को भी मारकर
ज़िंदगी की बंदगी
विहँस बार-बार हो
घना जो अन्धकार हो
BAHUT KHOOB.
AMITA
Kusum Vir kusumvir@gmail.com
// हौसला चुके नहीं
शीश भी झुके नहीं
बाँध मुट्ठियाँ बढ़ो
घना जो अन्धकार हो
वीर रस से सिक्त अति सुन्दर गीत लिखा है आपने आचार्य जी l
बधाई एवं सराहना स्वीकार करें l
सादर,
कुसुम
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