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सोमवार, 18 दिसंबर 2023

अदम गौड़वी

सॉनेट 
अदम गौड़वी
*
ठाकुर थे न रुची ठकुराई 
देख गरीबी मन रोया था, 
तन सोया; मन कब सोया था, 
तजी निगोड़ी व्यर्थ पढ़ाई। 
ठकुरसुहाती नहीं सुहाई,
गज़लों में युग-सच बोया था,
कभी नहीं ईमां खोया था,
सत्ता की की खूब धुनाई। 
मिली गजल को जुबां अदम से,  
शेर-शेर आईन बन गया, 
कही नंगई लोक राज की। 
कड़वा सच लिख दिया कलम से, 
लाज बचाई लोक-लाज की। 
१८.१२.२०२३ 
***
भारतीयता 
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए
*
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए
राजनीति 
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे
स्त्री विमर्श 
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
*
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
*
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
*
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
गजल 
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
शब्द चित्र 
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
*
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
*
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
*
अदम गौड़वी
मूल नाम- रामनाथ सिंह
जन्म : २२ अक्तूबर १९४७, अट्टा ग्राम, परसपुर, गोंडा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु : १८ दिसंबर २०११, संजय गाँधी पोस्टग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेस, लखनऊ,
उत्तर प्रदेश 
कृतियाँ : धरती की सतह पर, समय से मुठभेड़, 
पुरस्कार : मध्य प्रदेश सरकार १९९८, दुष्यंत कुमार पुरस्कार, अवधी / हिंदी योगदान  हेतु शहीद शोभा संस्थान द्वारा माटी रतन सम्मान। 
*
रचनाएँ 
चुनिंदा अश'आर
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!
०१
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे

सुरा व सुंदरी के शौक़ में डूबे हुए रहबर
दिल्ली को रंगीलेशाह का हम्माम कर देंगे

ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे

सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
अगली योजना में घूसख़ोरी आम कर देंगे
०२
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे

तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे

एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे
०३
भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है
अहले हिन्दुस्तान अब तलवार के साये में है

छा गई है जेहन की परतों पर मायूसी की धूप
आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है

बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ
और कश्ती कागजी पतवार के साये में है

हम फ़कीरों की न पूछो मुतमईन वो भी नहीं
जो तुम्हारी गेसुए खमदार के साये में है
०४
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की ,संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.
०५
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है

लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
०६
काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें

चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया

शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया

ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया

यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया

'अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं'
इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया.

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए
१०
घर में ठन्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है

बगावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है

सुलगते ज़िस्म की गर्मी का फिर अहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है
११
विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्‍यास लिखा है
बूढ़े बरगद के वल्‍कल पर सदियों का इतिहास लिखा है

क्रूर नियति ने इसकी किस्‍मत से कैसा खिलवाड़ किया है
मन के पृष्‍ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है

छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्‍वप्निल स्‍मृतियों में सीता का वनवास लिखा है

नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्‍वास लिखा है

लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तनहाई के मरुथल में मधुमास लिखा है

अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्‍य पर विरहदग्‍ध उच्छ्‌वास लिखा है
***


अदम गोंडवी ने हिंदी में कविता लिखी, जो हाशिए की जातियों, दलितों, गरीब लोगों की दुर्दशा को उजागर करती है. उन्होंने हिंदी में कविता लिखी, जो हाशिए की जातियों, दलितों, गरीब लोगों की दुर्दशा को उजागर करती है। एक गरीब किसान परिवार में जन्मे, हालाँकि, उनके पास काफी कृषि योग्य भूमि थी। गोंडवी की कविता सामाजिक टिप्पणी के लिए जानी जाती थी, जो भ्रष्ट राजनेताओं और प्रकृति में क्रांतिकारी विचारों के प्रति घृणा करती थी। समाज के संचालन के लिए संवेदना ज़रूरी शर्त है। भौतिक प्रगति के साथ, हमने सबसे मूल्यवान जो चीज़ खोई है, वह है संवेदनशीलता। व्यवस्था से जोंक की तरह चिपके हुए लोग, आख़िर संवेदनहीन व्यवस्था के प्रति विद्रोह का रुख कैसे अख़्तियार करें? बहुत कम शायर हिंदी गज़ल साहित्य को संवेदना का स्वर देने की कोशिश करते हैं, जिनकी आवाज़ में जड़ व्यवस्था के प्रति विद्रोह का भाव है। उनकी कलम हमेशा आज़ाद रही  जिसने कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाया। एक ऐसा गज़लगो, जिसने ग़ज़ल की दुनिया में दुष्यंत के तेवर को बरकरार रखा। एक ऐसा रचनाकार, जिसकी रचनाएँ नारों में तब्दील हो गईं। 

श्रीमती मांडवी सिंह एवं श्री देवी कलि सिंह के सुपुत्र अदम का मूल नाम रामनाथ सिंह था। बचपन में वो बीमार रहते थे इस वजह से ज्यादा पढ़ नहीं पाए। वह एक वैद्य के पास 11 साल तक रहे जो कि फारसी के भी विद्वान थे। उन्होंने ही उन्हें 'अदम' नाम दिया क्योंकि वह वंचितों के लिए लड़ते थे। अदम खुद भी अपनी पहचान बदलना चाहते थे और वह ठाकुर रामनाथ सिंह से अदम गोंडवी हो गए। वह बहुत विद्वान थे। मैं उनके साथ भी रहा हूं।वह इतना पढ़ते थे कि देश के सभी विचारकों के अलावा उन्होंने दुनिया के हर विचारक सुकरात, मार्क्स, लेनिन हर किसी को पढ़ा। वह पढ़े-लिखे दृष्टिवान हिंदी कवि थे।एक छोटे से गाँव से निकलकर अदम ने हिंदी गज़लकों की दुनिया में अपना विशिष्ट स्थान बनाया और भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। एक ऐसा कवि जो बौद्धिक विलासिता से दूर किसान, गरीब, मज़दूर, दलित, शोषित और वंचित तबकों की बात करता है। एक ऐसा रचनाकार जिसकी रचनाओं में व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और आक्रोश भी है और अथाह पीड़ा भी। अदम ने कभी भी सत्ता की सरपरस्ती स्वीकार नहीं की। वे लगातार भारतीय समाज में विद्यमान जड़ताओं और राजनीतिक मौकापरस्ती पर प्रहार करते रहे। अदम एकदम खाँटी अंदाज़ में अपने समय और परिवेश के नग्न यथार्थ को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत करते हैं। ज़िंदगी की बेबसी को व्यक्त करते हुए अदम कहते हैं-

‛आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी।’

अदम महिलाओं पर हिंसा और बलात्कार की घटनाओं का बयान बड़ी बेबाकी से करते हैं-

‛चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया।’

अदम हमेशा बेबाकी से सधे हुए लहज़े में अपनी बात रखते हैं। अदम संविधान में किए गए प्रावधानों के बावजूद आधारभूत ज़रूरतों से वंचित वर्ग की स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं कि-

‛आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको।’

अदम गोंडवी हिंदी ग़ज़ल को शृंगार की परिधि से निकालकर आम जन के जीवन तक ले जाते हैं। ग्रामीण जीवन को एक विशेष पारदर्शी चश्मे से देखने वाले गोंडवी कहते हैं-

‛ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलक़श नज़ारों में
मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में।’

भुखमरी के दौर में आमजन की ग़रीबी का मज़ाक उड़ाने वाली शानो-शौक़त का सजीव चित्रण करते हुए गोंडवी कहते हैं कि-

‛काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।’

वे ग़रीब अवाम की भूख की बेबसी को बहुत स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करते हैं-

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।

गोंडवी राजनीति में विचारधाराओं के घालमेल को भी बखूबी चित्रित करते हुए कहते हैं कि-

‛पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।’

अदम भारतीय राजनीति में ब्रिटिश सत्ता के बचे हुए अवशेषों के आधार पर कहते हैं कि-

‛जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे।’

महंगाई पर तीक्ष्ण व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि-

‛ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे।’

आज की उथली राजनीति पर भी वो मौंजू व्यंग्य करते हैं-

‛एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे।’

अदम गोंडवी जनता को सिर्फ़ व्यवस्था की जकड़न में यथास्थिति में रहने की वकालत नहीं करते बल्कि बगावत का उद्घोष करते हुए कहते हैं-

‛जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवाश में।’

अदम गोंडवी स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय समाज में विद्यमान ऊँच-नीच, भेदभाव और सांप्रदायिकता की समस्या पर मुखर होकर कहते हैं-

‛हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्बात को मत छेड़िए।

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए।’

अदम गोंडवी आज की नौकरशाही में विद्यमान फीताशाही और पंचायती राज व्यवस्था की दुर्दशा का भी बखूबी बयान करते हैं-

‛जो उलझ कर रह गयी हैं फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में।’

गांधी के सपनों के भारत की तस्वीर को धूमिल होता देख अदम बोल पड़ते हैं-

‛देखना सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गए

कल तलक जो हाशिए पर भी न आते थे नज़र
आजकल बाज़ार में उनके कलेंडर आ गए।’

गांधीवाद को धूल धूसरित होता देख, अदम सपाट लहज़े में कहते हैं-

‛वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है।

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का,
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।’

नई पीढ़ी के वर्तमान और भविष्य को लेकर चिंतित अदम पीड़ा के स्वर में बोल पड़ते हैं-

‛आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की।

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की।’

अदम गोंडवी सामाजिक दुर्दशा को देखते हुए झूठ लिखना स्वीकार नहीं करते हैं। वे कहते हैं-

‛घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।’

आदम कविताओं में व्यक्त किए गए भाव का कारण भी बताते हैं-

‛याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की।’

आलोचकों का मानना है कि अदम को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह काबिल थे। अदम सत्ता के किसी पद्म सम्मान की परवाह किए बगैर सदैव भारत के आम आवाम की आवाज़ बनते रहे। सत्ता प्रतिष्ठानों और समाज की व्यवस्था को चुनौती देने वाले अदम की रचनाएँ नारों के रूप में तब्दील उनकी रचनाएँ, भारत के अलग-अलग हिस्सों में आज भी गूँजती रहती हैं।

हरेराम 'समीप'- अदम एक ऐसे अदम्य कवि थे, जिन्होंने अन्याय और शोषण के खिलाफ निडर होकर आवाज उठाई। 'अदम' का मतलब है वंचित। यह नाम उन्हें उनके गुरु ने दिया था। बचपन से ही वह क्रांतिकारी थे। उनका एक ही विषय था सामाजिक न्याय । अन्याय के खिलाफ उनके अंदर विद्रोह की आग भरी हुई थी। मनुष्यता का अपमान उन्हें बर्दाश्त नहीं था। वो उत्तर प्रदेश गोंडा से एक ठाकुर परिवार से थे और गरीबों, दलितों, वंचितों पर अत्याचार के खिलाफ उन्होंने अपने ही समुदाय के लोगों का विरोध किया। वहां से लड़ते-लड़ते समाज की लड़ाई और फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की स्थिति पर उन्होंने लड़ाई लड़ी। अन्याय, अपमान, अत्याचार, इन तीन शब्द पर ही उनकी लड़ाई का आधार और विस्तार रहा।

विश्वनाथ त्रिपाठी- ग़ज़ल का रूप विधा संभाल पाना बड़ा मुश्किल काम है। अदम गोंडवी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह हिंदी के कवि थे मगर उन्होंने उर्दू की ग़ज़ल का अनुशासन उसी तरह संभाला है, जिस तरह एक उर्दू का कवि संभालता है। हिंदी का होते हुए ही भी वह उर्दू कवियों जैसी ग़ज़ल करते थे। दूसरा, उन्होंने किसानों, मजदूरों के जीवन पर और शोषितों, वंचितों के दुख और विसंगतियों पर खूब कविताएं लिखीं और इसके लिए उन्होंने अपनी भाषा रची, मुहावरे रचे, अपने बिम्ब रचे। सामंती व्यवस्था, समाज के पाखंड पर उन्होंने सटीक और चुभती हुई कविताएं लिखी हैं।

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