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सोमवार, 10 जुलाई 2023

मोहन छंद, मुक्तिका, सॉनेट, नवगीत, बेटी, भाषा, काल है संक्रांति का

सॉनेट
जब बच्चा था, तब सच्चा था, नहीं जरूरत थी तब ज्यादा,
जैसे जैसे बड़ा हुआ मैं, अपने पैरों खड़ा हुआ मैं,
बढ़ी जरूरत धीरे धीरे, हर दिन थोड़ी ओढ़ लबादा,
वादा कर जुमला बतलाया, तोड़ दिया झट बुरा हुआ मैं।

बेहद ज्यादा बढ़ी जरूरत, मेरे सिर पर चढ़ी जरूरत,
इच्छाओं का दास हो गया, अमन गँवाया, चैन खो गया,
जीना मुश्किल करे जरूरत, कभी न किंचित् घटे जरूरत,
सोच-समझकर कदम बढ़ाया, घटा जरूरत कुछ सुख पाया।

बूढ़ा हुआ समझ आई अब, संग न यौवन-तरुणाई अब,
जो जैसा स्वीकार रहा हूँ, सुख को कर साकार रहा हूँ,
करी हँसी की पहुनाई जब, हसीं जिंदगी मन भाई तब,
लुटा सभी पर प्यार रहा हूँ, खुद को सब पर वार रहा हूँ।

कमी न कोई अब खलती है, खुद में ही गल्ती मिलती है,
श्वास आस से भुज मिलती है, साँझ रात में चुप ढलती है।
१०-७-२०२३
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सॉनेट
पावस
*
सनन सनन सन पवन प्रवाहित
छनन छनन छन बूँदें बरसें
धरा मिलन को पल-पल तरसें
मन मुकुलित, तन हर्षित-पुलकित
पर्ण-पर्ण पर नव निखार है
कली-कली इठला-इतराए
तितली-भँवरे गीत सुनाए
तिनके-तिनके पर खुमार है
नागर कैदी नहीं हुलसते
पंखे-ए सी चला झुलसते
कांक्रीट वर सतत दहकते
आग बर रई रे तन-मन मा
भोग-विलास भरो जीवन मा
का जानें बेंच जीवन व मा
३५१ पलाश, भोपाल
९-७-२०२२
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सॉनेट
चिंता कल की
सगा न कोई यहाँ किसी का
सेंक रहे सब अपनी रोटी
कुत्ते हरदम पूँछ हिलाता
उसके आगे जो दे बोटी
घर का भेदी ढाता लंका
मीर जाफरों की होती जय
जयचंदों का बजता डंका
शूर्पणखाएँ फिरतीं निर्भय
पूतनाएँ पुजती हैं घर-घर
बंद देवकी कारा में भय
नंद भागते छिपते डर-डर
कंसराज की करते जय-जय
वेदव्यास सत्ता के चारण
चिंता कल की है इस कारण
३५१ पलाश, भोपाल
९-७-२०२२, ००•४०
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सॉनेट
बिजुरी
दमक दमक दम दमके बिजुरी
'हाय' करें जे, 'वाह' कहें बे
जलवे देखें, जवां जलें रे
कौन कहे कहँ गिरती ससुरी?
तड़-तड़ तड़के, भड़-भड़के
भीत मेघ झट भू पर बरसे
लौटे नहिं, जो निकसे घर से
जीत न कौनऊ पाए लड़ के
दिन भर रहे, रात गायब हो
जैसे दफ्तर से साहब हो
घातक ज्यों यम की नायब हो
नैन गिराएँ मादक बिजुरी
बैन बिसैली मारक बिजुरी
सब सुहाए साधक बिजुरी
१०•७•२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल
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सॉनेट
एकनाथ
एकनाथ की महिमा न्यारी
गाँठ कमल से ली है यारी
मत भूलो कीचड़ में उगता
जो थामे कीचड़ में सनता
कमल न शिवजी के मन भाता
नहीं शेर को तनिक सुहाता
कमला कमल न साथ निभाए
छलिया मायापति तरसाए
केर-बेर का संग अनूठा
रूठा, अपनों से ही टूटा
घर का भेदी लंका ढाए
जनगण के मन तनिक न भाए
ऐंठे थामे डोर मदारी
नाच नचाए बना भिखारी
१०-७-२०२२
भोपाल
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सॉनेट
रुचि
*
रुचि का रखें हमेशा ध्यान
रुचि ही करती है गुणवान
खुश हो सुरुचि, उठाए ऊपर
रूठ कुरुचि हो, जैसे ऊसर
रुचि बन संस्कार मन बसिया
करे सुगंधित जीवन बगिया
अमला धवला सरला तरला
चंचल चपला कमला विमला
हो संतोष सदा मन भाए
अंजलि सुरभित पवन सुहाए
सफल साधना पार लगाए
निशि-दिन रुचि की जय-जय बोलो
नेह नर्मदा पावन हो लो
हो सुशील हँस मधुरस घोलो
१०-७-२०२२
३५१ रुद्राक्ष, गुलमोहर,भोपाल
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गीत
आँख की महिमा भारी
*
आँख खुली तो जनम हो गओ, आँख मुँदी तो मरन।
आँख मिली झुक उठ लड़ गई तो, आँख लग गई लगन।।
आँख दिखाई बैर पल गओ, आँख लाल की जलन।
आँख नटेरी, आँख फूट गई, कोऊ नें रै गओ स्वजन।।
आँख से करिए यारी
आँख की महिमा भारी
*
आँख बस गओ हाय रे, आँख खों अंजन घाईं।
आँख बचाकर आँख नें, करी आँख पहुनाई।।
आँख आँख बैरन भईं, फूटी आँख नें भाईं।
आँख कलेजो चीरकर, रो-रो आँख गँवाईं।।
आँख कर रई अय्यारी
आँख की महिमा भारी
*
आँख समा गओ आप तो, टँसुआ आँख बहाए।
आँख भई मीरा मगन, सूर स्याम पतियाए।।
आँख दिवानी राधिका, नैना स्याम बसाए।
आँख चार भईं, फेर लईं, आँधर राह दिखाए।।
आँख है तेज कटारी
आँख की महिमा भारी
*
***
विमर्श : भाषिक शुद्धता
*
भाषा वाहक भाव की, करे कथ्य अभिव्यक्त
शब्द यथोचित यदि नहीं, तो मानें है त्यक्त
अनुभूत को अभिव्यक्त करने का माध्यम है भाषा। बच्चा भाषा सीखता है माँ और स्वजनों से। माता-पिता दोनों की भाषिक पृष्ठ भूमि प्राय: भिन्न होती है। भाषा कोई भी हो लोक दैनंदिन कार्य व्यापार में विविध भाषाओं-बोलिओं के शब्दों का प्रयोग करता है। ग्रामीण बोली और बाजारू भाषा इसी तरह बनती है। अध्ययन की भाषा शिक्षा के स्तर और विषयानुसार रूप ग्रहण करती है। प्राथमिक स्तर का भाषा शोधकार्य के उपयुक्त नहीं हो सकती। इसी तरह प्राणीशास्त्र में प्रयुक्त भाषा वाणिज्य अथवा यांत्रिकी को लिए अनुपयुक्त होगी।
भाषिक शुद्धता का शब्दों से संबंध नहीं
सामान्यतः भाषिक शुद्धता के शब्द-प्रयोग से जोड़ दिया जाता है। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। शब्द साझा होते हैं। मनुष्य जहाँ जाता है, जिनसे मिलता है, जो पढ़ता है, उससे शब्द ग्रहण करता है। वर्तमान में दूरदर्शन व अंतर्जाल ने 'छोटी सी ये दुनिया' की सोच को साकार कर दिया है। इसे शब्दों की यात्रा और सहज हो गयी है। जिस देश के पात्र, स्थान और लोकाचार की चर्चा की जाएगी, उस देश के शब्द प्रयोग में आएंगे ही। रूसी परिवेश की कहानी में रूस के पात्र, स्थान और लोकाचार स्वाभाविक है। वहाँ भारतीय वनस्पतियों, नामों, शहरों का उल्लेख अनुपयुक्त होगा। कहते हैं "पाँच कोस पे पानी बदले, बीस कोस पे बानी" अगर भाषा के स्वाभाविकता ही न होगी तो कृत्रिम भाषा से रसानंद कैसे मिलेगा?
भाषिक शुद्धता का आधार व्याकरण और पिंगल
भाषिक शुद्धता या अशुद्धता को देखने का आधार भाषा का व्याकरण और पिंगल होता है। हर भाषा की भिन्न प्रकृति और संस्कार होता है। हिंदी में २ लिंग हैं, संस्कृत में ३, अंग्रेजी में ४। भाषिक शुद्धता को महत्वहीन समझनेवाले यह बताएं की अंग्रेजी में हिंदी की तरह दो लिंग मानकर लिखा जाए तो उन्हें हजम होगा? यदि अंग्रेजी के पर्चे में परीक्षार्थी हिंदी की क्रिया, विशेषण आदि का प्रयोग करे तो उसे सही मानेंगे? अंग्रेजी में उचित शब्द होते हुए भी तमिल, मराठी या हिंदी के शब्द उपयोग करने पर अंक देंगे?
भाषिक संस्कार
इसी तरह हिंदी में जो सम्यक शब्द हैं उनका प्रयोग किया ही जाना चाहिए। गाँव के किसान 'गेहूं' की जगह 'व्हीट' कहे तो असहनीय होगा। लोक अन्य भाषिक शब्दों को अपने संस्कार में ढालता है। तभी 'मास्टर साहेब' को 'मास्साब', 'डॉक्टर साहेब' को 'डाक्साब' बनाकर ग्रहण कर लेता है। 'स्टेशन' को 'टेशन' कहे तो भी स्वाभाविकता बनी रहती है। किन्तु पौधरोपण की जगह 'प्लांटेशन' का प्रयोग भाषिक प्रदूषण ही है।
साहित्य में भाषा
लोक साहित्य के माध्यम से भाषा को संस्कारित करता है। साहित्य की भाषा लक्ष्य पाठक के अनुरूप होती है। हिंदी साहित्य के स्नातक को जिस भाषा में पढ़ाया जायेगा वह चिकित्सा के स्नातक विद्यार्थी के लिए प्रयोग नहीं की जा सकती। साहित्य में भाषिक शुद्धता का आग्रह बिलकुल उचित है। हिंदी में अंग्रेजी, अरबी-फ़ारसी शब्दों के आग्रही क्या अंग्रेजी रचना कर्म में हिंदी शब्दों का प्रयोग करेंगे? प्रो. अनिल जी ने 'ऑफ़ एन्ड ऑन' या 'द सेकेण्ड थॉट' में शुद्ध अंग्रेजी नहीं लिखी क्या? इन किताबों कितने हिंदी शब्द हैं? अंग्रेजी में लिखें तो भाषा शुद्ध हो, हिंदी में लिखें तो भाषिक शुद्धता का प्रश्न गलत कैसे ?
रचना का कथ्य और भाषा
बाल साहित्य की भाषा तकनीकी लेख या व्यंग्य लेख की तरह नहीं होगी। कबीर और तुलसी की भाषा में भिन्नता स्वाभाविक है और दोनों में से किसी को अशुद्ध नहीं कहा जाता। क्या रामचरित मानस ग़ालिब की भाषा में लिखा जा सकता है? सपना जी! बहुत विनम्रता से महान है कि उर्दू का तो कोई शब्द ही नहीं है। उर्दू शब्द कोष में सम्मिलित सब और हर शब्द किसी अन्य भाषा से लिया गया है। उर्दू हिंदी की एक शैली है जिसमें कुछ विदेशी (अरबी, फ़ारसी) और कुछ भारतीय भाषाओँ के शब्दों का संकलन है। इसी तरह जबलपुर के निकट पचेली बोली जाती है जिसमें ५ भारतीय भाषाओँ के शब्द सम्मिलित हैं।
भाषिक सहजता जरूरी
अनिल जी! यह सही है कि अनावश्यक क्लिष्टता नहीं होना चाहिए, पर यह लेखक की शैली से जुड़ा बिंदु है। मैथिलीशरण गुप्त और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनों की भाषा और शब्द चयन भिन्न हों तो दोनों में से किसी को निरस्त नहीं किया जा सकता जबकि एक की भाषा सरल दूसरे की क्लिष्ट है।
देवकांत जी से सहमत हूँ कि जहाँ भाषा में उपयुक्त शब्द हों वहाँ अनावश्यक अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग नहीं चाहिए।
सारांश जी की बात सही है। मिलमा दाल, सब्जी तो खाई जा सकती है पर खीर और कढ़ी को मिलाकर नहीं खाया जा सकता।
भाषा की नदी में सहायक नदियों क पानी मिले तो आपत्ति नहीं है किन्तु रासायनिक कारखाने का दूषित जल मिले तो आपत्ति करनी ही होगी।
पाखी जी हिंदी में शोध निरंतर हो रहा है। हमें अंग्रेजी से स्नेह रखते हुए अंग्रेजियत से दूरी बनानी होगी। अंग्रेजी के प्राध्यापक को भी पूरी तरह भारतीय संस्कार, हिंदी भाषा और स्थानीय बोली से जुड़ा होना चाहिए।
भाषी प्रदूषण गलत शब्द प्रयोग से भी होता है। रेल लेट है। इसे हिंदी कैसे स्वीकार करे? रेल का अर्थ पटरी होता है। ट्रेन का समानार्थी रेलगाड़ी है। जबलपुर आ रहा है। जबलपुर नहीं आता-जाता, आती-जाती रेलगाड़ी है। हमें भाषिक शुद्धता के प्रति सजग होना ही होगा। मेरी एक द्विपदी का आनंद लें-
क्या पूछते हो, राह यह जाती कहाँ है?
आदमी जाते हैं नादां रास्ते जाते नहीं हैं।
पौधरोपण का प्रयोग न कर वृक्षारोपण का प्रत्योग करने के पक्षधर क्या प्लांटेशन की जगह ट्री टेशन कहेंगे? हम हिंदी के प्रति स्वस्थ्य दृष्टिकोण अपनाएं और भाषिक शुद्धता, सरलता तथा सहजता को अपनाएँ यह आवश्यक है।
अभी कल ही मिजोरम विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी में अनुवाद कार्य पर अन्तर्राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी थी। उसमें बुगरिया और अन्य देशों के विदेशी प्राध्यापक शुद्ध हिंदी पूरी तरह भारतीय लहजे में बोल रहे थे किन्तु कुलपति महोदय पूरे समय अंग्रेजी बोलते रहे। विदेशी प्राध्यापक द्वारा अंग्रेजी समझने में कठिनाई व्यक्त करने पर भी उन्हें अंग्रेजी बोलने में शर्म नहीं आई। अंत में भारतेन्दु के दोहे के साथ अपने बात समाप्त करता हूँ -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के मिठे न हिय को सूल
* ।
***
बेटी पचीसा
(बेटी पर २५ दोहे)
*
सपना है; अरमान है, बेटी घर का गर्व।
बिखरा निर्झर सी हँसी, दुख हर लेती सर्व।।
*
बेटी है प्रभु की कृपा, प्रकृति का उपहार।
दिल की धड़कन सरीखी, करे वंश-उद्धार।।
*
लिए रुदन में छंद वह, मधुर हँसी में गीत।
मृदुल-मृदुल मुस्कान में, लुटा रही संगीत।।
*
नन्हें कर-पग हिलाकर, मुट्ठी रखती बंद।
टुकुर-टुकुर जग देखती, दे स्वर्गिक आनंद।।
*
छुई-मुई चंपा-कली, निर्मल श्वेत कपास।
हर उपमा फीकी पड़े, दे न सके आभास।।
*
पूजा की घंटी-ध्वनि, जैसे पहले बोल।
छेड़े तार सितार के, कानों में रस घोल।।
*
बैठ पिता के काँध पर, ताक रही आकाश।
ऐंठ न; बाँधूगी तुझे, निज बाँहों के पाश।।
*
अँगुली थामी चल पड़ी, बेटी ले विश्वास।
गिर-उठ फिर-फिर पग धरे, होगा सफल प्रयास।।
*
बेटी-बेटा से बढ़े, जनक-जननि का वंश।
एक वृक्ष के दो कुसुम, दोनों में तरु-अंश।।
*
बेटा-बेटी दो नयन, दोनों कर; दो पैर।
माना नहीं समान तो, रहे न जग की खैर।।
*
गाइड हो-कर हो सके, बेटी सबसे श्रेष्ठ।
कैडेट हो या कमांडर, करें प्रशंसा ज्येष्ठ।।
*
छुम-छुम-छन पायल बजी, स्वेद-बिंदु से सींच।
बेटी कत्थक कर हँसी, भरतनाट्यम् भींच।।
*
बेटी मुख-पोथी पढ़े, बिना कहे ले जान।
दादी-बब्बा असीसें, 'है सद्गुण की खान'।।
*
दादी नानी माँ बुआ, मौसी चाची सँग।
मामी दीदी सखी हैं, बिटिया के ही रंग।।
*
बेटी से घर; घर बने, बेटी बिना मकान।
बेटी बिन बेजान घर, बेटी घर की जान।।
*
बेटी से किस्मत खुले, खुल जाती तकदीर।
बेटी पाने के लिए, बनते सभी फकीर।।
*
बेटी-बेटे में 'सलिल', कभी न करिए फर्क।
ऊँच-नीच जो कर रहे, वे जाएँगे नर्क।।
*
बेटी बिन निर्जीव जग, बेटी पा संजीव।
नेह-नर्मदा में खिले, बेटी बन राजीव।।
*
सुषमा; आशा-किरण है, बेटी पुष्पा बाग़।
शांति; कांति है; क्रांति भी, बेटी सर की पाग।।
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ऊषा संध्या निशा ऋतु, धरती दिशा सुगंध।
बेटी पूनम चाँदनी, श्वास-आस संबंध।।
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श्रृद्धा निष्ठा अपेक्षा, कृपा दया की नीति।
परंपरा उन्नति प्रगति, बेटी जीवन-रीति।।
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ईश अर्चना वंदना, भजन प्रार्थना प्रीति।
शक्ति-भक्ति अनुरक्ति है, बेटी अभय अभीति।।
*
धरती पर पग जमाकर, छूती है आकाश।
शारद रमा उमा यही, करे अनय का नाश।।
*
दीपक बाती स्नेह यह, ज्योति उजास अनंत।
बेटी-बेटा संग मिल, जीतें दिशा-दिगंत।।
***
१०.७.२०१८
***
पुस्तक समीक्षा
आधुनिक समय का प्रमाणिक दस्तावेज 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई
*
गीत संवेदनशील हृदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवदी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं, एवं टटके बिंबों के सहारे दुनिया जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप के विद्रोह स्वरूप नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ।
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुत: यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- "काल है संक्रांति / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित का कर रही है तंग / मनुज-करनी देखकर खुद नियति भी है दंग' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत-नवगीत उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है-
''तक़दीर से मत हों गिले
तदबीर से जय हों किले
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं, मन भी खिले
करना सदा- वह जो सही।''
इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है-
"मिली दिहाड़ी
चल बाजार।
चवल-दाल किलो भर ले ले,
दस रुपये की भाजी।
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया मिर्ची ताज़ी।"
सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवालों की दशा अति दयनीय है। इसी विषय पर 'राम बचाये' शीर्षक नवगीत की निम्न पंक्तियाँ भी दृष्टव्य है -
"राम-रहीम बीनते कूड़ा
रजिया-रधिया झाड़ू थामे
सड़क किनारे बैठे लोटे
बतलाते कितने विपन्न हम ?"
हमारी नयी पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता के दुष्प्रभाव में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कम शब्दों में संकेतों के माध्यम से गहरे बातें कहने में कुशल कवि हर युवा के हाथ में हर समय दिखेत चलभाष (मोबाइल) को अपसंस्कृति का प्रतीक बनाकर एक और तो जमीन से दूर होने पर चिंतित होते हैं, दूसरी और भटक जाने की आशंका से व्यथित भी हैं-
" हाथों में मोबाइल थामे
गीध-दृष्टि पगडण्डी भूली,
भटक न जाए।
राज मार्ग पर जाम लगा है
कूचे-गली हुए हैं सूने।
ओवन-पिज्जा का युग निर्दय
भटा कौन चूल्हे में भूने ?"
सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनैतिक प्रदूषण के शब्द-चित्र कमाल के खींचे हैं। वे विविध बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से बहुत कुछ ऐसा कह जाते हैं जो आम-ख़ास हर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है और सोचने के लिए विवश भी करता है-
"लोकतंत्र का पंछी बेबस
नेता पहले दाना डालें
फिर लेते पर नोच।
अफसर रिश्वत-गोली मारें
करें न किंचित सोच।"
अथवा
"बातें बड़ी-बड़ी करते हैं,
मनमानी का पथ वरते हैं।
बना-तोड़ते संविधान खुद
दोष दूसरों पर धरते हैं।"
इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी-छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- "वह जो खासों में खास है / रूपया जिसके पास है। ", "तुम बंदूक चलो तो / हम मिलकर कलम चलायेंगे। ", लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है। ", वेश संत का / मन शैतान। ", "अंध श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है। ", "खुशियों की मछली को। / चिंता बगुला / खा जाता है। ", कब होंगे आज़ाद? / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?" आदि।
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन-हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- "उम्मीदों की फसल / उगाना बाकी है
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं ?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं??"
इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है-
"खों-खों करते / बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी।
पछुआ अम्मा / बड़बड़ करतीं
डाँट लगातीं तगड़ी।"
निष्कर्षत: कृति के सभी गीत-नवगीत एक से बरहकर एक सुन्दर, सरस, भाव-प्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छन्दों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर सौ टंच खरी उतरने वाली हैं।
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरणविहीन गद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आइना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु चिन्तनीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से ऐसी ही सार्थक, युगबोधक परक और मन को छूनेवाली कृतियों की आशा की सकती है।
***
[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, चलभाष ९४२५१८३२४४]
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, निकट बावन चुंगी चौराहा, हरदोई २४१००१ उ. प्र. दूरभाष ०५८५२ २३२३९२।
***
पुस्तक समीक्षा -
नव आयामी नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का'
डाॅ. अंसार क़म्बरी
*
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का गीत-नवगीत संग्रह ‘‘काल है संक्रांति का’’ प्राप्त कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। गीत हिन्दी काव्य की प्रभावी एवं सशक्त विधा है । इस विधा में कवि अपनी उत्कृष्ट अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति व्दारा काव्य का ऐसा उदात्त रूप प्रस्तुत करता है जिसके अंतर्गत तत्कालीन, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों को साकार करते हुये मानव-मनोवृृत्तियों की अनेक प्रतिमायें (बिम्ब)चित्रित करता है। आत्मनिरीक्षण और शुक्ताचरण की प्रेरणा देते हुये कविवर आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा नवगीत को नए आयाम दिए हैं।
इधर समकालीन कवियों ने भी विचार बोझिल गद्य-कविता की शुष्कता से मुक्ति के लिये गीत एवं नवगीत मात्रिक छंद को अपनाना श्रेष्ठकर समझा है, जैसा कि सलिल जी ने प्रस्तुत संग्रह में बड़ी सफलता से प्रस्तुत किया हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनकी भाषा भाव-सम्प्रेषण में कहीं अटकती नहीं है। उन्होंने आम बोलचाल के शब्दों को धड़ल्ले से प्रयोग करते हुये आंचलिक भाषा का भी समावेश किया है जो उनके गीतों का प्राण है। उनके गीत नवीन विषयों को स्वयम् में समाहित करने के उपरान्त अपनी अनुशासनबध्दता यथा- आत्माभिव्यंजकता, भाव-प्रवणता, लयात्मकता, गेयता, मधुरता एवं सम्प्रेषणीयता आदि प्रमुख तत्वों से सम्पूरित हैं अर्थात उन्होंने हिन्दी-गीत की निरंतर प्रगतिशील बहुभावीय परम्परा एवं नवीनतम विचारों के साथ गतिमान होने के बावजूद गीति-काव्य की सर्वांगीणता को पूर्णरुपेण समन्वित किया है।
'काल है संक्रान्ति का' में नवगीतकार ने प्रत्येक गीत को एक शीर्षक दिया है जो कथ्य तक पहुँचने में सहायक होता है। आचार्य जी, चित्रगुप्त प्रभु एवं वीणापाणि के चरणों में बैठकर रचनाधर्मिता, जीवंतता तथा युगापेक्षी सारस्वत साधनारत समर्थ प्रतीक रस सिध्द कवि हैं। वंदन करते हुये वो अपनी लेखनी से विनती करते हैं:
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु !
हाथ पसारे आये।
अनहद, अक्षय, अजर, अमर हे !
अमित, अभय, अविजित, अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर मिटाने
अरुणागत हम
व्दार तिहारे आये।
$ः$ः$ः
माॅै वीणापाणि को - स्तवन
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी।
जय-जय वीणापाणी।।
अमल-धवन शुचि, विमल सनातन मैया।
बुध्दि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति खेलें तब कैंया।
अनहद सुनवा दो कल्याणी।
जय-जय वीणापाणी।।
उनके नवीन गीत-सृजन समसामयिक चेतना की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति से संपन्न हैं किंतु वे प्रारम्भ में पुरखों को स्मरण करते हुए कहते है। यथा:
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ ! करें प्रणाम।
काया-माया-छायाधारी
जिन्हें जपें विधि-हरि-त्रिपुरारी
सुर, नर, वानर, नाग, द्रविण, मय
राजा-प्रजा, पुरुष-शिशु-नारी
मूर्त-अमूर्त, अजन्मा-जन्मा
मति दो करें सुनाम।
आओ! करें प्रणाम।
पुस्तक शीर्षक को सार्थकता प्रदान करते हुये ‘संक्रांति काल है’ रचना में जनमानस को कवि झकझोरते हुये जगा रहा है। यथा:
संक्रांति काल है
जगो, उठो
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आॅैखें रहते भी हो सूर
संसद हो चैपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर।
अब भ्रांति टाल दो
जगो, उठो।
उक्त भावों को शब्द देते हुये कवि ने सूरज के माध्यम से कई रचनाएँ दी हैं जैसे - उठो सूरज, हे साल नये, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज आदि - यथा:
आओ भी सूरज।
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ।
गाओ भी सूरज।
$ः$ः$ः$ः$ः
उग रहे या ढल रहे तुम
क्रान्त प्रतिपल रहे तुम ।
उगना नित
हँस सूरज।
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत।
उनके गीत जीवन में आये उतार-चढ़ाव, भटकाव-ठहराव, देश और समाज के बदलते रंगों के विस्तृत व विश्वसनीय भावों को उकेरते हुये परिलक्षित होते हैं। इस बात की पुष्टि के लिये पुस्तक में संग्रहीत उनके गीतों के कुछ मुखड़े दे रहा हूँ। यथा:
तुम बंदूक चलाओ तो
हम मिलकर
क़लम चलायेंगे।
$ः$ः$ः$ः
अधर पर धर अधर छिप
नवगीत का मुखड़ा कहा।
$ः$ः$ः$ः
कल के गैर
आज हैं अपने।
$ः$ः$ः$ः
कल का अपना
आज गैर है।
$ः$ः$ः$
काम तमाम, तमाम का
करतीं निश-दिन आप।
मम्मी, मैया, माॅै, महतारी
करुॅै आपका जाप।
अंत में इतना ही कह सकता हूॅै कि आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ आदर्शवादी संचेतना के कवि हैं लेकिन यथार्थ की अभिव्यक्ति करने में भी संकोच नहीं करते। अपने गीतों में उन्होंने भारतीय परिवेश की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि विसंगतियों को सटीक रूप में चित्रित किया है। निस्संदेह, उनका काव्य-कौशल सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। उनके गीतों में उनका समग्र व्यक्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। निश्चित ही उनका प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ साहित्य संसार में सराहा जायेगा। मैं उन्हें कोटिशः बधाई एवं शुभकामनाएँ देता हूॅै और ईश्वर से प्रार्थना करता हूॅै कि वे निरंतर स्वस्थ व सानंद रहते हुए चिरायु हों और माँ सरस्वती की ऐसे ही समर्पित भाव से सेवा करते रहें।
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संपर्क - ज़फ़र मंज़िल’, 11/116, ग्वालटोली, कानपुर-208001, चलभाष 9450938629

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हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
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''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं
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बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
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न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
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नवगीत:
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व्यापम की बात मत करो
न खबर ही पढ़ो,
शव-राज चल रहा
कोई तुझको न मार दे.
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पैंसठ बरस में क्या किया
बोफोर्स-कोल मात्र?
हम तोड़ रहे रोज ही
पिछले सभी रिकॉर्ड.
यमराज के दरबार में
है भीड़-भाड़ खूब,
प्रभु चित्रगुप्त दीजिए
हमको सभी अवार्ड.
आपातकाल बिन कहे
दे दस्तक, सुनो
किसमें है दम जो देश को
दुःख से उबार ले.
*
डिजिटल बनो खाते खुला
फिर भूख से मरो.
रोमन में लिखो हिंदी
फिर बने नया रिकॉर्ड.
लग जाओ लाइनों में रोज
बंद रख जुबां,
हर रोज बनाओ नया
कोई तो एक कार्ड.
न कोई तुम सा, बोल
खाओ मुफ्त मिले खीर
उसमें लगा हो चाहे
हींग-मिर्च से बघार.

१०-७-२०१५

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