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मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

तेवरी ही तेवरी : ( ghazal, muktika, geetika )आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संपादक नर्मदा
salil.sanjiv@gmail.com
sanjivsalil.blogspot.com
sanjivsalil.blog.in.com
१.
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव.

मंझधारों-भंवरों को पार
किया किनारे डूबी नाव।

सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।

ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।

ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।

डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?

नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?
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२.
दिल ने हरदम चाहे फूल।
पर दिमाग ने बोए शूल.

मेहनतकश को कहें ग़लत
अफसर काम न करते भूल।

बहुत दोगली है दुनिया
नहीं सुहाते इसे उसूल.

तू मत नाहक पैर पटक
सिर पर बैठे उडकर धूल.

बना तीन के तेरह लें
चाहा , डुबा दिया धन मूल.

मंझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते तुम जा कूल.

धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवा स्वप्न में झूल.
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३.
खर्चे अधिक, आय है कम
दिल रोता, आँखें हैं नम.

पाला शौक तमाखू का
बना मौत का फंदा यम्.

जो करता जग उजियारा
उसी दीप के नीचे तम.

सीमाओं की फ़िक्र नहीं
ठोंक रहे संसद में खम.

जब पाया तो खुश न हुए,
खोया तो करते क्यों गम?

टन-टन रुचे न मन्दिर की
कोठे की रुचती छम-छम.

वीर bhogyaa वसुंधरा
'सलिल' रखो हाथों में दम.
४.
मार हथौडा तोड़ो मूरत।
बदलेगी तब ही यह सूरत.

जिसे रहनुमा माना हमने
करी देश की उसने दुर्गत.

आरक्षित हैं कौए-बगुले
कोयल-राजहंस हैं रुखसत.

तिया सती पर हम रसिया हों
मन में है क्यों कुत्सित चाहत?

खो शहरों की चकाचौंध में
किया गाँव का बेडा गारत.

क्षणजीवी सुख मोह रहा है
रुचे न शाश्वत दिव्य विरासत.

चलभाषों का चलन अनूठा
'सलिल' न कासिद और नहीं ख़त.
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५.
सागर ऊंचा पर्वत गहरा
अँधा न्याय, प्रशासन बहरा.

खुली छूट आतंकवाद को
संत-आश्रमों पर है पहरा.

पौरुष निस्संतान मर रहा
वंश बढाता रक्षित महरा.

भ्रष्ट सियासत देश बेचती
राष्ट्रभक्ति का झंडा लहरा.

शक्ति पूजते, जला शक्ति को
सूखी नदियाँ,रोता सहरा।

राजमार्ग ने वन-गिरि निगले
घन विनाश का नभ में घहरा।

चुल्लू भर सागर में तूफां
सागर का जल ठहरा-ठहरा।

जनसेवक ने जनसेवा का '
सलिल' नहीं क्यों पढ़ा ककहरा?
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