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रविवार, 2 जुलाई 2023

ग्रंथि छंद, चित्रगुप्त, मुक्तिका, नवगीत, अमरेंद्र नारायण, विदग्ध, दोहा, मुक्तिका, नवगीत, पोएम, सूरज, प्रेम

 महामानव अमरेंद्र नारायण

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
इस कलिकाल में आदमी तो बहुत मिलते हैं। जहाँ देखिये वहीं भीड़ और शोर लेकिन मानव खोजना कठिन है। बकौल ग़ालिब "आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।" ऐसे समय में किसी महामानव से मिलना हो तो आइये जबलपुर। मैं आपको ले चलूँगा अग्रजवत अमरेंद्र नारायण जी के दर्शन कराने। प्रथम भेंट में आपको यही अनुभव होगा कि आप किसी 'सामान्य जन' से मिल रहे हैं जिसे बापू 'आम आदमी' कहते थे। जैसे जैसे आप अंतरंग होंगे आपको अमरेंद्र नारायण जी की असाधारणता की प्रतीति होती जाएगी।
अमरेंद्र नारायण जी 'सादा जीवन उच्च विचार' का जीवन सूत्र कहते नहीं जीते हैं। वे 'सत्यंब्रूयात प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यं अप्रियम' के जीवंत उदाहरण हैं। 'कोकिलकंठी' विशेषण सामान्यत: महिलाओं के लिए प्रयुक्त होता है, मुझे नहीं मालूम इसे किसी पुरुष के लिए प्रयोग करना चाहिए या नहीं पर मैं अमरेंद्र नारायण जी के लिए इसे प्रयोग कर सकता हूँ। कोयल के स्वर की मिठास अमरेंद्र जी की वाणी का अभिन्न अंग है। वे सहजता, सरलता, सादगी, अपनत्व, बड़प्पन, तकनीकी निपुणता तथा कारयित्री प्रतिभा के सतरंगी इंद्रधनुष को आत्मसात कर सृजन और सम्मान के शिखर पर हैं।
अभियंता गौरव अमरेंद्र नारायण जी देश ही नहीं विश्व के प्रतिष्ठित दूर संचार अभियंता हैं जो देश में ही नहीं देश के बाहर एशिया-प्रशांत क्षेत्र के अंतर्राष्ट्रीय पैसिफिक दूर संचार संगठन एशिया पेसिफिक टेलिकम्युनिटी के महासचिव के नाते संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसी अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संगठन द्वारा वैयक्तिक रजत पदक तथा संस्थागत स्वर्ण पदक से सम्मानित विभूति हैं।
लिपि-लेखनी-अक्षर दाता कर्मफल दाता देव चित्रगुप्त प्रणीत कायस्थ कुल में जन्मे अमरेंद्र नारायण जी पर माँ सरस्वती का वरद हस्त हमेशा रहा उनकी बहुमुखी लेखन सामर्थ्य तकनीकी परियोजनाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी उपन्यास 'फ्रेगरेंस बियोंड बॉर्डर्स', इसके उर्दू अनुवाद सरहदों के पार, म. गाँधी के प्रथम चम्पारण सत्याग्रह पर आधृत औपन्यासिक कृति 'संघर्ष' तथा राष्ट्र निर्माण में सरदार पटेल के अभूतपूर्व अवदान पर केंद्रित उपन्यास 'एकता और शक्ति' हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ कृतियाँ हैं जिनका सही मूल्यांकन भविष्य में होगा। इसके पूर्व पांच काव्य कृतियों सिर्फ एक लालटेन जलती है, अनुभूति, थोड़ी बारिश दो, तुम्हारा भी मेरा भी, और श्री हनुमत श्रद्धा सुमन द्वारा कवि अमरेंद्र नारायण पाठक पंचायत में प्रतिष्ठित हो चुके हैं।
अग्रजवत अमरेंद्र नारायण जी का एक और रूप विश्ववाणी हिंदी के प्रसार के प्रति समर्पित सेवक का भी है। थाईलैंड हिंदी परिषद के माध्यम से वे हिंदी को जगवाणी बनाने की दिशा में सक्रिय रहे हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका स्नेहाशीष प्राप्त है। एक अभियंता, एक कवि, एक सामाजिक कार्यकर्ता, एक प्रकृति प्रेमी, एक देशभक्त नागरिक, एक समर्पित हिंदी प्रेमी और इन सबसे बढ़कर एक सह्रदय इंसान के रूप में वे मेरे आदर्श हैं। उनके अंगुली पकड़कर कुछ कदम चल सकूँ, उनका आशीष पा सकूँ तो मैं स्वयं को धन्य मानूँगा।
अपने अनुजों के प्रति उनकी सहृदयता असीम है। अपनी बहुआयामी व्यस्तता के बावजूद अमरेंद्र नारायण जी ने मेरे दोनों नवगीत संकलनों 'काल है संक्रान्ति का' तथा 'सड़क पर' की समीक्षाएँ लिखीं हैं। मुझे इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर के चैयरमैन के नाते और इंटेक जबलपुर के कार्यकारिणी सदस्य के नाते उनका सहयोग हमेश सुलभ रहा है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के संयोजक-संचालक के नाते मुझे उनका मार्गदर्शन ही नहीं सक्रिय सहयोग और प्रभावी विमर्श मिलता रहा है। उनके बारे में कहने के लिए शब्द कम पड़ते हैं।
मानव मणि 'अमरेंद्र' जी, 'नारायण' अवतार
कली में प्रगटे कर सकें, हिंदी का उद्धार
हिंदी का उद्धार, करें नित श्रेष्ठ सुरचना
तकनीकी सामर्थ्य, असाधारण है लिखना
कहे 'सलिल संजीव', आपका अद्भुत लाघव
नहीं आप सा अन्य, नमन वंदन अति मानव
***
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
***
साहित्यिक नवाचार के अग्रदूत सलिल
प्रोफेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
*
साहित्य का क्षेत्र आकाश जैसा असीम विस्तृत तथा व्यापक है। मानव मन प्रकृति की अनमोल देन है। वह एक क्षण में सकल ब्रह्मांड का विचरण कर सब कुछ देखकर उसका वर्णन कर सकता है जो किसी भी अन्य सत्ता के द्वारा असंभव है। इसीलिए ऐसे मन के स्वामी साहित्यकार को एक अनोखे सृजनकर्ता का सम्मान इस संसार ने दिया है।
विश्व के हर देश में, तथा हर देश-काल में ऐसे महान साहित्यकार हुए हैं जिनके जाने के बाद सदियाँ बीत गईं पर उनके नाम और यश उनकी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से आज भी अमर हैं। मन का काम सोचना-विचारना तथा गहन चिंतन-मनन करना है, यह प्रक्रिया सभी के मन में निरंतर चलती रहती है पर सभी अपने मनोभाव शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाते हैं। प्रकृति ने यह सामर्थ्य कुछ गिने-चुने व्यक्तियों को दी है। इसी ऊर्जा से साहित्यकार अपने मन के भावों को विभिन्न विधाओं में व्यक्त करता है। जिन महान रचनाकारों के विचार समाज को मार्गदर्शन और लाभ देते हैं, ऐसे ग्रंथ और उनके रचनाकार चिरस्मरणीय होते हैं। भारत में रामायण और महाभारत ऐसे ही पवित्र ग्रंथ हैं जिन्हें युगों से भारत पूजता और मानता आया है और उनके रचनाकार महात्मा वाल्मीकि और महात्मा व्यास जन-मन में आदर भाव से बसे हुए हैं ।
लोकहित की भावना से यही कार्य हर छोटा-बड़ा साहित्यकार आज भी करता है। श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी संस्कारधानी जबलपुर के एक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार हैं। उन्होंने अनेकों पुस्तकों की रचना की है। भाषा, पिंगल तथा तकनीकी लेखन के क्षेत्र में वे महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। अनेकों साहित्यकारों को प्रकाश में लाने का श्रेय उन्हें है। नर्मदा मासिक पत्रिका का संपादन कर सलिल जी ने देशव्यापी तथा अंतरजाल पर दिव्य नर्मदा हिंदी पत्रिका के माध्यम से विश्व व्यापी ख्याति अर्जित की है। वे गत ५ दशकों से साहित्य श्रीजन तथा हिंदी भाषा के परिष्कार व् प्रसार की दिशा में निरंतर कार्यरत हैं। वर्तमान में दोहा शतक मंजूषा शीर्षक के अन्तर्गत ३ दोहावलियों का प्रकाशन कर सलिल जी ने देश के दूरस्थ अंचलों के दोहाकारों के दोनों को को संकलित, संशोधित, प्रकाशित कर उन्हें साहित्य जगत में चमकते सितारों का रूप दिया है। उनका साहित्य प्रेम न केवल प्रशंसनीय अपितु अनुकरणीय है। हिंदी के प्रथम सवैया कोष तथा छंद कोष जैसे कार्य सलिल जी को कालजयी कीर्ति देंगे। व्यक्तिगत रूप से सलिल जी को मैं ४ दशकों से जानता हूँ और उनके सराहनीय साहित्यिक-सामाजिक प्रयासों का हमेशा से मूक प्रशंसक रहा हूँ। साहित्य सृजन के समानांतर सामाजिक कुरीति उन्मूलन, नवजागरण तथा पर्यावरण सुधार की उनकी सतत निस्वार्थ साधना प्रदेश और देश में बहुश्रुत-बहुप्रशंसित है। वे समकालिक साहित्यिक नवाचार के अग्रदूत हैं।
मैं उन्हें आशीर्वाद देता हूँ और उनके शतायु होने की कामना करते हुए हिंदी साहित्य को सतत समृद्ध करने की आशा करता हूँ।
[लेखक परिचय : श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद। गीता, रघुवंश व मेघदूत के काव्यानुवाद सहित २५ कृतियाँ प्रकाशित।संपर्क : गली नंबर १, विद्युत मंडल कॉलोनी, शिला कुंज, नयागाँव, जबलपुर ४८२००१ चलभाष ७०००३७५७९८]
***

छंद चर्चा:

दोहा गोष्ठी:
*
सूर्य-कांता कह रही, जग!; उठ कर कुछ काम।
चंद्र-कांता हँस कहे, चल कर लें विश्राम।।
*
सूर्य-कांता भोर आ, करती ध्यान अडोल।
चंद्र-कांता साँझ सँग, हँस देती रस घोल।।
*
सूर्य-कांता गा रही, गौरैया सँग गीत।
चंद्र-कांता के हुए, जगमग तारे मीत।।
*
सूर्य-कांता खिलखिला, हँसी सूर्य-मुख लाल।
पवनपुत्र लग रहे हो, किसने मला गुलाल।।
*
चंद्र-कांता मुस्कुरा, रही चाँद पर रीझ।
पिता गगन को देखकर, चाँद सँकुचता खीझ।।
*
सूर्य-कांता मुग्ध हो, देखे अपना रूप।
सलिल-धार दर्पण हुई, सलिल हो गया भूप।।
*
चंद्र-कांता खेलती, सलिल-लहरियों संग।
मन मसोसता चाँद है, देख कुशलता दंग।।
*
सूर्य-कांता ने दिया, जग को कर्म सँदेश।
चंद्र-कांता से मिला, 'शांत रहो' निर्देश।।
२-७-२०१८
टीप: उक्त द्विपदियाँ दोहा हैं या नहीं?, अगर दोहा नहीं क्या यह नया छंद है?
मात्रा गणना के अनुसार प्रथम चरण में १२ मात्राएँ है किन्तु पढ़ने पर लय-भंग नहीं है। वाचिक छंद परंपरा में ऐसे छंद दोषयुक्त नहीं कहे जाते, चूँकि वाचन करते हुए समय-साम्य स्थापित कर लिया जाता है।
कथ्य के पश्चात ध्वनिखंड, लय, मात्रा व वर्ण में से किसे कितना महत्व मिले? आपके मत की प्रतीक्षा है।
***
मुक्तिका
*
उन्नीस मात्रिक महापौराणिक जातीय ग्रंथि छंद
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
*
खौलती खामोशियों कुछ तो कहो
होश खोते होश सी चुप क्यों रहो?
*
स्वप्न देखो तो करो साकार भी
राह की बढ़ा नहीं चुप हो सहो
*
हौसलों के सौं नहीं मन मारना
हौसले सौ-सौ जियो, मत खो-ढहो
*
बैठ आधी रात संसद जागती
चैन की लो नींद, कल कहना अहो!
*
आ गया जी एस टी, अब देश में
साथ दो या दोष दो, चुप तो न हो
***
चिंतन और चर्चा-
चित्रगुप्त और कायस्थ
*
चित्रगुप्त अर्थात वह शक्ति जिसका चित्र गुप्त (अनुपलब्ध) है अर्थात नहीं है। चित्र बनाया जाता है आकार से, आकार काया (बॉडी) का होता है। काया बनती और नष्ट होती है। काया बनानेवाला, उसका उपयोग करनेवाला और उसे नष्ट करनेवाला कोई अन्य होता है। काया नश्वर होती है। काया का आकार (शेप) होता है जिसे मापा, नापा या तौला जा सकता है। काया का चित्र गुप्त नहीं प्रगट या दृश्य होता है। चित्रगुप्त का आकार तथा परिमाप नहीं है। स्पष्ट है कि चित्रगुप्त वह आदिशक्ति है जिसका आकार (शेप) नहीं है अर्थात जो निराकार है. आकार न होने से परिमाप (साइज़) भी नहीं हो सकता, जो किसी सीमा में नहीं बँधता वही असीम होता है और मापा नहीं जा सकता।आकार के बनने और मिटने की तिथि और स्थान, निर्माता तथा नाशक होते हैं। चित्रगुप्त निराकार अर्थात अनादि, अनंत, अक्षर, अजर, अमर, असीम, अजन्मा, अमरणा हैं। ये लक्षण परब्रम्ह के कहे गए हैं। चित्रगुप्त ही परब्रम्ह हैं।
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"चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां" उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं। 'आत्मा सो परमात्मा' अत: चित्रगुप्त ही परमात्मा हैं। इसलिए चित्रगुप्त की कोई मूर्ति, कथा, कहानी, व्रत, उपवास, मंदिर आदि आदिकाल से ३०० वर्ष पूर्व तक नहीं बनाये गए जबकि उनके उपासक समर्थ शासक-प्रशासक थे। जब-जिस रूप में किसी दैवीय शक्ति की पूजा, उपासना, व्रत, कथा आदि हुई वह परोक्षत: चित्रगुप्त जी की ही हुई क्योंकि उनमें चित्रगुप्त जी की ही शक्ति अन्तर्निहित थी। विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारतीय शिक्षा संस्थानों को नष्ट करने और विद्वानों की हत्या के फलस्वरूप यह अद्वैत चिन्तन नष्ट होने लगा और अवतारवाद की संकल्पना हुई। इससे तात्कालिक रूप से भक्ति के आवरण में पीड़ित जन को सान्तवना मिली किन्तु पुष्ट वैचारिक आधार विस्मृत हुआ।अन्य मतावलंबियों का अनुकरण कर निराकार चित्रगुप्त की भी साकार कल्पना कर मूर्तियाँ और मंदिर बांये गए। वर्तमान में उपलब्ध सभी मूर्तियाँ और मंदिर मुग़ल काल और उसके बाद के हैं जबकि कायस्थों का उल्लेख वैदिक काल से है।
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"कायास्थित: स: कायस्थ:' अर्थात जब वह (परब्रम्ह) किसी काया में स्थित होता है तो उसे कायस्थ कहते हैं" तदनुसार सकल सृष्टि और उसका कण-कण कायस्थ है। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ और अदृश्य जीव-जंतु भी कायस्थ है। व्यावहारिक दृष्टि से इस अवधारणा को स्वीकारकर जीनेवाला ही 'कायस्थ' है। तदनुसार कायस्थवाद मानवतावाद और वैशिवाकता से बहुत आगे सृष्टिवाद है। 'वसुधैव कुटुम्बकम', 'विश्वेनीडम', 'ग्लोबलाइजेशन', वैश्वीकरण आदि अवधारणायें कायस्थवाद का अंशमात्र है। अपने उदात्त रूप में 'कायस्थ' विश्व मानव है।
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देवता: वेदों में ३३ प्रकार के देवता (१२ आदित्य, १८ रूद्र, ८ वसु, १ इंद्र, और प्रजापति) ही नहीं श्री देवी, उषा, गायत्री आदि अन्य अनेक और भी अन्य पूज्य शक्तियाँ वर्णित हैं। मूलत: प्राकृतिक शक्तियों को दैवीय (मनुष्य के वश में न होने के कारण) देवता माना गया। इनके अमूर्त होने के कारण इनकी शक्तियों के स्वामी की कल्पना कर वरुण आदि देवों और देवों के राजा की कल्पना हुई। अमूर्त को मूर्त रूप देने के साथ मनुष्य आकृति और मनुष्य के गुणावगुण उनमें आरोपित कर अनेक कल्पित कथाएँ प्रचलित हुईं।प्रवचनकर्ताओं की इं कल्पित कथाओं ने यजमानों को संतोष और कथा वाचक को उदार पोषण का साधन तो दिया किन्तु धर्म की वैज्ञानिकता और प्रमाणिकता को नष्ट भी किया।
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आत्मा सो परमात्मा, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर सो शंकर, कंकर-कंकर में शंकर, शिवोहं, अहम ब्रम्हास्मि जैसी उक्तियाँ तो हर कण को ईश्वर कहती हैं। आचार्य रजनीश ने खुद को 'ओशो' कहा और आपत्तिकर्ताओं को उत्तर दिया कि तुम भी 'ओशो' हो अंतर यह है कि मैं जानता हूँ कि मैं 'ओशो' हूँ, तुम नहीं जानते। हर व्यक्ति अपने वास्वतिक दिव्य रूप को जानकार 'ओशो' हो सकता है।
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रामायण महाभारत ही नहीं अन्य वेद, पुराण, उपनिषद, आगम, निगम, ब्राम्हण ग्रन्थ आदि भी न केवल इतिहास हैं, न आख्यान या गल्प। भारत में सृजन दार्शनिक चिंतन पर आधारित रहा है। ग्रंथों में पश्चिम की तरह व्यक्तिपरकता नहीं है, यहाँ मूल्यात्मक चिंतन प्रमुख है। दृष्टान्तों या कथाओं का प्रयोग किसी चिंतनधारा को आम लोगों तक प्रत्यक्ष या परोक्षतः पहुँचाने के लिए किया गया है। अतः, सभी ग्रंथों में इतिहास, आख्यान, दर्शन और अन्य शाखाओं का मिश्रण है।
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देवताओं को विविध आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा: जन्मा - अजन्मा, आर्य - अनार्य, वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, सतयुगीन - त्रेतायुगीन - द्वापरयुगीन कलियुगीन, पुरुष देवता- स्त्री देवता, सामान्य मनुष्य की तरह - मानवेतर, पशुरूपी-मनुष्यरूपी आदि।यह भी सत्य है की देवता और दानव, सुर और असुर कहीं सहोदर और कहीं सहोदर न होने पर भी बंधु-बांधव हैं। सर्व सामान्य के लिए शुभकारक हुए तो देव, अशुभकारक हुए तो दानव। शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म हैं। कर्म है तो उसका फल और फलदाता भी होगा ही। सकल प्राकृतिक शक्तियों, उनके स्वामियों और स्वामियों के विरोधियों के साथ-साथ जनसामान्य और प्राणिमात्र के कर्मों के फल का निर्धारण वही कर सकता है जिसने उन्हें उत्पन्न किया हो। इसलिए चित्रगुप्त ही कर्मफल दाता या पाप-पुण्य नियामक है।
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फल देनेवाले या सर्वोच्च निर्णायक को निष्पक्ष भी होना होगा। वह अपने आराधकों के दुर्गुण क्षमा करे और अन्यों के सद्गुणों को भुला दे, यह न तो उचित है, न संभव। इसलिए उसे सकल पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, कथा-वार्ता, यज्ञ-हवन आदि मानवीय उपासनापद्धतियों से ऊपर और अलग रखना ही उचित है। ये सब मनुष्य के करती हैं जिन्हें मनुष्येतर जीव नहीं कर सकते। मनुष्य और मनुष्येतर जीवों के कर्म के प्रति निष्पक्ष रहकर फल निर्धारण तभी संभव है जब निर्णायक इन सबसे दूर हो। चित्र गुप्त को इसीलिए कर्म काण्ड से नहीं जोड़ा गया। कालांतर में अन्यों की नकल कर और अपने वास्विक रूप को भूलकर भले ही कायस्थ इस ओर प्रवृत्त हुए।
२-७-२०१७
***
एक रचना
*
येन-केन जीते चुनाव हम
बनी हमारी अब सरकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
*
हम भाषा के मालिक, कर सम्मेलन ताली बजवाएँ
टाँगें चित्र मगर रचनाकारों को बाहर करवाएँ
है साहित्य न हमको प्यारा, भाषा के हम ठेकेदार
भाषा करे विरोध न किंचित, छीने अंक बिना आधार
अंग्रेजी के अंक थोपकर, हिंदी पर हम करें प्रहार
भेज भाड़ में उन्हें, आज जो हैं हिंदी के रचनाकार
लिखो प्रशंसा मात्र हमारी
जो, हम उसके पैरोकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
*
जो आलोचक उनकी कलमें तोड़, नष्ट कर रचनाएँ
हम प्रशासनिक अफसर से, साहित्य नया ही लिखवाएँ
अब तक तुमने की मनमानी, आई हमारी बारी है
तुमसे ज्यादा बदतर हों हम, की पूरी तैयारी है
सचिवालय में भाषा गढ़ने, बैठा हर अधिकारी है
छुटभैया नेता बन बैठा, भाषा का व्यापारी है
हमें नहीं साहित्य चाहिए,
नहीं असहमति है स्वीकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
२-७-२०१६
***
नवगीत:
*
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
चैन तुम बिन?
नहीं गवारा है.
दर्द जो भी मिले
मुझे सहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
रात-दिन बिन
रुके पुकारा है
याद की चादरें
रुचा तहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
मुस्कुरा दो कि
कल हमारा है
आसुँओं का न
पहनना गहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
हर कहीं तुझे
ही निहारा है
ढाई आखर ही
तुझसे है कहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
दिल ने दिल को
सतत गुहारा है
बूँद बन 'सलिल'
संग ही बहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
***
मुक्तिका:
संजीव
*
हाथ माटी में सनाया मैंने
ये दिया तब ही बनाया मैंने
खुद से खुद को न मिलाया मैंने
या खुदा तुझको भुलाया मैंने
बिदा बहनों को कर दिया लेकिन
किया उनको ना पराया मैंने
वक़्त ने लाखों दिये ज़ख्म मगर
नहीं बेकस को सताया मैंने
छू सकूँ आसमां को इस खातिर
मन को फौलाद बनाया मैंने
***
कविता-प्रतिकविता
* रामराज फ़ौज़दार 'फौजी'
जाने नहिं पीर न अधीरता को मान करे
अइसी बे-पीर से लगन लगि अपनी
अपने ही चाव में, मगन मन निशि-दिनि
तनिक न सुध करे दूसरे की कामिनी
कठिन मिताई के सताये गये 'फौजी' भाई
समय न जाने, गाँठे रोब बड़े मानिनी
जीत बने न बने मरत कहैं भी कहा
जाने कौन जन्मों की भाँज रही दुश्मनी
*
संजीव
राम राज सा, न फौजदार वन भेज सके
काम-काज छोड़ के नचाये नाच भामिनि
कामिनी न कोई आँखों में समा सके कभी
इसीलिये घूम-घूम घेरे गजगामिनी
माननी हो कामिनी तो फ़ौजी कर जोड़े रहें
रूठ जाए 'मावस हो, पूनम की यामिनी
जामिनि न कोई मिले कैद सात जनमों की
दे के, धमका रही है बेलन से नामनी
(जामनी = जमानत लेनेवाला, नामनी = नामवाला, कीर्तिवान)
२-७-२०१५ ***
छंद सलिला:
​सवाई /समान छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १६-१६, पदांत गुरु लघु लघु ।
लक्षण छंद:
हर चरण समान रख सवाई / झूम झूमकर रहा मोह मन
गुरु लघु लघु ले पदांत, यति / सोलह सोलह रख, मस्त मगन
उदाहरण:
१. राय प्रवीण सुनारी विदुषी / चंपकवर्णी तन-मन भावन
वाक् कूक सी, केश मेघवत / नैना मानसरोवर पावन
सुता शारदा की अनुपम वह / नृत्य-गान, शत छंद विशारद
सदाचार की प्रतिमा नर्तन / करे लगे हर्षाया सावन
२. केशवदास काव्य गुरु पूजित,/ नीति धर्म व्यवहार कलानिधि
रामलला-नटराज पुजारी / लोकपूज्य नृप-मान्य सभी विधि
भाषा-पिंगल शास्त्र निपुण वे / इंद्रजीत नृप के उद्धारक
दिल्लीपति के कपटजाल के / भंजक- त्वरित बुद्धि के साधक
३. दिल्लीपति आदेश: 'प्रवीणा भेजो' नृप करते मन मंथन
प्रेयसि भेजें तो दिल टूटे / अगर न भेजें_ रण, सुख भंजन
देश बचाने गये प्रवीणा /-केशव संग करो प्रभु रक्षण
'बारी कुत्ता काग मात्र ही / करें और का जूठा भक्षण
कहा प्रवीणा ने लज्जा से / शीश झुका खिसयाया था नृप
छिपा रहे मुख हँस दरबारी / दे उपहार पठाया वापि
२-७-२०१३
***
दोस्त / FRIEND
दोस्त
POEM : FRIEND
You came into my life as an unwelcome face,
Not ever knowing our friendship, I would one day embrace.
As I wonder through my thoughts and memories of you,
It brings many big smiles and laughter so true.
I love the special bond that we beautifully share,
I love the way you show you really care,
Our friendship means the absolute world to me,
I only hope this is something I can make you see.
Thankyou for opening your mind and your souls,
I wiee do all I can to help heal your hearts little holes.
Remember, your secrects are forever safe within me,
I will keep them under the tightest lock and key.
Thankyou for trusting me right from the start.
You truely have got a wonderful heart.
I am now so happy I felt that embrace.
For now I see the beauty of my best friend's face...
*********************
***
SMILE ALWAYS
Inside the strength is the laughter.
Inside the strength is the game.
Inside the strength is the freedom.
The one who knows his strength knows the paradise.
All which appears over your strengths is not necessarily Impossible,
but all which is possible for the human cannot be over your strengths.
Know how to smile :
What a strength of reassurance,
Strength of sweetness, peace,
Strength of brilliance !
May the wings of the butterfly kiss the sun
and find your shoulder to light on...
to bring you luck
happiness and cheers
smile always
२-७-२०१२
***
-: मुक्तिका :-
सूरज - १
*
उषा को नित्य पछियाता है सूरज.
न आती हाथ गरमाता है सूरज..
धरा समझा रही- 'मन शांत करले'
सखी संध्या से बतियाता है सूरज..
पवन उपहास करता, दिखा ठेंगा.
न चिढ़ता, मौन बढ़ जाता है सूरज..
अरूपा का लुभाता रूप- छलना.
सखी संध्या पे मर जाता है सूरज..
भटककर सच समझ आता है आखिर.
निशा को चाह घर लाता है सूरज..
नहीं है 'सूर', नाता नहीं 'रज' से
कभी क्या मन भी बहलाता है सूरज?.
करे निष्काम निश-दिन काम अपना.
'सलिल' तब मान-यश पाता है सूरज..
*
सूरज - २
चमकता है या चमकाता है सूरज?
बहुत पूछा न बतलाता है सूरज..
तिमिर छिप रो रहा दीपक के नीचे.
कहे- 'तन्नक नहीं भाता है सूरज'..
सप्त अश्वों की वल्गाएँ सम्हाले
कभी क्या क्लांत हो जाता है सूरज?
समय-कुसमय सभी को भोगना है.
गहन में श्याम पड़ जाता है सूरज..
न थक-चुक, रुक रहा, ना हार माने,
डूब फिर-फिर निकल आता है सूरज..
लुटाता तेज ले चंदा चमकता.
नया जीवन 'सलिल' पाता है सूरज..
'सलिल'-भुजपाश में विश्राम पाता.
बिम्ब-प्रतिबिम्ब मुस्काता है सूरज..
*
सूरज - ३
शांत शिशु सा नजर आता है सूरज.
सुबह सचमुच बहुत भाता है सूरज..
भरे किलकारियाँ बचपन में जी भर.
मचलता, मान भी जाता है सूरज..
किशोरों सा लजाता-झेंपता है.
गुनगुना गीत शरमाता है सूरज..
युवा सपने न कह, खुद से छिपाता.
कुलाचें भरता, मस्ताता है सूरज..
प्रौढ़ बोझा उठाये गृहस्थी का.
देख मँहगाई डर जाता है सूरज..
चांदनी जवां बेटी के लिये वर
खोजता है, बुढ़ा जाता है सूरज..
न पलभर चैन पाता ज़िंदगी में.
'सलिल' गुमसुम ही मर जाता है सूरज..
२-७-२०११
***
गीत:
प्रेम कविता...
*
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
२-७-२०१०
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