काव्य सलिला:
हम
संजीव 'सलिल'
*
हम कहाँ हैं?
पूछता हूँ, खोजता हूँ.
चुप पहेली बूझता हूँ.
*
यहाँ मैं हूँ.
वहाँ तुम हो.
यहाँ यह है.
वहाँ वह है.
सभी कंकर.
कहाँ शंकर?
*
द्वैत मिटता ही नहीं है.
अहं पिटता ही नहीं है.
बिंदु फैला इस तरह कि
अब सिमटता ही नहीं है.
तर्क मण्डन, तर्क खंडन
तर्क माटी, तर्क चन्दन.
सच लिये वितर्क भी कुछ
है सतर्क कुतर्क भी अब.
शारदा दिग्भ्रमित सी है
बुद्धि भी कुछ श्रमित सी है.
हार का अब हार किसके
गले डाले भारती?
*
चलो, नियमों से परे हों.
भावनाओं पर खरे हों.
मिटेगा शायद तभी तम.
दूर होंगे दिलके कुछ गम.
आइये अब साथ हो लें.
हाथ में फिर हाथ हो लें.
आँख करिए व्यर्थ मत नम.
भूलिए मैं-तुम
बनें हम..
*
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
हम
संजीव 'सलिल'
*
हम कहाँ हैं?
पूछता हूँ, खोजता हूँ.
चुप पहेली बूझता हूँ.
*
यहाँ मैं हूँ.
वहाँ तुम हो.
यहाँ यह है.
वहाँ वह है.
सभी कंकर.
कहाँ शंकर?
*
द्वैत मिटता ही नहीं है.
अहं पिटता ही नहीं है.
बिंदु फैला इस तरह कि
अब सिमटता ही नहीं है.
तर्क मण्डन, तर्क खंडन
तर्क माटी, तर्क चन्दन.
सच लिये वितर्क भी कुछ
है सतर्क कुतर्क भी अब.
शारदा दिग्भ्रमित सी है
बुद्धि भी कुछ श्रमित सी है.
हार का अब हार किसके
गले डाले भारती?
*
चलो, नियमों से परे हों.
भावनाओं पर खरे हों.
मिटेगा शायद तभी तम.
दूर होंगे दिलके कुछ गम.
आइये अब साथ हो लें.
हाथ में फिर हाथ हो लें.
आँख करिए व्यर्थ मत नम.
भूलिए मैं-तुम
बनें हम..
*
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
6 टिप्पणियां:
achal verma ✆
ekavita
बीच कुतर्कों के यह झोंका एक हवा का ऐसा आया
साथ सुगंध भी अपने लाया मेरा मन इसने बहलाया
साधुवाद भेजूं मैं इसका धन्यवाद या नहीं बधाई
सीधे सादे शब्दों में ही गहरी बात समझ में आई ।।
अचल वर्मा
vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com
ekavita
आ० ’सलिल’ जी,
द्वैत मिटता ही नहीं है.
अहं पिटता ही नहीं है. ..... मानव की दुविधा का कारण ही यही है ।
बहुत सत्य है आपकी कविता में ।
बधाई ।
विजय
- pranavabharti@gmail.com
प्रणाम सहित साधुवाद |
सच ही है अब उलझन से हम दूर रहें तो ,
सत्य प्रेम के आलिंगन में चूर रहें तो ||
क्यों कि
जिन्दगी झौंका हवा का ,प्यार का संगीत है ,
जिन्दगी खुशियों की महफिल,गा सकें तो गीत है|
हर नई रौशन सुबह से अपने दिल कर लें जवाँ ,
जिन्दगी है एक दरिया जिन्दगी है आसमां
जिन्दगी सपना सुखद है ,जिन्दगी ही प्रीत है ||
जिन्दगी खुशियों की महफिल ...........गा सकें तो गीत है ||
आ.सलिल जी
जिदगी को यदि खरेपन से जीया जा सके तो जिन्दगी सार्थक हो जाये |
" भावनाओं पर खरे हों ".........आमीन !
बस ऐसा हो जाये तो धरती रहने योग्य हो सके |
सादर
प्रणव भारती
आ० ’सलिल’ जी,
इतने सुंदर भावों के लिए बधाई
आदरणीय आचार्य जी
अनुपम ! अति सुन्दर !
सादर
प्रताप
ksantosh_45@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com
ekavita
, नियमों से परे हों.
भावनाओं पर खरे हों.
मिटेगा शायद तभी तम.
दूर होंगे दिलके कुछ गम.
आइये अब साथ हो लें.
हाथ में फिर हाथ हो लें.
आ० सलिल जी
आपने बहुत ही गरिमामयी बात कही है पर, किसी की समझ आये तब न।
सलाहयुक्त कविता के लिए बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
--- On Sat, 24/3/12
एक टिप्पणी भेजें