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बुधवार, 5 जुलाई 2023

गीता अध्याय ९ संजीव

 ॐ गीता अध्याय ९

यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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हरि बोले 'अति गुप्त कह रहा, तुम्हें न जो ईर्ष्यालु है।
सभी ज्ञान-विज्ञान जानकर, जिसे मुक्त होगे भव से।१।
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है अतिगुप्त राजविद्या यह, यही शुद्धतम उत्तम है।
समझा गया आत्म अनुभव से, धर्म सुखद अविनाशी है।२।
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श्रद्धाहीन धर्म के प्रति, नर हे अरिहंता! सच जानो।
बिन पाए मुझको वापिस हों, मर्त्य जगत में पथ से ही।३।
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मुझसे व्याप्त जगत यह सारा, दृश्य-अदृश्य रूप द्वारा।
मुझमें सभी जीव हैं लेकिन, मैं उनमें हूँ स्थित न कहीं।४।
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कभी न मुझमें स्थित है सब जग, देखो मेरा योगैश्वर्य।
जीवों का पालक न भूत में, स्वात्मा भूत स्रोत हूँ मैं।५।
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जैसे नभ में वायु सदा ही, प्रवहित है सर्वत्र महान।
वैसे ही सब प्राणी मुझमें, रहते समझो इसी प्रकार।६।
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सब प्राणी कौन्तेय प्रकृति में, करते हैं प्रवेश मेरी।
कल्प अंत में, फिर उन सबको कल्प आदि में रचता मैं।७।
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प्रकृति में अपनी प्रवेश कर, बार बार पैदा करता।
सकल विराट जगत पूरा है, अवश प्रकृति के ही वश में।८।
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नहीं कभी भी मुझे कर्म वे, सकते बाँध धनंजय हे!
उदासीन आसक्ति रहित मैं, रहता हूँ उन कर्मों में।९।
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मेरे ही कारण प्रकृति यह, प्रगटे जड़-जंगम के सँग।
इस कारण से हे कुन्तीसुत!, जग परिवर्तित होता है।१०।
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करते हैं उपहास मूढ़जन, नर तन आश्रित कह मुझको।
दिव्य भाव बिन जाने मेरा, है कण-कण का स्वामी जो।११।
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निष्फल आशा-कारण-ज्ञान भी, उनका मोहग्रसित हैं जो।
त्याज्य राक्षसी-आसुरी प्रकृति मोहक, शरण गहे हैं वे।१२।
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महापुरुष लेकिन कुंतीसुत!, दैवी प्रकृति शरण रहते।
भजते अविचल मन से, जानें सृष्टि मूल अविनाशी मैं।१३।
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सतत कीर्तन करते मेरा, आखिर में संकल्प सहित।
करते नमन मुझे सभक्ति वे, नित जुड़कर पूजा करते।१४।
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ज्ञान यज्ञ द्वारा भी निश्चय, अन्य यज्ञ कर पूज रहे।
मुझे द्वैत-एकांत भाव से, बहु प्रकार से जग-मुख कह।१५।
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मैं कर्मकांड; मैं यज्ञ, स्वधा मैं, मैं ही तो औषधि भी हूँ।
मंत्र हूँ मैं निश्चय ही घृत मैं, पावक आहुति भी हूँ मैं।१६।
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पिता मैं इस जगत का हूँ, माता-धाता तथा पितामह।
हूँ वेद पावन ॐ ऋक् मैं, साम यजु भी सुनिश्चित हूँ।१७।
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हूँ लक्ष्य भर्ता ईश साक्षी, मैं आवास शरण भी हूँ।
हूँ सृष्टि मैं; मैं ही प्रलय, भूमि आश्रय बीज अव्यय हूँ ।१८।
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मैं देता हूँ ताप; बरसता, रोक-भेजता भी हूँ मैं।
अमृतत्व या मृत्यु; मुझ ही में सत अरु असत बसे अर्जुन!१९।
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वेदज्ञ-सोमपानी यज्ञी, पूत-पाप पूज सुरलोक।
हेतु प्रार्थना कर पाते हैं, भोग-आनंद देवता सम।२०।
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भोग स्वर्ग को पुण्य क्षीण हों, मृत्यु लोक में फिर आते।
वेदत्रयी-धर्म पालक जन, जा-आ इन्द्रिय सुख पाते।२१।
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हो अनन्य चिंतन कर मुझको, जो जन पूजा करते हैं।
उन भक्तिलीन लोगों का मैं, योग-क्षेम खुद करता हूँ।२२।
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जो भी अन्य सुरों की करते, पूजा श्रद्धा-भक्ति सहित।
वे भी पूज रहे मुझको ही, कुंतीसुत! विधि गलत भले।२३।
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मैं ही सकल यज्ञ कर्मों का, भोक्ता अरु स्वामी भी हूँ।
नहीं जानते मुझको सचमुच, जो नीचे गिरते हैं वे।२४।
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जाते सुर समीप सुरपूजक, पितृ समीप पितृपूजक।
मिलें भूत से भूत-भक्त जा, मेरे भक्त मुझे पाते।२५।
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पत्र पुष्प फल जल जो कोई, मुझे भक्ति से देता है।
वह मैं भक्ति-भाव से अर्पित, लेता शुद्ध-आत्मी से।२६।
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जो करते हो या खाते हो, जो देते हो दान कहीं।
जो तप करते कुन्तीपुत्र वह, सब मुझको ही अर्पणकर।२७।
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शुभ अरु अशुभ फलों के द्वारा, मुक्त कर्म बंधन से हो।
सन्यास योग युक्तात्मा हो, हो मुक्त मुझे पाओगे।२८।
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सम भावी मैं सब जीवों प्रति, कोई नहीं द्वेष्य या प्रिय।
जो भजते हैं मुझे भक्ति से, मुझमें वे हैं; उनमें मैं।२९।
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दुर आचारी भी यदि भजता, मुझे अनन्य भाव से तो।
साधु मानने योग्य मनुज वह, सम्यक संकल्पी है वो।३०।
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शीघ्र बने वह धर्म परायण, शाश्वत शांति प्राप्त करता।
हे कुन्तीसुत! करो घोषणा, भक्त न कभी नष्ट होता।३१।
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मेरी पार्थ शरण गहते जो, चाहे पापयोनि से हों।
वनिता वैश्य शूद्र व्यक्ति भी, जाते परम लोक को हैं।३२।
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क्या फिर ब्राह्मण धर्मात्मा या, भक्त राज-ऋषि भी हो तो।
नाशवान दुखमय यह जग पा, प्रेम-भक्ति मेरी कर ले।३३।
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नित मेरा चिंतन कर होओ, भक्त-उपासक नमन करो।
मुझको निश्चय ही पाओगे, लीन आत्म मुझमें यदि हो।३४।
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