ब्रज-ग़ज़ल
तुम तौ खाओ दूध - मलाई जी भरिकै
हमकों खाय रई महँगाई जी भरिकै
कल कूँ सिगरे सिंथेटिक ही पीओगे
गैया काटें रोज कसाई जी भरिकै
नेता - अफसर लूटि रए हैं जनता कूँ
चोर-चोर मौसेरे भाई, जी भरिकै
होय न सत्यानास जब तलक भारत कौ
हिन्दू-मुस्लिम करौ लड़ाई जी भरिकै
जे छिछोरगर्दी तुमकूँ लै ही डूबी
चौराहे पै भई पिटाई जी भरिकै
वो आरक्षन पायकेँ अफसर बनि बैठे
'अंजुम' तुमनें करी पढ़ाई जी भरिकै
ब्रज-सॉनेट
जी भरि कै
*
सौ चूहे खा हज कों जाओ जी भरिकै
जी भरिकै वादे करिकै सत्ता पाओ
जुमला कहिकै सारे वादे तुरत भुलाओ
२.१२.२०२३
***
एक पद
*
मैया! मोहे मन की बात न भाए।
मनमानी कर रई रे सत्ता, अंधभक्त गुर्राए।।
नोट बंद कर बरसों जोड़ी रकम धुआँ करवाए।
काला धन सुरसा मूँ घाईं, पल पल बढ़ता जाए।।
बैर बढ़ा रओ परोसियन से, नन्नो सोइ गुर्राए।
ताकतवर खों आँख दिखा के, अपनी जमीं गँवाए।।
सेना करे पराक्रम, पीट ढिंढोरा वोट मँगाए।
सरकारी संपत्ति बेंच के, बचतें सोई गँवाए।।
कोरोना सौ को मारे, जे झूठी दो बतलाए।
कष्ट कोऊ खों देखत नई, बरसों धरना धरवाए।।
नदी लास पै लास उगल रई, चादर डाल छिपाए।
चुनी भई सरकारें दईया, कैसऊँ करें गिराए।।
जन की बात कोऊ नई सुन रओ, प्रैस झूठ फैलाए।
हाँ में हाँ जो नई मिलाए, ओ पे जाँच बिठाए।।
२.१२.२०२१
***
बृज मुक्तिका
*
जी भरिकै जुमलेबाजी कर
नेता बनि कै लफ्फाजी कर
*
दूध-मलाई गटक; सटक लै
मुट्ठी में मुल्ला-काजी कर
*
जनता कूँ आपस में लड़वा
टी वी पै भाषणबाजी कर
*
अंडा शाकाहारी बतला
मुर्ग-मुसल्लम को भाजी कर
*
सौ चूहे खा हज करने जा
जो शरीफ उसको पाजी कर
***
सवैया मुक्तक
एक अकेला
*
एक अकेला दिनकर तम हर, जगा कह रहा हार न मानो।
एक अकेला बरगद दृढ़ रह, कहे पखेरू आश्रय जानो।
एक अकेला कंकर, शंकर बन सारे जग में पुजता है-
एक अकेला गाँधी आँधी, गोरी सत्ता तृणमूल अनुमानो।
*
एक अकेला वानर सोने की लंका में आग लगाता।
एक अकेला कृष्ण महाभारत रचकर अन्याय मिटाता।
एक अकेला ध्रुव अविचल रह भ्रमित पथिक को दिशा ज्ञान दे-
एक अकेला यदि सुभाष, सारे जग से लोहा मनवाता।
*
एक अकेला जुगनू; दीपक जले न पग ठोकर खाता है
एक अकेला लालबहादुर जिससे दुश्मन थर्राता है
एक अकेला मूषक फंदा काट मुक्त करता नाहर को-
एक अकेला जगता जब तब शीश सभी का झुक जाता है।
२-१२-२०२०
***
त्रिपदिक मुक्तिका
*
निर्झर कलकल बहता
किलकिल न करो मानव
कहता, न तनिक सुनता।
*
नाहक ही सिर धुनता
सच बात न कह मानव
मिथ्या सपने बुनता।
*
जो सुना नहीं माना
सच कल ने बतलाया
जो आज नहीं गुनता।
*
जिसकी जैसी क्षमता
वह लूट खा रहा है
कह कैसे हो समता?
*
बढ़ता न कभी कमता
बिन मिल मिल रहा है
माँ का दुलार-ममता।
***
***
द्विपदियाँ (अश'आर)
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
२.१२.२०१८
***
दो दोहे जुगुनू जगमग कर रहे सूर्य-चंद्र हैं अस्त.
मच्छर जी हैं जगजयी, पहलवान हैं पस्त.
*
अपनी अपनी ढपलियाँ अपने-अपने राग.
कोयल-कंठी मौन है, सुरमणि होते काग.
२.१२.२०१७
***
हिंदी वंदना
*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
गीत में ५ पद ६६ (२२+२३+२१) भाषाएँ / बोलियाँ हैं। १,२ तथा ३ अंतरे लघुरूप में पढ़े जा सकते हैं। पहले दो अंतरे पढ़ें तो भी संविधान में मान्य भाषाओँ की वन्दना हो जाएगी।
***
आइये कविता करें:१.
[लेखक परिचय- आचार्य संजीव वर्मा
'सलिल' गत ३ दशकों से हिंदी साहित्य, भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य,-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। १२ राज्यों की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा शताधिक अलंकरणों, पुरस्कारों आदि से सम्मानित किये जा चुके सलिल जी की ५ पुस्तकें (१. कलम के देव भक्ति गीत संग्रह, २ लोकतंत्र का मक़बरा कविता संग्रह, ३. मीत मेरे कविता संग्रह, ४. भूकम्प के साथ जीना सीखें तकनीकी लोकोपयोगी, ५. काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह,) प्रकाशित हैं जबकि लघुकथा, दोहा, गीत, नवगीत, मुक्तक, मुक्तिका, लेख, आदि की १० पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्म व् साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी प्रस्तुत लेख में गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला है।]
काव्य रचना के आरम्भिक तत्व १. भाषा, २. कथ्य या विषय, ३. शब्द भण्डार, ४. छंद तथा ५. कहन अर्थात कहने का तरीका हैं.
शब्दों को विषय के भावों के अनुसार चुनना और उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना कि उन्हें पढ़ते-सुनते समय लय (प्रवाह) की अनुभूति हो, यही कविताई या कविता करने की क्रिया है.
आप नदी के किनारे खड़े होकर देखें बहते पानी की लहरें उठती-गिरती हैं तो उनमें समय की एकरूपता होती है, एक निश्चित अवधि के पश्चात दूसरी लहर उठती या गिरती है. संगीत की राग-रागिनियों में आरोह-अवरोह (ध्वनि का उतार-चढ़ाव) भी समय बद्ध होता है. यहाँ तक कि कोयल के कूकने, मेंढक के टर्राने आदि में भी समय और ध्वनि का तालमेल होता है. मनुष्य अपनी अनुभूति को जब शब्दों में व्यक्त करता है तो समय और शब्द पढ़ते समय ध्वनि का ताल-मेल निश्चित हो तो एक प्रवाह की प्रतीति होती है, इसे लय कहते हैं. लय कविता का अनिवार्य गुण है.
लय को साधने के लिये शब्दों का किसी क्रम विशेष में होना आवश्यक है ताकि उन्हें पढ़ते समय समान अंतराल पर उतार-चढ़ाव हो, ये वांछित शब्द उच्चारण अवधि के साथ सार्थक तथा कविता के विषय के अनुरूप और कवि जो कहना चाहता है उसके अनुकूल होना चाहिए। यहाँ कवि कौशल, शब्द-भण्डार और बात को आवश्यकता के अनुसार सीधे-सीधे, घुमा-फिराकर या लक्षणों के आधार पर या किसी बताते हुए इस तरह लय भंग न हो और जो वह कह दिया जाए. छान्दस कविता करना इसीलिये कठिन प्रतीत होता है.
छन्दहीन कविता में लय नहीं कथ्य (विचार) प्रधान होता है. विराम स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर दिया जाता है.
कविता में पंक्ति (पद) के उच्चारण का समय समान रखने के लिए ध्वनि को २ वर्गों में रखा गया है १. लघु २. दीर्घ. लघु ध्वनि की १ मात्रा तथा दीर्घ मात्राएँ गिनी जाती हैं. छोटे-बड़े शब्दों को मिलाकर कविता की हर पंक्ति समान समय में कही जा सके तो जा सके तो लय आती है. पंक्ति को पढ़ते समय जहाँ श्वास लेने के लिये शब्द पूर्ण होने पर रुकते हैं उसे यति कहते हैं. यति का स्थान पूर्व निश्चित तथा आवश्यक हो तो उससे पहले तथा बाद के भाग को चरण कहा जाता है. अ, इ, उ तथा ऋ लघु हैं जिनकी मात्रा १ है, आ, ई, ऊ, ओ, औ, तथा अं की २ मात्राएँ हैं.
आभा सक्सेना: संजीव जी मेरा आपके दिये मार्गदर्शन के बाद प्रथम प्रयास प्रतिक्रिया अवश्य देखें .....
बसन्त
बागों में बसन्त छाया जब से २२ २ १२१ २२ ११ २ = १८
खिल उठे हैं पलाश तब से ११ १२ २ १२१ ११ २ = १५
रितु ने ली अंगडाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही कुछ बैठी बैठी २१ १२ ११ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही है ठंड की झालर २१ १२ २ २१ २ २११ = १७
ठंडी ठंडी छांव भी खिसके २२ २२ २१ २ ११२ = १७
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
दुबक रजाई में क्यों तुम बैठे १११ १२२ २ २ ११ २२ = १८
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
लिये जा रहे चाय के चस्के १२ २ १२ २१ २ २२ = १७
फूल खिल उठे पीले पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं वह मुझसे हंसके ११२२ ११ ११२ ११२ = १६
बसन्त है रितुराज यहाँ का १२१ २ ११२१ १२ २ = १६
पतंग खेलतीं गांव गगन के १२१ २१२ २१ १११ २ = १७
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६
इस रचना की अधिकांश पंक्तियाँ १६ मात्रीय हैं. अतः, इसकी शेष पंक्तियों को जो कम या अधिक मात्राओं की हैं, को १६ मात्रा में ढालकर रचना को मात्रिक दृष्टि से निर्दोष किया जाना चाहिए। अलग-अलग रचनाकार यह प्रयास अपने-अपने ढंग से कर सकते हैं. एक प्रयास देखें:
बागों में बसन्त आया है २२ २ १२१ २२ २ = १६
पर्वत पर पलाश छाया है २२ ११ १२१ २२ २ = १६
रितु ने ली अँगड़ाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही है बैठी-बैठी २१ १२ २ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके-किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही झालर जाड़े की २१ १२ २११ २२ २ = १६
ठंडी-ठंडी छैंया खिसके २२ २२ २२ ११२ = १६
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
कहो दुबककर क्यों तुम बैठे १२ १११११ २ ११ २२ = १६
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
चैया पी लो तन्नक हँसके २२ २ २ २११ ११२ = १६
फूल खिल उठे पीले-पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं आपस में छिपके ११२२ २११ २ ११२ = १६
है बसन्त रितुराज यहाँ का २ १२१ ११२१ १२ २ = १६
उड़ा पतंग गाँव में हँसके १२ १२१ २१ २ ११२ = १६
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६
मात्रिक संतुलन की दृष्टि से यह रचना अब निर्दोष है. हर पंक्ति में १६ मात्राएँ हैं. एक बात और देखें: यहाँ हर पंक्ति का अंतिम वर्ण दीर्घ है.
***
कार्यशाला-
दो कवि एक मुक्तक
*
तुम एक सुरीला मधुर गीत, मैं अनगढ़ लोकगीत सा हूँ
तुम कुशल कलात्मक अभिव्यंजन, मैं अटपट बातचीत सा हूँ - फौजी
तुम वादों को जुमला कहतीं, मैं जी भर उन्हें निभाता हूँ
तुम नेताओं सी अदामयी, मैं निश्छल बाल मीत सा हूँ . - सलिल
२.१२.२०१६
***
संस्मरण
कवि प्रदीप द्वारा पण्डित नरेंद्र शर्मा का उल्लेख
*
"अतीत के झरोखे से झाँक रहा हूँ। इलाहाबाद में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन था। काफ़ी भीड़ थी। उसी सम्मेलन में नरेन्द्र जी से मेरा अनायास परिचय हो गया था। समय की लीला अजीब होती है। मैं नया कवि होने के नाते मंच के एक कोने में सिमटा-सिकुड़ा बैठा था।"
"अपने से थोड़ी दूर बैठे एक गौरवर्ण सुकुमार-सौम्य युवक को न जाने क्यों मैं बार-बार देख लिया करता था। वे भी कविता पाठ के लिए आमंत्रित थे और मैं भी। अध्यक्ष की घोषणा से पता चला कि यही पंडित नरेन्द्र शर्मा हैं। जब दो कवियों के बाद मेरी बारी आयी, तो मैंने एक गीत सुनाया (यह बता दूँ कि शुरू से ही मेरी पठन-शैली बड़ी अच्छी थी)। गीत के बोल थे-
'मुरलिके छेड़ सुरीली तान,
सुना-सुना मादक-अधरे,
विश्व - विमोहन तान।'
"मैंने देखा सुंदर युवक नरेन्द्र जी मेरे पास आ कर बैठ गये और गीत में मेरे शब्द-प्रयोग 'मादक-अधरे' की ख़ूब प्रशंसा करके शाबाशी दी।"
"यही हमारी पहली मुलाक़ात मित्रता में बदल गयी। फिर तो हम अनेकों बार लगातार मिलते रहे। उक्त बात क़रीब साठ वर्ष पहले की है। उमर में नरेन्द्र जी दो वर्ष मेरे अग्रज थे।"
"सन् 1934 में इलाहाबाद छोड़ कर मैं लखनऊ आ गया। फिर तो हमारी जन्म-कुंडलियों ने अपना-अपना काम शुरू कर दिया। नरेन्द्र जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ही रहे और मैं आगे के विद्याभ्यास के लिए लखनऊ आ गया। इस प्रकार हम एक-दूसरे से दूर हो गये। लखनऊ में चार वर्ष रहने के बाद, अचानक भाग्य की आँधी ने मुझे फ़िल्म क्षेत्र में ला पटका एक गीतकार के रूप में। यह सन् 1939 की बात है। नरेन्द्र जी के कार्यक्षेत्र भी बदलते रहे।"
"हम दोनों अपने-अपने क्षेत्र में काम करते रहे। परंतु हमारे स्नेह-बंधन में कभी कमी नहीं आयी।"
"उनके पास बैठे हुए मेरे भीतर वैसे ही तरंगें उठती थी, जैसी बचपन में अपने नाना, मौसा के पास बैठ कर उठती थी। वही भव्य भारतीयता, ऐसी साधारणता कि जिसके आगे कैसी भी विशिष्टता फीकी पड़ जाए।"
***
स्मरण:
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(२६ दिसंबर १८२० - २९ जुलाई १८९१)
*
ईश्वरचंद्र विद्यासागर बांग्ला साहित्य के समर्पित रचनाकार तथा श्रेष्ठ शिक्षाविद रहे हैं। आपका जन्म २६ दिसंबर १८२० को अति निर्धन परिवार में हुआ था। पिताश्री ठाकुरदास तथा माता श्रीमती भगवती देवी से संस्कृति, समाज तथा साहित्य के प्रति लगाव ही विरासत में मिला। गाँव में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर आप १८२८ में पिता के साथ पैदल को कलकत्ता (कोलकाता) पहुँचे तथा संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन आरम्भ किया। अत्यधिक आर्थिक अभाव, निरंतर शारीरिक व्याधियाँ, पुस्तकें न खरीद पाना तथा सकल गृह कार्य हाथ से करना जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने हर परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
सन १८४१ में आपको फोर्ट विलियम कोलेज में ५०/- मासिक पर मुख्य पंडित के पद पर नियुक्ति मिली। आपके पांडित्य को देखते हुए आपको 'विद्यासागर' की उपाधि से विभूषित किया गया। १८५५ में आपने कोलेज में उपसचिव की आसंदी को सुशोभित कर उसकी गरिमा वृद्धि की। १८५५ में ५००/- मासिक वेतन पर आप विशेष निरीक्षक (स्पेशल इंस्पेक्टर) नियुक्त किये गये।
अपने विद्यार्थी काल से अंत समय तक आपने निरंतर सैंकड़ों विद्यार्थिओं, निर्धनों तथा विधवाओं को अर्थ संकट से बिना किसी स्वार्थ के बचाया। आपके व्यक्तित्व की अद्वितीय उदारता तथा लोकोपकारक वृत्ति के कारण आपको दयानिधि, दानवीर सागर जैसे संबोधन मिले।
आपने ५३ पुस्तकों की रचना की जिनमें से १७ संकृत में,५ अंग्रेजी में तथा शेष मातृभाषा बांगला में हैं। बेताल पंचविंशति कथा संग्रह, शकुन्तला उपाख्यान, विधवा विवाह (निबन्ध संग्रह), सीता वनवास (कहानी संग्रह), आख्यान मंजरी (बांगला कोष), भ्रान्ति विलास (हास्य कथा संग्रह) तथा भूगोल-खगोल वर्णनं आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
दृढ़ प्रतिज्ञ, असाधारण मेधा के धनी, दानवीर, परोपकारी, त्यागमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर ७० वर्ष की आयु में २९ जुलाई १८९१ को इहलोक छोड़कर परलोक सिधारे। आपका उदात्त व्यक्तित्व मानव मात्र के लिए अनुकरणीय है।
***
ई मित्रता पर पैरोडी:
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
***
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