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मंगलवार, 19 दिसंबर 2023

सलिल सृजन १९ दिसंबर, भाषा, कैथी, सॉनेट, सरस्वती, अभियान, दोहे, चुटकी, चित्रगुप्त, नवगीत

सलिल सृजन १९ दिसंबर
*
भाषा
जो जनगण-मन की आशा है
जो भावों की परिभाषा है
जिसमें रस-सलिला बहती है
शब्द सिंधु अपनी भाषा है।
*
हर अनुभूति ग्रहण करती है
ज्यों की त्यों झट-पट कहती है
कहा हुआ शब्दों में लिखती
सुन-पढ़ मति समझा करती है।
*
भाषा माँ जैसे भाती है
धीरे-धीरे ही आती है
कभी बोलती मीठी बोली
कभी दर्द में भी गाती है।
१९.१२.२०२३
*
विरासत 
कायस्थों की लिपि 'कैथी'
*
कैथी एक ऐतिहासिक लिपि है जिसे मध्यकालीन भारत में प्रमुख रूप से उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में काफी बृहत रूप से प्रयोग किया जाता था। खासकर आज के उत्तर प्रदेश एवं बिहार के क्षेत्रों में इस लिपि में वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्य किये जाने के भी प्रमाण पाये जाते हैं।
कैथी एक पुरानी लिपि है जिसका प्रयोग कम से कम 16 वी सदी मे धड़ल्ले से होता था। मुगल सल्तनत के दौरान इसका प्रयोग काफी व्यापक था। 1880 के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान इसे प्राचीन बिहार के न्यायलयों में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया था। इसे खगड़िया जिले के न्यायालय में वैधानिक लिपि का दर्ज़ा दिया गया था।

गुप्त वंश के उत्थान के दौरान अस्तित्व में आयी कैथी भाषा वर्ष १८८० तक जनमानस की भाषा बन चुकी थी । न्यायालयों में, बही खाते में तथा यत्र तत्र इनके प्रयोग की पराकाष्ठा थी । परन्तु एक किताब ("कल्चर एंड पावर ऑफ़ बनारस ") के अध्ययन के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि किस तरह से इस भाषा के साथ अन्याय हुआ. इस किताब के पृष्ठ संख्या १९० पर ब्रज भाषा के अवसान की व्याख्या के दौरान इस भाषा के अवसान का भी जिक्र है... हुआ कुछ यूँ था की ब्रज भाषा और हिंदी देवनागरी की भाषा को लेकर एक विवाद हुआ था.. हिंदी भाषा के एक बहुत बड़े विद्वान या यूँ कहें कि चैंपियन श्री श्रीधर पाठक और एक सज्जन थे श्री राधा चरण गोस्वामी जी .. ये दोनो हिंदी भाषा को कवियों कि भाषा बनाये जाने पर जोर दे रहे थे, और १९१० के पहले हिंदी साहित्य सम्मलेन में ब्रज भाषा को कोई स्थान नहीं दिया गया जबकि ब्रज भाषा उस वक्त के लेखकों या यूँ कहें कि कवियों की आधिकारिक भाषा बन गयी थी... सोने पे सुहागा तो तब हुआ जब एक साल के बाद हिंदी साहित्य के दूसरे सम्मेलन में श्री बद्री नाथ भट्ट जी ने ब्रज भाषा के लिए अपशब्द का प्रयोग किया.. सिलसिला यही से शुरू होता है... १९१४ में पांचवें हिंदी साहित्य सम्मेलन के दौरान प्रख्यात कवि, जो श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के आश्रित थे , उन्होंने ब्रज भाषा का साथ देने वालों को राष्ट्र भाषा हिंदी का दुश्मन करार दे दिया और यहीं से ब्रज भाषा के साथ साथ अन्य लिपियों का भी समापन होने लगा..
बात शुरू हुई थी कैथी पर, तो वापस आते हैं कि कैथी कैसे समाप्त हुई .. एक बंगाली शिक्षाविद थे , और उस दौरान भी लाल सलाम जोरों पर था । उन्होंने देखा कि बिहार में जो किताबें आती हैं वो बनारस से छप कर आती हैं... और यही एक बात थी जो बिहार के कायस्थों को उत्तर प्रदेश के कायस्थों से जोड़ती थी.. (शिक्षा आयोग की रिपोर्ट १८८४ पैराग्राफ ३३४). उन्होंने शिक्षा आयोग को पत्र लिखकर ये बात बताई कि कैथी बिहारी हिन्दुओं की धार्मिक पहचान बनती जा रही है, जो कि हिंदी भाषा के लिए खतरनाक हो सकती है , इसलिए आनन् फानन में हिंदी साहित्य सम्मेलन की नौवीं बैठक बुलाई गयी और काफी विवेचना के बाद ये प्रस्ताव पारित किया ...
"सभा के अनुसार नागरी से अति उत्कृष्ट कोई भाषा नहीं है, और नागरी शब्द ही भारत के लिए उपयुक्त है . इसी कारण से सभा कैथी भाषा के उन्नयन के लिए कोई उत्साह और सहयोग ना करने का निर्णय लेती है ।"
इसे यन. पी. यस. की वार्षिक रिपोर्ट १९२३ के पैराग्राफ १३ और १४ से देखा जा सकता है ..और इस प्रकार कैथी को दरकिनार कर उर्दू को कोर्ट की भाषा बना दी गयी , क्यूंकि उस वक्त की रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजो ने एक सर्वे में पाया कि धनी वर्ग के ज्यादातर लोग हिंदी या उर्दू का इस्तेमाल करते है तो उन्होंने इसे ही आधिकारिक भाषा बना दी .. और लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी को बाद में अनिवार्य कर दिया...इस प्रकार कायस्थों की प्रचलित भाषा कैथी का अंत हो गया।
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जानकारी
दुर्घटना-मुआवजा 
*
अगर किसी व्यक्ति की accidental death होती है और वह व्यक्ति पिछले तीन साल से लगातार इनकम टैक्स रिटर्न फ़ाइल कर रहा था तो उसकी पिछले तीन साल की एवरेज सालाना इनकम की दस गुना राशि उस व्यक्ति के परिवार को देने के लिए सरकार बाध्य है ।
आपको आश्चर्य हो रहा होगा यह सुनकर लेकिन यही सरकारी नियम है। उदहारण के तौर पर अगर किसी की सालाना आय क्रमशः पहले दूसरे और तीसरे साल चार लाख पांच लाख और छः लाख है तो उसकी औसत आय पांच लाख का दस गुना मतलब पचास लाख रूपए उस व्यक्ति के परिवार को सरकार से मिलने का हक़ है।
ज़्यादातर जानकारी के अभाव में लोग यह क्लेम सरकार से नहीं लेते हैं ।
जानेवाले की कमी तो कोई पूरी नहीं कर सकता है किंतु पैसा पास में हो तो भविष्य सुचारु रूप से चल सकता है ।
लगातार तीन साल तक रिटर्न दाखिल नहीं किया है तो ऐसे केस में सरकार एक डेढ़ लाख देकर किनारा कर लेती है। लगातार तीन साल तक लगातार रिटर्न फ़ाइल किया गया है तो केस ज़्यादा मजबूत होता है और यह माना जाता है कि मरनेवाला व्यक्ति अपने परिवार का रेगुलर अर्नर था और अगर वह जिन्दा रहता तो अपने परिवार के लिए अगले दस सालो में वर्तमान आय का दस गुना तो कमाता ही जिससे वह अपने परिवार का अच्छी तरह से पालन-पोषण कर पाता ।
सर्विस वाले रेगुलर अर्नर रिटर्न फ़ाइल नहीं करते जिसकी वजह से न तो कंपनी द्वारा काटा हुआ पैसा सरकार से वापस लेते हैं और न ही इस प्रकार से मिलने वाले लाभ का हिस्सा बन पाते हैं। आप अपने वकील से पूरी जानकारी लें और रिटर्न जरूर फ़ाइल करें ।
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पुरुष विमर्श -
तपस्यारत ऋषि को अल्पसंख्यक वस्त्रों, सौन्दर्य, भाव-भंगिमा से मुग्ध कर तप-च्युत करनेवाली अप्सरा नहीं, ऋषि लांछित होता है। क्यों?
इसी विरासत को ग्रहण कर नग्न प्राय आधुनिकाएँ पुरुष को यौन अपराधों का दोषी ठहराकर अश्लील साहित्य परोसना और अमर्यादित आचरण करना स्त्री विमर्श मान रही हैं.
आप का मत?

सॉनेट
सरस्वती
सरस वती माँ स रसवती
रहें हमेशा ही रस-लीन।
रस-निधि दें, मैं याचक हीन।।
सदय रहें माँ सरस्वती।।
मैया! गाऊँ निश-दिन गान।
कह न सकूँ महिमा तेरी।
करो कृपा अब बिन देरी।।
हो मेरा जीवन रसखान।।
स्वीकारो दंडौत प्रणाम
बन जाएँ सब बिगड़े काम
हो जाए मम नाम अनाम।।
भव-बंधन काटो मैया!
'सलिल' गहे कर की छैंया
शरण मिले पकड़ूँ पैंया।।
१९-१२-२०२२
जबलपुर, १०•३२
९४२५१८३२४४
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सॉनेट
शारदा
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शारदा माता नमन शत, चित्र गुप्त दिखाइए।
सात स्वर सोपान पर पग सात हमको दे चला।
नाद अनहद सुनाकर, भव सिंधु पार कराइए।।
बिंदु-रेखा-रंग से खेलें हमें लगता भला।।
अजर अक्षर कलम-मसि दे, पटल पर लिखवाइए।
शब्द-सलिला में सकें अवगाह, हों मतिमान हम।
भाव-रस-लय में विलय हों, सत्सृजन करवाइए।।
प्रकृति के अनुकूल जीवन जी सकें, हर सकें तम।।
अस्मिता हो आस मैया, सुष्मिता हो श्वास हर।
हों सकें हम विश्व मानव, राह वह दिखलाइए।
जीव हर संजीव, दे सुख, हों सुखी कम कष्ट कर।।
क्रोध-माया-मोह से माँ! मुक्त कर मुस्काइए।।
साधना हो सफल, आशा पूर्ण, हो संतोष दे।
शांति पाकर शांत हों, आशीष अक्षय कोष दे।।
१९-१२-२०२१
***
सॉनेट
अभियान
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सृजन सुख पा-दे सकें, सार्थक तभी अभियान है।
मैं व तुम हम हो सके, सार्थक तभी अभियान है।
हाथ खाली थे-रहेंगे, व्यर्थ ही अभिमान है।।
ज्यों की त्यों चादर रखें, सत्कर्म कर अभियान है।।
अरुण सम उजियार कर, हम तम हरें अभियान है।
सत्य-शिव-सुंदर रचें, मन-प्राण से अभियान है।
रहें हम जिज्ञासु हरदम, जग कहे मतिमान है।।
सत्-चित्-आनंद पाएँ, कर सृजन अभियान है।।
प्रीत सागर गीत गागर, तृप्ति दे अभियान है।
छंद नित नव रच सके, मन तृप्त हो अभियान है।
जगत्जननी-जगत्पितु की कृपा ही वरदान है।।
भारती की आरती ही, 'सलिल' गौरव गान है।।
रहे सरला बुद्धि, तरला मति सुखद अभियान है।
संत हो बसंत सा मन, नव सृजन अभियान है।।
१९-१२-२०२१
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सामयिक दोहे
तीर अगिन तूणीर में, चुना मरो अब झेल।
जो न साथ होगी तुरत, जेल न पाए बेल।।
तंत्र नाथ है लोक का, मालिक सत्ताधीश।
हुआ न होगा फिर कभी, कोई जुमलाधीश।।
छप्पन इंची वक्ष का, झेले वार तमाम।
जन पदच्युत कर दे बता, करना आता काम।।
रोजी छीनी भाव भी, बढ़ा रही है खूब।
देशभक्ति खेती मिटा, सेठ भक्ति में डूब।।
मूरत होगी राम की, सिया न होंगी साथ।
रेप करेंगे विधायक, भगवा थाने हाथ।।
अहंकार की होड़ है, तोड़ सके तो तोड़।
आग लगाता देश में, सत्ता का गठजोड़।।
'सलिल' सियासत है नहीं, तुझको किंचित साध्य।
जन-मन का दुख-दर्द कह, भारत माँ आराध्य।।
१९-१२-२०१९
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चुटकी गीत
*
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
बरस इस बरस मेघ आ!
नमन करे संसार।
न मन अगर तो नम न हो,
तज मिथ्या आचार।।
एक राह पर चलाचल
कदम न होना भ्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
कह - मत कह आ रात तू ,
खुद आ जाती रात।
बिना निकाले निकलती
सपनों की बारात।।
क्रांति-क्रांति चिल्ला रहे,
खुद भय से आक्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
छंद: दोहा
१९-१२-२०१८
***
चित्रगुप्त-रहस्य
*
चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
*
षट्पदी
श्वास-आस में ग्रह-उपग्रह सा पल-पल पलता नाता हो.
समय, समय से पूर्व, समय पर सच कहकर चेताता हो.
कर्म भाग्य का भाग्य बताये, भाग्य कर्म के साथ रहे-
संगीता के संग आज, कल-कल की बात बताता हो.
जन्मदिवस पर केक न काटें, कभी बुझायें ज्योति नहीं
दीप जला दीवाली कर लें, तिमिर भाग छिप जाता हो
१९-१२-२०१७
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नव गीत
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
देश एक है हम अनेक
खोया है जाग्रत विवेक
परदेशी के संग लडे
हाथ हमारे रहे जुड़े
कानून कई थे तोड़े
हौसले रहे कब थोड़े?
पाकर माने आज़ादी
भारत माँ थी मुस्कादी
चाह था
शेष न फूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
जब अपना शासन आया
अनुशासन हमें न भाया
जनप्रतिनिधि चाहें सुविधा
जनहित-निजहित में दुविधा
शोषक बन बैठे अफसर
धनपति शोषक हैं अकसर
जन करता है नादानी
कानून तोड़ मनमानी
तुम मानो
हमको छूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
धनतंत्र हुआ है हावी
दलतंत्र करे बरबादी
दमतोड़ रहा जनतंत्र
फल-फूल रहा मनतंत्र
सर्वार्थ रहे क्यों टाल
निज स्वार्थ रहे हैं पाल
टकराकर
खुद से टूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
घात लगाये पडोसी हैं
हम खुद को कहते दोषी हैं
ठप करते संसद खुद हम
खुद को खुद ही देते गम
भूखे मजदूर-किसान
भूले हैं भजन-अजान
निज माथा
खुद ही कूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
कुदरत सचमुच नाराज
ला रही प्रलय गिर गाज
तूफ़ान बवंडर नाश
बिछ रहीं सहस्त्रों लाश
कह रहा समय सम्हलो भी
मिल संग सुपंथ चलो भी
सच्चे हों
शेष न झूठ रहे
१९-१२-२०१५
***
नव गीत:
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
करो नमस्ते
या मुँह फेरो
सुख में भूलो
दुःख में टेरो
अपने सुर में गाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
एक दूसरे
को मारो या
गले लगाओ
हँस मुस्काओ
दर्पण छवि दिखलाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
चाह न मिटना
तो खुद सुधरो
या कोसो जिस-
तिस को ससुरों
अपना राग सुनाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
१९-१२-२०१४
***

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