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सोमवार, 4 दिसंबर 2023

कहमुकरी, गृह प्रवेश, सरस्वती, पूर्णिमा निगम, मुक्तक गीत, मधु प्रमोद, समीक्षा

कहमुकरी
वस्त्र सफेद पहनतीं हरदम
नयनों में ममता होती नम
अधरों पर मुस्कान सजाएँ
माँ? नहिं शारद;
आ! गुण गाएँ
रहे प्रतीक्षा इसकी सबको
कौन न चाहे कहिए इसको?
इस पर आए सबको प्यार
सखि! दिलदार?,
नहिं रविवार
काया छोटी; अर्थ बड़े
लगता रच दें खड़े-खड़े
मोह न छूटे जैसे नग का
वैसे नथ का?;
ना सखि! क्षणिका
बिंदु बिंदु संसार बना दे
रेखा खींचे भाव नया दे
हो अंदाज न उसकी मति का
सखी! शिक्षिका?,
नहीं अस्मिता
साथ बहारें उसके आएँ
मन करता है गीत सुनाएँ
साथ उसी के समय बिताएँ
प्यारी! कंत?,
नहीं बसंत
कभी न रीते उसका कोष
कोई न देता उसको दोष
रहता दूर हमेशा रोष
भैया! होश?,
ना संतोष
समझ न आए उसकी माया
पीछा कोई छुड़ा न पाया
संग-साथ उसका मन भाया
मीता! काया?,
ना रे! छाया
कभी न करती मिली रंज री!
रहती मौन न करे तंज री!
एक बचाकर कई बनाए
सखी! अंजुरी?,
नहीं मंजुरी
४-१२-२०२२
***
वास्तु विमर्श
गृह प्रवेश
मनुष्य के लिये अपना घर होना किसी सपने से कम नहीं होता। अपना घर यानि की उसकी अपनी एक छोटी सी दुनिया, जिसमें वह तरह-तरह के सपने सजाता है। पहली बार अपने घर में प्रवेश करने की खुशी कितनी होती है इसे सब समझ सकते हैं; अनुभव कर सकते हैं लेकिन बता नहीं सकते। यदि आप धार्मिक हैं, शुभ-अशुभ में विश्वास रखते हैं तो गृह प्रवेश से पहले पूजा अवश्य करवायें।
गृह प्रवेश के प्रकार
१. अपूर्व गृह प्रवेश – नवनिर्मित घर में पहली बार प्रवेश।
२. सपूर्व गृह प्रवेश – जब किसी कारण से व्यक्ति अपने परिवार सहित प्रवास पर हो, अपने घर को कुछ समय के लिये खाली छोड़ देते तथा दुबारा रहने के लिये आए।
३. द्वान्धव गृह प्रवेश – जब किसी परेशानी या किसी आपदा के चलते घर को छोड़ना पड़े और कुछ समय पश्चात दोबारा उस घर में प्रवेश करें तो वह द्वान्धव गृह प्रवेश कहलाता है।
४. अस्थाई गृह प्रवेश - किराए के माकन आदि में प्रवेश।
इन सभी स्थितियों में गृह प्रवेश पूजा का विधान आवश्यक है ताकि कि इससे घर में सुख-शांति बनी रहती है।
गृह प्रवेश की पूजा विधि
गृह प्रवेश के लिये शुभ दिन-तिथि-वार-नक्षत्र देख लें। किसी जानकार की सहायता लें, जो विधिपूर्वक पूजा करा सके अथवा स्वयं जानकारी लेकर यथोचित सामग्री एकत्रित कर पूजन करें। आपातस्थिति में कुछ भी न जुटा सकें तो विघ्न विनाशक श्री गणेश जी, जगत्पिता शिव जी, जगज्जननि दुर्गा जी, वास्तु देव तथा कुलदेव को दीप जलाकर श्रद्धा सहित प्रणाम कर ग्रह प्रवेश करें। पितृपक्ष तथा सावन माह में गृह प्रवेश न करें।
समय
माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ माह गृह प्रवेश हेतु शुभ हैं। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, पौष ग्रह प्रवेश हेतु शुभ नहीं हैं। सामान्यत: मंगलवार शनिवार व रविवार के दिन गृह प्रवेश वर्जित है। सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शुक्लपक्ष की द्वितीय, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी व त्रयोदशी गृहप्रवेश के लिये बहुत शुभ मानी जाती हैं।
गृह प्रवेश विधि
पूजन सामग्री- कलश, नारियल, शुद्ध जल, कुमकुम, चावल, अबीर, गुलाल, धूपबत्ती, पांच शुभ मांगलिक वस्तुएं, आम या अशोक के पत्ते, पीली हल्दी, गुड़, चावल, दूध आदि।
गृह के मुख्य द्वार पर आम्र पर्ण का बंदनवार बाँधकर रांगोली, अल्पना या चौक से सजाएँ। पूजा विधि संपन्न होने के बाद मंगल कलश के साथ सूर्य की रोशनी में नए घर में प्रवेश करना चाहिए।
घर को बंदनवार, रंगोली, फूलों से सजाकर; कलश में शुद्ध जल भरकर उसमें आम या अशोक के आठ पत्तों के बीच श्रीफल (नारियल) रखें। कलश व नारियल पर कुमकुम से स्वस्तिक का चिन्ह बनाएँ। गृह स्वामी और गृह स्वामिनी पाँच मांगलिक वस्तुएँ श्रीफल, पीली हल्दी, गुड़, अक्षत (चावल) व पय (दूध), विघ्नेश गणेश की मूर्ति, दक्षिणावर्ती शंख तथा श्री यंत्र लेकर मंगलकारी गीत गायन, शंख वादन आदि के साथ पुरुष पहले दाहिना पैर तथा स्त्री बाँया पैर रखकर नए घर में प्रवेश करें। इसके पूर्व पीतल या मिट्टी के कलश में जल भरकर द्वार पर कर आम के पाँच पत्ते लगाएँ, सिंदूर से स्वास्तिक बनाएँ। गृह स्वामिनी गणेश जी का स्मरण करते हुए ईशान कोण में जल से भरा कलश रखे। गृह स्वामी नारियल, पीली हल्दी, गुड़, चावल हाथ में ले, ग्रह स्वामिनी इन्हें साड़ी के पल्ले में रखें।
श्री गणेश का ध्यान करते हुए गणेश जी के मंत्र वाचन कर घर के ईशान कोण या पूजा घर में कलश की स्थापना करें। ततपश्चात भोजनालय में भी पूजा करें। चूल्हे, पानी रखने का स्थान, भंडार, आदि में स्वस्तिक बनाकर धूप, दीपक के साथ कुमकुम, हल्दी, चावल आदि से पूजन करें। भोजनालय में पहले दिन गुड़ व हरी सब्जियाँ रखना शुभ है। चूल्हे को जलाकर सबसे पहले उस पर दूध उफानना चाहिये, मिष्ठान बनाकर उसका भोग लगाना चाहिये। घर में बने भोजन से सबसे पहले भगवान को भोग लगायें। गौ माता, कौआ, कुत्ता, चींटी आदि के निमित्त भोजन निकाल कर रखें। इसके बाद सदाचारी विद्वानों व गरीब भूखे को भोजन कराएँ। ऐसा करने से घर में सुख, शांति व समृद्धि आती है व हर प्रकार के दोष दूर हो जाते हैं।
पूजन
षट्कर्म, तिलक, रक्षासूत्रबन्धन, भूमि पूजन, कलश पूजन, दीप पूजन, देव आह्वान, सर्व देव प्रणाम,. स्वस्तिवाचन, रक्षाविधान पश्चात् पूजा देवी पर वास्तु पुरुष का आह्वान-पूजन करें।
ॐ वास्तोष्पत्ते प्रतिजानीहि अस्मान् स्ववेशो अनमीवो भवा न:।
यत्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व, शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।। (ऋग्वेद ७.५.४.१)
ॐ भूर्भुव: स्व: वास्तुपुरुषाय नम:। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
गन्धाक्षतं पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि। ततो नमस्कारं करोमि।
ॐ विशंतु भूतले नागा: लोकपालश्च सर्वत:।
मंडलेs त्रावतिष्ठंतु ह्यायुर्बलकरा: सदा।।
वास्तुपुरुष देवेश! सर्वविघ्न विदारण।
शन्ति कुरुं; सुखं देहि, यज्ञेsस्मिन्मम सर्वदा।।
यज्ञ : अग्निस्थापन, प्रदीपन, अग्निपूजन आदि कर २४ बार गायत्री मंत्र की आहुति दें। खीर, मिष्ठान्न, गौ-घृत से ५ आहुति स्थान देवता, वास्तुदेवता, कुलदेवता, राष्ट्र देवता तथा सर्व देवताओं को दें।
पूर्णाहुति, वसोर्धारा, आरती, प्रसाद वितरण आदि कर अनुष्ठान पूर्ण करें।
४.१२.२०२१
***
सरस्वती वंदना
*
तेरी वीणा का बन जाऊँ तार, ऐसा दे मुझको माँ वरदान।
जय माँ सरस्वती
विद्या-बुद्धि की तुम ही हो दाता, तुम्हीं सुर की देवी हो माता।
मैं भी जानूँ सुरों का सार, ऐसा दे मुझको माँ वरदान
आए चरणों में जो भी तुम्हारे, दूर अग्यान हों उसके सारे।
मन का मिट जाए सब अंधकार, ऐसा दे मुझको माँ वरदान
तब बहा ग्यान की ऐसी धारा, भेद मिट जाए मन का सारा।
प्रेम ज्योति जले द्वार-द्वार, ऐसा दे मुझको माँ वरदान
***
पल-पल प्रीत पली - महकी काव्य कली
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण - पल-पल प्रीत पली, काव्य संकलन, मधु प्रमोद, प्रथम संस्करण, २०१८, आईएसबीएन ९७८-८१-९३५५०१-३-७, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ११२, मूल्य २००रु., प्रकाशक उषा पब्लिकेशंस, मीणा की गली अलवर ३०१००१, दूरभाष ०१४४ २३३७३२८, चलभाष ९४१४८९३१२०, ईमेल mpalawat24@gmail.com ]
*
मानव और अन्य प्राणियों में मुख्य अंतर सूक्षम अनुभूतियों को ग्रहण करना, अनुभूत की अनुभूति कर इस तरह अभिव्यक्त कर सकना कि अन्य जान सम-वेदना अनुभव करें, का ही है। सकल मानवीय विकास इसी धुरी पर केंद्रित रहा है। विविध भूभागों की प्रकृति और अपरिवेश के अनुकूल मानव ने प्रकृति से ध्वनि ग्रहण कर अपने कंठ से उच्चारने की कला विकसित की। फलत: वह अनुभूत को अभिव्यक्त और अभिव्यक्त को ग्रहण कर सका। इसका माध्यम बनी विविध बोलिया जो परिष्कृत होकर भाषाएँ बनीं। अभिव्यक्ति के अन्य माध्यम अंग चेष्टाएँ, भाव मुद्राएँ आदि से नाट्य व नृत्य का विकास हुआ जबकि बिंदु और रेखा से चित्रकला विकसित हुई। वाचिक अभिव्यक्ति गद्य व पद्य के रूप में सामने आई। विवेच्य कृति पद्य विधा में रची गयी है।
मरुभूमि की शान गुलाबी नगरी जयपुर निवासी कवयित्री मधु प्रमोद रचित १० काव्य कृतियाँ इसके पूर्व प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाश कुसुम, दूर तुमसे रहकर, मन का आनंद, अकुल-व्याकुल मन, रू-ब-रू जो कह न पाए, भजन सरिता, भक्ति सरोवर पुजारन प्रभु के दर की, पट खोल जरा घट के के बाद पल-पल प्रीत पली की ९५ काव्य रचनाओं में गीत व हिंदी ग़ज़ल शिल्प की काव्य रचनाएँ हैं। मधु जी के काव्य में शिल्प पर कथ्य को वरीयता मिली है। यह सही है कि कथ्य को कहने के लिए लिए ही रचना की जाती है किन्तु यह भी उतना ही सही है कि शिल्पगत बारीकियाँ कथ्य को प्रभावी बनाती हैं।
ग़ज़ल मूलत: अरबी-फारसी भाषाओँ से आई काव्य विधा है। संस्कृत साहित्य के द्विपदिक श्लोकों में उच्चार आधारित लचीली साम्यता को ग़ज़ल में तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) के रूप में रूढ़ कर दिया गया है। उर्दू ग़ज़ल वाचिक काव्य परंपरा से उद्भूत है इसलिए भारतीय लोककाव्य की तरह गायन में लय बनाये रखने के लिए गुरु को लघु और लघु उच्चारित करने की छूट ली गयी है। हिंदी ग़ज़ल वैशिष्ट्य उसे हिंदी व्याकरण पिंगल के अनुसार लिखा जाना है। हिंदी छंद शास्त्र में छंद के मुख्य दो प्रकर मातृ और वार्णिक हैं। अत, हिंदी ग़ज़ल इन्हीं में से किसी एक पर लिखी जाती है जबकि फ़ारसी ग़ज़ल के आधार पर भारतीय भाषाओँ के शब्द भंडार को लेकर उर्दू ग़ज़ल निर्धारित लयखण्डों (बह्रों) पर आधारित होती हैं। मधु जी की ग़ज़लनुमा रचनाएँ हिंदी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल की रीती-निति से सर्वथा अलग अपनी राह आप बनाती हैं। इनमें पंक्तियों का पदभार समान नहीं है, यति भी भिन्न-भिन्न हैं, केवक तुकांतता को साधा गया है।
इन रचनाओं की भाषा आम लोगों द्वारा दैनंदिन जीवन में बोली जानेवाली भाषा है। यह मधु जी की ताकत और कमजोरी दोनों है। ताकत इसलिए कि इसे आम पाठक को समझने में आसानी होती है, कमजोरी इसलिए कि इससे रचनाकार की स्वतंत्र शैली या पहचान नहीं बनती। मधु जी बहुधा प्रसाद गुण संपन्न भाषा और अमिधा में अपनी बात कहती है। लक्षणा या व्यजना का प्रयोग अपेक्षाकृत कम है। उनकी ग़ज़लें जहाँ गीत के निकट होती हैं, अधिक प्रभाव छोड़ती हैं -
मन मुझसे बातें करता है, मैं मन से बतियाती हूँ।
रो-रोकर, हँस-हँसकर जीवन मैं सहज कर पाती हूँ।
पीले पत्ते टूटे सारे, देखो हर एक डाल के
वृद्ध हैं सारे बैठे हुए नीचे उस तिरपाल के
मधु जी के गीत अपेक्षाकृत अधिक भाव प्रवण हैं-
मैंने हँसना सीख लिया है, जग की झूठी बातों पर
सहलाये भूड़ घाव ह्रदय के रातों के सन्नाटों पर
विश्वासों से झोली भरकर आस का दीप जलाने दो
मुझको दो आवाज़ जरा तुम, पास तो मुझको आने दो
किसी रचनाकार की दसवीं कृति में उससे परिपक्वता की आशा करना बेमानी नाहने है किन्तु इस कृति की रचनाओं को तराशे जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। गीति रचनाओं में लयबद्धता, मधुरता, सरसता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता आदि होना उन्हें स्मरणीय बनाता है। इस संकलन की रचनाएँ या आभास देती हैं कि रचनाकार को उचित मार्गदर्शन मिले तो वे सफल और सशक्त गीतकार बन सकती हैं।
*
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, विश्व वाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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कृति चर्चा :
गीत स्पर्श : दर्द के दरिया में नहाये गीत
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[कृति विवरण: गीत स्पर्श, गीत संकलन, डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’, प्रथम संस्करण २००७, आकार २१.से.मी. x १३.से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२२, मूल्य १५० रु., निगम प्रकाशन २१० मढ़ाताल जबलपुर। ]
*
साहित्य संवेदनाओं की सदानीरा सलिला है। संवेदनाविहीन लेखन गणित की तरह शुष्क और नीरस विज्ञा तो हो सकता है, सरस साहित्य नहीं। साहित्य का एक निकष ‘सर्व हिताय’ होना है। ‘सर्व’ और ‘स्व’ का संबंध सनातन है। ‘स्व’ के बिना ‘सर्व’ या ‘सर्व’ के बिना ‘स्व’ की कल्पना भी संभव नहीं। सामान्यत: मानव सुख का एकांतिक भोग करना चाहता है जबकि दुःख में सहभागिता चाहता है।इसका अपवाद साहित्यिक मनीषी होते हैं जो दुःख की पीड़ा को सहेज कर शब्दों में ढाल कर भविष्य के लिए रचनाओं की थाती छोड़ जाते हैं। गीत सपर्श एक ऐसी ही थाती है कोकिलकंठी शायरा पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ की जिसे पूनम-पुत्र शायर संजय बादल ने अपनी माता के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित किया है। आज के भौतिकवादी भोगप्रधान कला में दिवंगता जननी के भाव सुमनों को सरस्वती के श्री चरणों में चढ़ाने का यह उद्यम श्लाघ्य है।
गीत स्पर्श की सृजनहार मूलत: शायरा रही है। वह कैशोर्य से विद्रोहणी, आत्मविश्वासी और चुनौतियों से जूझनेवाली रही है। ज़िंदगी ने उसकी कड़ी से कड़ी परीक्षा ली किन्तु उसने हार नहीं मानी और प्राण-प्राण से जूझती रही। उसने जीवन साथी के साथ मधुर सपने देखते समय, जीवन साथी की ज़िंदगी के लिए जूझते समय, जीवनसाथी के बिछुड़ने के बाद, बच्चों को सहेजते समय और बच्चों के पैरों पर खड़ा होते ही असमय विदा होने तक कभी सहस और कलम का साथ नहीं छोड़ा। कुसुम कली सी कोमल काया में वज्र सा कठोर संकल्प लिए उसने अपनों की उपेक्षा, स्वजनों की गृद्ध दृष्टि, समय के कशाघात को दिवंगत जीवनसाथी की स्मृतियों और नौनिहालों के प्रति ममता के सहारे न केवल झेला अपितु अपने पौरुष और सामर्थ्य का लोहा मनवाया।
गीत स्पर्श के कुछ गीत मुझे पूर्णिमा जी से सुनने का सुअवसर मिला है। वह गीतों को न पढ़ती थीं, न गाती थीं, वे गीतों को जीती थीं, उन पलों में डूब जाती थीं जो फिर नहीं मिलनेवाले थे पर गीतों के शब्दों में वे उन पलों को बार-बार जी पाती थी। उनमें कातरता नहीं किन्तु तरलता पर्याप्त थी। इन गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, पीरा की, एकाकीपन की असंख्य अश्रुधाराएँ समाहित हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी है। इनमें अगणित सपने हैं। इनमें शब्द नहीं भाव हैं, रस है, लय है। रचनाकार प्राय: पुस्तकाकार देते समय रचनाओं में अंतिम रूप से नोक-फलक दुरुस्त करते हैं। क्रूर नियति ने पूनम को वह समय ही नहीं दिया। ये गीत दैनन्दिनी में प्रथमत: जैसे लिखे गए, संभवत: उसी रूप में प्रकाशित हैं क्योंकि पूनम के महाप्रस्थान के बाद उसकी विरासत बच्चों के लिए श्रद्धा की नर्मदा हो गई हिअ जिसमें अवगण किया जा सकता किन्तु जल को बदला नहीं जा सकता। इस कारण कहीं-कहीं यत्किंचित शिल्पगत कमी की प्रतीति के साथ मूल भाव के रसानंद की अनुभूति पाठक को मुग्ध कर पाती है। इन गीतों में किसी प्रकार की बनावट नहीं है।
पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ‘ओवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टेल ऑफ़ सेडेस्ट थॉट’। शैलेन्द्र के शब्दों में- ‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’। पूनम का दर्द के साथ ताज़िंदगी बहुत गहरा नाता रहा -
भीतर-भीतर रट रहना, बहार हंसकर गीत सुनाना
ऐसा दोहरा जीवन जीना कितना बेमानी लगता है?
लेकिन इसी बेमानीपन में ज़िंदगी के मायने तलाशे उसने -
अब यादों के आसमान में, बना रही अपना मकान मैं
न कहते-कहते भी दिल पर लगी चोट की तीस आह बनकर सामने आ गयी -
जान किसने मुझे पुकारा, लेकर पूनम नाम
दिन काटे हैं मावस जैसे, दुःख झेले अविराम
जीवन का अधूरापन पूनम को तोड़ नहीं पाया, उसने बच्चों को जुड़ने और जोड़ने की विरासत सौंप ही दी -
जैसी भी है आज सामने, यही एक सच्चाई
पूरी होने के पहले ही टूट गयी चौपाई
अब दीप जले या परवाना वो पहले से हालात नहीं
पूनम को भली-भाँति मालूम था कि सिद्धि के लिए तपना भी पड़ता है -
तप के दरवाज़े पर आकर, सिद्धि शीश झुकाती है
इसीलिए तो मूर्ति जगत में, प्राण प्रतिष्ठा पाती है
दुनिया के छल-छलावों से पूनम आहात तो हुई पर टूटी नहीं। उसने छलियों से भी सवाल किये-
मैंने जीवन होम कर दिया / प्रेम की खातिर तब कहते हो
बदनामी है प्रेम का बंधन / कुछ तो सोची अब कहते हो।
लेकिन कहनेवाले अपनी मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रख सके -
रिश्ते के कच्चे धागों की / सब मर्यादाएँ टूट गयीं
फलत:,
नींद हमें आती नहीं है / काँटे सा लगता बिस्तर
जीवन एक जाल रेशमी / हम हैं उसमें फँसे हुए
नेक राह पकड़ी थी मैंने / किन्तु जमाना नेक नहीं
'बदनाम गली' इस संग्रह की अनूठी रचना है। इसे पढ़ते समय गुरु दत्त की प्यासा और 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है' याद आती है। कुछ पंक्तियाँ देखें-
रिश्ता है इस गली से भाई तख्तो-ताज का / वैसे ही जैसे रिश्ता हो चिड़ियों से बाज का
जिनकी हो जेब गर्म वो सरकार हैं यहाँ / सज्जन चरित्रवान नोचते हैं बोटियाँ
वो हाथ में गजरा लपेटे आ रहे हैं जो / कपड़े की तीन मिलों को चला रहे हैं वो
रेखा उलाँघती यहाँ सीता की बेटियाँ / सलमा खड़ी यहाँ पे कमाती है रोटियाँ
इनको भी माता-बहनों सा सत्कार चाहिए / इनको भी प्रजातन्त्र के अधिकार चाहिए
अपने दर्द में भी औरों की फ़िक्र करने का माद्दा कितनों में होता है। पूनम शेरदिल थी, उसमें था यह माद्दा। मिलन और विरह दोनों स्मृतियाँ उसको ताकत देती थीं -
तेरी यादे तड़पाती हैं, और हमें हैं तरसातीं
हुई है हालत मेरी ऐसी जैसे मेंढक बरसाती
आदर्श को जलते देख रही / बच्चों को छलते देख रही
मधुर मिलान के स्वप्न सुनहरे / टूट गए मोती मानिंद
अब उनकी बोझिल यादें हैं / हल्के-फुल्के लम्हात नहीं
ये यादें हमेशा बोझिल नहीं कभी-कभी खुशनुमा भी होती हैं -
एक तहजीब बदन की होती है सुनो / उसको पावन ऋचाओं सा पढ़कर गुनो
तन की पुस्तक के पृष्ठ भी खोले नहीं / रात भर एक-दूसरे से बोले नहीं
याद करें राजेंद्र यादव का उपन्यास 'सारा आकाश'।
एक दूजे में मन यूँ समाहित हुआ / झूठे अर्पण की हमको जरूरत नहीं
जीवन के विविध प्रसगों को कम से कम शब्दों में बयां करने की कला कोई पूनम से सीखे।
उठो! साथ दो, हाथ में हाथ दो, चाँदनी की तरह जगमगाऊँगी मैं
बिन ही भाँवर कुँवारी सुहागन हुई, गीत को अपनी चूनर बनाऊँगी मैं
देह की देहरी धन्य हो जाएगी / तुम अधर से अधर भर मिलाते रहो
लाल हरे नीले पिले सब रंग प्यार में घोलकर / मन के द्वारे बन्दनवारे बाँधे मैंने हँस-हँसकर
आँख की रूप पर मेहरबानी हुई / प्यार की आज मैं राजधानी हुई
राग सीने में है, राग होंठों पे है / ये बदन ही मेरा बाँसुरी हो गया
साँस-साँस होगी चंदन वन / बाँहों में जब होंगे साजन
गीत-यात्री पूनम, जीवन भर अपने प्रिय को जीती रही और पलक झपकते ही महामिलन के लिए प्रस्थान कर गयी -
पल भर की पहचान / उम्र भर की पीड़ा का दान बन गई
सुख से अधिक यंत्रणा / मिलती है अंतर के महामिलन में
अनूठी कहन, मौलिक चिंतन, लयबद्ध गीत-ग़ज़ल, गुनगुनाते-गुनगुनाते बाँसुरी सामर्थ्य रखनेवाली पूनम जैसी शख्सियत जाकर भी नहीं जाती। वह जिन्दा रहती है क़यामत मुरीदों, चाहनेवालों, कद्रदानों के दिल में। पूनम का गीत स्पर्श जब-जब हाथों में आएगा तब- तब पूनम के कलाम के साथ-साथ पूनम की यादों को ताज़ा कर जाएगा। गीतों में अपने मखमली स्पर्श से नए- नए भरने में समर्थ पूनम फिर-फिर आएगी हिंदी के माथे पर नयी बिंदी लिए।हम पहचान तो नहीं सकते पर वह है यहीं कहीं, हमारे बिलकुल निकट नयी काया में। उसके जीवट के आगे समय को भी नतमस्तक होना ही होगा।
३-१२-२०१९
***
मुक्तक सलिला
*
प्रात मात शारदा सुरों से मुझे धन्य कर।
शीश पर विलंब बिन धरो अनन्य दिव्य कर।।
विरंचि से कहें न चित्रगुप्त गुप्त चित्र हो।
नर्मदा का दर्श हो, विमल सलिल सबल मकर।।
*
मलिन बुद्धि अब अमल विमल हो श्री राधे।
नर-नारी सद्भाव प्रबल हो श्री राधे।।
अपराधी मन शांत निबल हो श्री राधे।
सज्जन उन्नत शांत अचल हो श्री राधे।।
*
जागिए मत हे प्रदूषण, शुद्ध रहने दें हवा।
शांत रहिए शोरगुल, हो मौन बहने दें हवा।।
मत जगें अपराधकर्ता, कुंभकर्णी नींद लें-
जी सके सज्जन चिकित्सक या वकीलों के बिना।।
*
विश्व में दिव्यांग जो उनके सहायक हों सदा।
एक दिन देकर नहीं बनिए विधायक, तज अदा।
सहज बढ़ने दें हमें, चढ़ सकेंगे हम सीढ़ियाँ-
पा सकेंगे लक्ष्य चाहे भाग्य में हो ना बदा।।
२-१२-२०१९
*
***
मुक्तक
.
संवेदना की सघनता वरदान है, अभिशाप भी.
अनुभूति की अभिव्यक्ति है, चीत्कार भी, आलाप भी.
निष्काम हो या काम, कारित कर्म केवल कर्म है-
पुण्य होता आज जो, होता वही कल पाप है.
छंद- हरिगीतिका
४-१२-२०१७
***
आव्हान
.
जीवन-पुस्तक बाँचकर,
चल कविता के गाँव.
गौरैया स्वागत करे,
बरगद देगा छाँव.
.
कोयल दे माधुर्य-लय,
देगी पीर जमीन.
काग घटाता मलिनता,
श्रमिक-कृषक क्यों दीन?
.
सोच बदल दे हवा, दे
अरुणचूर सी बाँग.
बीना बात मत तोड़ना,
रे! कूकुर ली टाँग.
.
सभ्य जानवर को करें,
मनुज जंगली तंग.
खून निबल का चूसते,
सबल महा मति मंद.
.
देख-परख कवि सत्य कह,
बन कबीर-रैदास.
मिटा न पाए, न्यून कर
पीडित का संत्रास.
.
श्वान भौंकता, जगाता,
बिना स्वार्थ लख चोर.
तू तो कवि है, मौन क्यों?
लिख-गा उषा अँजोर.
३-१२-२०१७
***
गीत
*
आकर भी तुम आ न सके हो
पाकर भी हम पा न सके हैं
जाकर भी तुम जा न सके हो
करें न शिकवा, हो न शिकायत
*
यही समय की बलिहारी है
घटनाओं की अय्यारी है
हिल-मिलकर हिल-मिल न सके तो
किसे दोष दे, करें बगावत
*
अपने-सपने आते-जाते
नपने खपने साथ निभाते
तपने की बारी आई तो
साये भी कर रहे अदावत
*
जो जैसा है स्वीकारो मन
गीत-छंद नव आकारो मन
लेना-देना रहे बराबर
इतनी ही है मात्र सलाहत
*
हर पल, हर विचार का स्वागत
भुज भेंटो जो दर पर आगत
जो न मिला उसका रोना क्यों?
कुछ पाया है यही गनीमत
३-१२-२०१६
***
स्वागत गीत:
नवगीत महोत्सव २०१४
*
शुभ नवगीत महोत्सव, आओ!
शब्दब्रम्ह-हरि आराधन हो
सत-शिव-सुंदर का वाचन हो
कालिंदी-गोमती मिलाओ
नेह नर्मदा नवल बहाओ
'मावस को पूर्णिमा बनाओ
शब्दचित्र-अंकन-गायन हो
सत-चित-आनंद पारायण हो
निर्मल व्योम ओम मुस्काओ
पंकज रमण विवेक जगाओ
संजीवित अवनीश सजाओ
रस, लय, भाव, कथ्य शुचि स्वागत
पवन रवीन्द्र आस्तिक आगत
श्रुति सौरभ पंकज बिखराओ
हो श्रीकांत निनाद गुँजाओ
रोहित ब्रज- ब्रजेश दिखलाओ
भाषा में कुछ टटकापन हो
रंगों में कुछ चटकापन हो
सीमा अमित सुवर्णा शोभित
सिंह धनंजय वीनस रोहित
हो प्रवीण मन-राम रमाओ
लख नऊ दृष्टि हुई पौबारा
लखनऊ में गूँजे जयकारा
वाग्नेर-संध्या हर्षाओ
हँस वृजेन्द्र सौम्या नभ-छाओ
रसादित्य जगदीश बसाओ
नऊ = नौ = नव
१०-११-२०१४
- १२६/७ आयकर कॉलोनी
विनायकपुर, कानपुर
समयाभाव के कारण पढ़ा नहीं गया
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मुक्तक:
दे रहे हो तो सारे गम दे दो
चाह इतनी है आँखें नम दे दो
होंठ हँसते रहें हमेशा ही
लो उजाले, दो मुझे तम दे दो
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(पूज्य मौसाजी श्री प्रमोद सक्सेना तथा मौसीजी श्रीमती कमलेश सक्सेना के प्रति)
शीश धर पैर में मैं नमन कर सकूँ
पीर मुझको मिले, शूल मुझको मिलें
धूल चरणों की मैं माथ पर धर सकूँ
ऐसी किस्मत नहीं, भाग्य ऐसा नहीं
रह सकूँ साथ में आपके मैं सदा-
दूर हूँ पर न दिल से कभी दूर हूँ
प्रार्थना देव से पीर कुछ हर सकूँ
३-१२-२०१५
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गीत:
चलो चलें
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चलो चलें अब और कहीं
हम चलो चलें.....
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शहरी कोलाहल में दम घुटता हरदम.
जंगल कांक्रीट का लहराता परचम..
अगल-बगलवाले भी यहाँ अजनबी हैं-
घुटती रहती साँस न आता दम में दम..
ढाई इंच मुस्कान तजें,
क्यों और छलें?....
*
रहें, बाँहें, चाहें दूर न रह पायें.
मिटा दूरियाँ अधर-अधर से मिल गायें..
गाल गुलाबी, नयन शराबी मन मोहें-
मन कान्हा, तन गोपी रास रचा पायें..
आँखों में सतरंगी सपने,
पल न ढलें.....
*
चल मेले में चाट खाएँ, चटखारे लें,
पेंग भरें झूला चढ़ आसमान छू लें..
पनघट की पगडंडी पर खलिहान चले-
अमराई में शुक-मैना सब जग भूलें..
मिलन न आये रास जिन्हें
वे 'सलिल' जलें.....
४-१२-२०१०
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