आचार्य संजीव 'सलिल', सम्पादक दिव्या नर्मदासंजीवसलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
बंद झरोखा कर दिया
बंद झरोखा कर दिया, अब न सकेगी झाँक।
दूर रहेगी जिंदगी, सच न सकेगी आँक.
मन में मेरे क्या छिपा, पूछ रही आ द्वार।
खाली हाथों लौटती, प्रतिवेशिनी हर बार.
रहे अधूरे आज तक, उसके सब अरमान।
मन की थाह न पा सके, कोशिश कर नादान.
सुन उसकी पदचाप को, बंद कर लिए द्वार।
बैठी हूँ सुख-शान्ति से, उससे पाकर पार.
मुझे पता यदि ले लिया, मैंने उसको साथ।
ख़ुद जैसा लेगी बना, मुझे पकड़कर हाथ.
सुला रही है धारा पर, दिखा गगन का ख्वाब।
बता हसरतों को दिया, ओढे रहो नकाब.
बीच राह में छोड़ दे, करना मत विश्वास।
दे देगी दुःख-दर्द सब, जो हैं उसके खास.
भय न तनिक, रुचता नहीं, मुझको उसका संग।
देखूं खिड़की बंद कर, अमन-चैन के रंग.
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