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बुधवार, 5 जुलाई 2023

मदन महल

-: गोंड़ दुर्ग मदन महल : एक अध्ययन :-
संजीव वर्मा 'सलिल', अभियंता
मयंक वर्मा, वास्तुविद
* प्रस्तावना
मदन महल पहुँच पथ, निर्माण काल, निर्माणकर्ता आदि।
भारत के हृदयप्रदेश मध्य प्रदेश के मध्य में सनातन सलिला नर्मदा के समीप बसे पुरातन नगर संस्कारधानी जबलपुर में जबलपुर-नागपुर मार्ग पर से लगभग ४.५ किलोमीटर दूर, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के सामने, तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ तक्नोलोजी की और जा रहे पथ पर मदन महल दुर्ग के ध्वंसावशेष हैं। इसके पूर्व प्रकृति का चमत्कार 'कौआडोल चट्टान' (संतुलित शिला,बैलेंस्ड रॉक) के रूप में है। यहाँ ग्रेनाइट पत्थर की विशाल श्याम शिला पर दूसरी श्याम शिला सूक्ष्म आधार पर स्थित है। देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि एक कौआ भी आकर बैठे तो चट्टान पलट जाएगी पर १९९३ में आया भयानक भूकंप भी इसका बाल-बाँका न कर सका।
मदन महल दुर्ग सन १११६ ईसवी में गोंड़ नरेश मदन शाह द्वारा बनवाया गया।१ गोंड़ साम्राज्य की राजधानी गढ़ा जो स्वयं विशाल दुर्ग था, के निकट मदन महल दुर्ग निर्माण का कारण, राज-काज से श्रांत-क्लांत राजा के मनोरंजन हेतु सुरक्षित स्थान सुलभ करने के साथ-साथ आपदा की स्थिति में छिपने अथवा अन्य सुरक्षित किलों की ओर जा सकने की वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध कराना रह होगा। गढ़ा का गोंड़ साम्राज्य प्राकृतिक संपत्ति से समृद्ध था।
* गोंड़
भारत भूमि का 'गोंडवाना लैंड्स' नामकरण दर्शाता है कि गोंड़ भारत के मूल निवासी हैं। गोंड़ प्राकृतिक संपदा से संपन्न, सुसंस्कृत, पराक्रमी, धर्मभीरु वनवासी प्रजाति हैं जिनसे अन्य आदिवासी प्रजातियों, कुलों, कुनबों, वंशों आदि का उद्भव हुआ। गोंड़ संस्कृति प्रकृति को 'माता' मानकर उसका संवर्धन कर पोषित होती थी। गोंड़ अपनी आवश्यकता से अधिक न जोड़ते थे, न प्रकृति को क्षति पहुँचाते थे। प्रकृति माँ, प्राकृतिक उपादान पेड़-पौधे, नदी-तालाब, पशु-पक्षी आदि कुल देव। अकारण हत्या नहीं, अत्यधिक संचय नहीं, वैवाहिक संबंध पारस्परिक सहमति व सामाजिक स्वीकृति के आधार पर, आहार प्राकृतिक, तैलीय पदार्थों का उपयोग न्यून, भून कर खाने को वरीयता, वनस्पतियों के औषधीय प्रयोग के जानकार। गोंड़ लोगों ने १३ वीं और १९ वीं शताब्दी ईस्वी के बीच गोंडवाना में शासन किया था। गोंडवाना वर्तमान में मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग और ओडिशा के पश्चिमी भाग के अंतर्गत आता है। भारत के कटि प्रदेश - विंध्यपर्वत,सिवान, सतपुड़ा पठार, छत्तीसगढ़ मैदान में दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम - में गोदावरी नदी तक फैले हुए पहाड़ों और जंगलों में रहनेवाली आस्ट्रोलायड नस्ल तथा द्रविड़ परिवार की एक जनजाति, जो संभवत: पाँचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण से गोदावरी के तट को पकड़कर मध्य भारत के पहाड़ों में फैल गई। आज भी मोदियाल गोंड़ जैसे समूह गोंडों की जातीय भाषा गोंड़ी बोलते हैं जो द्रविड़ परिवार की है और तेलुगु, कन्नड़, तमिल आदि से संबन्धित है। आस्ट्रोलायड नस्ल की जनजातियों की भाँति विवाह संबंध के लिये गोंड भी सर्वत्र दो या अधिक बड़े समूहों में बँटे रहते हैं। एक समूह के अंदर की सभी शांखाओं के लोग 'भाई बंद' कहलाते हैं और सब शाखाएँ मिलकर एक बहिर्विवाही समूह बनाती हैं। विवाह के लिये लड़के द्वारा लड़की को भगाए जाने की प्रथा है। भीतरी भागों में विवाह पूरे ग्राम समुदाय द्वारा सम्पन्न होता है और वही सब विवाह संबंधी कार्यो के लिये जिम्मेदार होता है। ऐसे अवसर पर कई दिन तक सामूहिक भोज और सामूहिक नृत्यगान चलता है। हर त्यौहार तथा उत्सव का मद्यपान आवश्यक अंग है। वधूमूल्य की प्रथा है और इसके लिए बैल तथा कपड़े दिए जाते हैं।
युवकों की मनोरंजन संस्था - गोटुल का गोंड़ों के जीवन पर बहुत प्रभाव है। बस्ती से दूर गाँव के अविवाहित युवक एक बड़ा घर बनाते हैं। जहाँ वे रात्रि में नाचते, गाते और सोते हैं; एक ऐसा ही घर अविवाहित युवतियाँ भी तैयार करती हैं। बस्तर के मारिया गोंड़ों में अविवाहित युवक और युवतियों का एक ही कक्ष होता है जहाँ वे मिलकर नाच-गान करते हैं।
गोंड खेतिहर हैं और परंपरा से दहिया खेती करते हैं जो जंगल को जलाकर उसकी राख में की जाती है और जब एक स्थान की उर्वरता तथा जंगल समाप्त हो जाता है तब वहाँ से हटकर दूसरे स्थान को चुन लेते हैं। सरकारी निषेध के कारण यह प्रथा समाप्तप्राय है। गाँव की भूमि समुदाय की सपत्ति होती है, खेती के लिये परिवारों को आवश्यकतानुसार दी जाती है। दहिया खेती पर रोक लगने से और आबादी के दबाव के कारण अनेक समूहों को बाहरी क्षेत्रों तथा मैदानों की ओर आना पड़ा। वनप्रिय होने के कारण गोंड समूह खेती की उपजाऊ जमीन की ओर आकृष्ट न हो सके। धीरे-धीरे बाहरी लोगों ने इनके इलाकों की कृषियोग्य भूमि पर सहमतिपूर्ण अधिकार कर लिया। गोंड़ों की कुछ उपजातियां रघुवल, डडवे और तुल्या गोंड आदि सामान्य किसान और भूमिधर हो गए हैं, अन्य खेत मजदूरों, भाड़ झोंकने, पशु चराने और पालकी ढोने जैसे सेवक जातियों के काम करते हैं।
गोंडों का प्रदेश गोंडवाना के नाम से भी प्रसिद्ध है जहाँ १५ वीं तथा १७ वीं शताब्दी राजगौंड राजवंशों के शासन स्थापित थे। अब यह मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में है। उड़ीसा, आंध्र और बिहार राज्यों में से प्रत्येक में दो से लेकर चार लाख तक गोंड हैं।
किला/दुर्ग :
राजपरिवार के निवास तथा सुरक्षा के लिए महल बनाए जाते थे। महल के समीप बड़ी संख्या में दास-दासी, सैनिक, सवारी हेतु प्रयुक्त पशु, दूध हेतु गाय-भैंस, मनोरंजन हेतु पशु-पक्षी तथा उनके लिए आवश्यक आहार, अस्त्र-शस्त्रादि के भंडारण, पाकशाला आदि की सुरक्षा था प्राकृतिक आपदा या शत्रु आक्रमण से बचाव के लिए किले, दुर्ग, गढ़ आदि का निर्माण किया जाता था।
* किला 'कोट' (अरबी किला) चौड़ी-मजबूत दीवालों से घिरा स्थान होता था। इसमें प्रजा भी रह सकती थी। 'गढ़' (पुर-ऋग्वेद) छोटे किले होते थे। 'दुर्ग' सुरक्षा की दृष्टि से अभेद्य, अजेय होता था। दुर्ग की तरह अजेय देवी 'दुर्गा' शक्ति के रूप में पूज्य हैं। दुर्ग कई प्रकार के होते थे जिनमें से प्रमुख हैं -
अ. धन्व दुर्ग - धन्व दुर्ग थल दुर्ग होते हैं जिनके चतुर्दिक खाली ढलवां जमीन, बंजर मैदान या मरुस्थली रेतीली भूमि होती थी जिसे पार कर किले की ओर आता शत्रु देखा जाकर उस पर वार किया जा सके।
आ. जल दुर्ग - इनका निर्माण समुद्र, झील या नदी में पाने के बीच टापू या द्वीप पर किया जाता है। इन पर आक्रमण करना बहुत कठिन होता है। लंका समुद्र के बीच होने के कारण ही दुर्ग की तरह सुरक्षित थी। ये किले समतल होते हैं। टापू के किनारे-किनारे प्राचीर, बुर्ज तथा दीप-स्तंभ व द्वार बनाकर शत्रु का प्रवेश निषिद्ध कर दिया जाता है। मुरुद जंजीरा का दुर्ग जल दुर्ग है।
इ. गिरि दुर्ग - किसी पहाड़ के शिखर को समतल कर उस पर बनाए गए दुर्ग को गिरि दुर्ग कहा जाता है। ग्वालियर, चित्तौड़, रणथंभौर के दुर्ग श्रेष्ठ गिरि दुर्ग हैं। पहाड़ी पर होने के कारण इनमें प्रवेश के मार्ग सीमित होते हैं। तलहटी से किये गए शत्रु के वार नहीं पहुँच पाते जबकि किले से किए गए प्रहार घातक होते हैं।
ई. गिरि पार्श्व दुर्ग - इनका निर्माण पहाड़ के ढाल पर किया जाता है। जहाँ पहाड़ के दूसरी और से आक्रमण की संभावना न हो वहाँ इस तरह के दुर्ग बनाये जाते हैं।
उ. गुहा दुर्ग - गुहा दुर्ग का निर्माण ऐसी तलहटी में किया जाता है जिसके चारों ओर ऊँचे पर्वत शिखर हों जिन पर निगरानी चौकियाँ बनाई जा सकें।
ऊ. वन दुर्ग - इन दुर्गों का निर्माण सघन वन में ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के मध्य किया जाता है ताकि दूर से उनका होना ज्ञात न हो। कंकवारी दुर्ग अलवरइसी तरह का दुर्ग है।
ऊ. नर दुर्ग - नर दुर्ग का निर्माण युद्ध में व्यूह की तरह किया जाता है। महाभारत युद्ध में अभिमन्यु का वध करने के लिए बनाया गया चक्रव्यूह नर दुर्ग ही था।
* मदनमहल
मदनमहल का दुर्ग एक पहाड़ी के ऊपर होने के कारण सामान्यत: गिरि दुर्ग कहा जाता है किन्तु वास्तव में यह पहाड़ी लगभग ५०० मीटर ऊँची है। इस पर चढ़ पाना दुष्कर नहीं है। मदनमहल के चतुर्दिक तालाब हैं। आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जब यह दूर बनाया गया तब ये तालाब बहुत गहरे और बड़े रहे होंगे। इस पहाड़ी के चारों ओर घना वन रहा होगा जिसमें हजारों गगनचुंबी वृक्ष रहे होंगे।
* मदन महल स्थल चयन:
किसी दुर्ग के निर्माण का महत्वपूर्ण पक्ष स्थल-चयन है। मदन महल के निर्माण का निर्णय लिए जाने पर इसके चारों ओर की भूमि की प्रकृति पर विचार करना होगा। मदन महल का दुर्ग वन दुर्ग, जल दुर्ग और गिरि दुर्ग का मिला-जुला रूप है।
१. प्राकृतिक सुरक्षा-निगरानी- इसके समीप ही गढ़ा का विशाल दुर्ग (जिसके स्थान पर गढ़ा और जबलपुर बसा है) होने के कारण उस ओर (उत्तर व पूर्व) से आक्रमण की संभावना नहीं थी। उस ओर से पहुँच मार्ग रखा जाना सर्वथा निरापद है। शेष दो ओर (दक्षिण पूर्व से दक्षिण ) गहरा पहाड़ी ढाल होने से वहाँ से आक्रमण एकाएक नहीं हो सकता था। किले के अंदर और बाहर व्यवस्थाएँ की गई थीं। दक्षिण पूर्व में संग्राम सागर का विशाल सरोवर है।
२. मजबूत जमीनी आधार- मदन महल के निर्माण के लिए जिए भूखंड का चयन किया गया था वह कड़ी कंकरीली मुरम, नरम चट्टान तथा कड़ी चट्टान का क्षेत्र है। कारण बारहों महीने यहाँ बेरोक-टोक आया-जाया जा सकता था। मजबूत आधार भूमि होने के कारण नींव को गहरा या बड़ा रखने की जरूरत नहीं थी। दीवारों की मोटाई भी सामान्य रखी गई थी। इस कारण किले का निर्माणअपेक्षाकृत अल्पव्ययी रहा होगा। किले की बाह्य प्राचीर के अंदर सैन्य बल के रहवास, पाकशाला, अस्तबल (अश्वशाला), जल स्रोत, शस्त्रागार, बारादरी, सेवकों के आवास आदि का नर्माण किया गया होगा जिनके ध्वंसावशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इस किले के अंदर राजा-रानी के प्रवास हेतु दो ग्रेनाइट-चट्टानों पर लघु महल बनाया गया था जिसे भ्रमवश निगरानी चौकी कहा जाता है।
यहाँ यह समझना होगा कि राजा-रानी का स्थाई निवास गढ़ा किले था। मदन महल का निर्माण राजा-रानी के अल्प प्रवास हेतु था। इसलिए यह अन्य महलों की तरल विशालकाय नहीं है। इस महल का एक अन्य उपयोग यह था कि यहाँ राजकोष को छिपाने की गुप्त व्यवस्था की गई थी कि कभी पराजित होने पर मुख्य गढ़ा दुर्ग हाथ से निकल जाए तो भी कोष सुरक्षित रहे। लोकोक्ति है - 'मदन महल की छाँव में, दो टोंगों के बीच। जमा गड़ी नौं लाख की, दो सोने की ईंट।' ऐसे आपातकाल में राजा-रानी आदि की सुरक्षित निकासी हेतु मदन महल में सुरंग भी बनाई गयी थी जो कालान्तर में बंद कर दी गई है।
३. ऊँचाई - किले तथा राजनिवास का निर्माण इस तरह किया गया है कि किला समीपस्थ क्षेत्र से ऊँचा रहे। किले की प्राचीरों की ऊँचाई के बराबर ऊँची श्याम शिलाओं के ऊपर राजसी दंपत्ति के लिए एक कक्ष बनाया गया था जो आज तक बचा है। इस तक पहुँचने के लिए जीना (सीढ़ियाँ) बहुत सुविधाजनक नहीं हैं ताकि कोई वेग के साथ एकाएक राजसी दंपत्ति के विश्राम कक्ष में प्रवेश न कर सके। सीढ़ियाँ ऊँची तथा घुमावदार हैं।
४. निर्माण सामग्री की सुलभता - यह स्थल चयन निर्माण सामग्री की सुलभता की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त है। यहाँ मिट्टी, मुरम, पत्थर, लकड़ी, बेल फल, श्रमिक तथा कारीगर आदि पर्याप्त मात्रा में तथा सस्ती दरों में सुलभ रहे होंगे।
५. पहुँच एवं निकासी मार्ग -मदन महल किले का सर्वज्ञात निकासी मार्ग पूर्व दिशा में है जबकि महल का निकासी द्वार उत्तर दिशा में है। वास्तु की दृष्टि से ऐसा किया जाना सर्वथा उचित और शास्त्र सम्मत था।
६. अदृश्यता - इस किले और महल का निर्माण सघन-ऊँचे वृक्षों के मध्य इस तरह किया गया था कि द्वार के सम्मुख आ जाने तक यह निश्चित न हो सके कि किला इतने सन्निकट है और दूर से इसे देखकर इस पर प्रहार न जा सके।
७. पेय जल की उपलब्धता - दुर्ग में बड़ी संख्या में सैनिक, सेवक, पशु और जान सामान्य भी रहते और आते-जाते थे। इसलिए शुद्ध पेय जल पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक था। इस किले के चारों ओर अनेक सरोवर, बावली, झरने आदि थे जिनमें से कुछ अब भी द्रष्टव्य हैं।
८. परिवेश - महल तथा किले के चतुर्दिक रमणीय सघन वन, सुन्दर जलाशय, मनोरम दृश्य, विविध प्रकार के पशु-पक्षी आदि थे। यहाँ से सूर्योदय और सूर्यास्त की नयनाभिराम छवियाँ देखी जा सकती थीं।
९. छिपने-छिपाने के स्थल (गुफाएँ) - इस दुर्ग की एक असामान्य विशेषता इसके अंदर और बाहर अनेक गुफाएँ, दरारें आदि थीं जिनमें छिपकर किले के अंदर आने और बिना किसी कोज्ञात हुए बाहर जाने की व्यवस्था का लाभ राजा और उनकी फ़ौज उठा सकती थी किन्तु आक्रामक नहीं क्योंकि उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं होती थी।
* मदन महल निर्माण की आवश्यकताएँ :
सन्निकट विशाल और मजबूत गढ़ा का किला होने के बाद भी इस किले को बनाने का कारण राज्य विस्तार, सुरक्षा, प्रतिष्ठा, बसाहट, भण्डारण, रोजगार, शिल्प कौशल का विकास, सैन्य प्रशिक्षण था।इस किले ने हर उद्देश्य को पूर्ण भी किया।
* मदन महल का रूपांकन :
किले का आकार और विस्तार - महत्वपूर्ण व्यक्तियों, सैन्य दल, शस्त्रागार, पाकशाला, पशु, सैन्य अभ्यास, मनरंजन आदि के संपादन हेतु किले में पर्याप्त स्थान सुलभ था। राज महल अपेक्षाकृत छोटा रखा गया कि उससे अन्य गतिविधियाँ प्रभावित न हो सके।
विभिन्न भवनों की स्थिति - किले के अंदर महल, पशुशाला, अश्वशाला, शस्त्रागार, सैनिकों व सेवकों आदि के आवास आदि कई इमारतें थीं जिनके अवशेष ही अब शेष हैं। इन के आकार अपेक्षाकृत छोटे होने का कारण यह है कि समीप ही गढ़ा किले में वृहदाकारी ीअमरतें रही होंगीं जिन्हें मुगलों, अंग्रेजों और जन सामान्य ने बेरहमी से नष्ट कर दिया।
जल स्रोत - किले के अंदर कूप और बाहर अनेक सरोवर, निर्झर और बावड़ियाँ शुद्ध पेय जल सुलभ कराती थीं।
राज निवास - राज निवास (महल) बहुत छोटा होने का कारण यह है कि यह सर्वकालिक राज निवास नहीं था। यह अल्पकालिक प्रवास हेतु था। गोंडों की जीवन शैली अत्यंत सादगीपूर्ण था जबकि राजपूतों, मराठों और मुगलों की जीवन शैली अत्यंत शानशौकतपूर्ण और विलसितामय होती थी। इनसे तुलना करने पर गोंड़ों के महल या किले प्रभावित नहीं करते किंतु वास्तव में गोंड राजाओं ने जन-धन का अपव्यय निजी विलासिता के लिए न कर, आदर्श प्रस्तुत किया था। राज निवास में प्रवेश के लिए बनाई गयीं सीढ़ियाँ ऊँची, हैं ताकि उन पर सहजता से बिना आहट न चढ़ा जा सके। दरवाजे कम ऊँचाई बनाए गए हैं ताकि प्रवेश करते समय सिर झुकाकर घुसना पड़े। अवांछित आगंतुक या शत्रु के प्रवेश करने पर वह वार सके इसके पहले ही उसकी गर्दन काट दी जा सके। गोंड़ भूमिपुत्र थे, जमीन पर सोते थे। मुख्य कक्ष में जमीन पर लेते, बैठें या खड़े हों दीवार में छेद इस तरह बनाये गए हैं कि उनसे सुदूर बाह्य क्षेत्र पर नज़र रखी जा सके। यही नहीं जो छेद हैं वे दीवार की मोटाई में लंबवत नहीं, लहभग ३० अंश तिरछे हैं। इस कारण कक्ष के अंदर से निशाना साधकर बाहर शर-प्रहार किया जा सकता है किन्तु बाहर से अंदर निशाना नहीं साधा जा सकता। राजा की सुरक्षा हेतु अन्य भी अनेक व्यवस्थाएँ की गई थीं।
सैन्य दल - मदन महल में गोंडों की सेना का मुख्यालय नहीं था इसलिए यहाँ उतनी ही सेना रखी जाती थी जो राजा या अन्य महत्वपूर्ण अतिथियों तथा किले की सुरक्षा के लिए अनिवार्य थी। इस सैन्य दल का सतत जागरूक रहना और चुस्त-दुरुस्त रहना आवश्यक था। इसलिए सैनिकों के लिए बनाए गए आवास सुविधा पूर्ण तो थे, विलासिता पूर्ण नहीं।
पाक शाला - गोंडों का भोजन बहुत सादा था। वे माँसाहारी थे किन्तु पशु-पक्षियों को शौक के लिए नहीं मारते थे, केवल भोजन हेतु शिकार करते थे। ज्वार-बाजरा, कोड़ों-कुटकी, मक्का, अरहर, मूँग आदि उनके प्रिय खाद्यान्न थे। वे लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयोग करते थे। पाक शाला सामान्य कक्ष के तरह थी।
पशुशाला - पशुशाला में गाय और घोड़े मुख्य पशु थे जो इस किले में रखे जाते थे। बड़ी गजशाला और अश्वशाला वर्तमान जीवन बीमा संभागीय कार्यालय की भूमि पर था जिसे ध्वस्त कर इस कार्यालय की इमारत बनाई गयी।
* मदन महल का शिल्प और वास्तु :
ईकाइयों का निर्धारण, परिमाप तथा आकार, दिशावेध, लंबाई-चौड़ाई-ऊँचाई, द्वार-वातायन, कक्ष, प्रकाश तथा वायु संचरण, दीवालें और प्राचीरें, स्तंभ, छत, मेहराब, गुंबद, आले, मुँडेर, प्रतीक चिन्ह आदि में स्थानीयता सामग्री शिल्प और कला की प्रमुखता स्पष्ट है। यह भ्रम है कि गोंड़ी इमारतों पर मुग़ल स्थापत्य की छाप है। वास्तव में गोंड़ी सभ्यता और संस्कृति प्राचीनतम है। गोंड़ों के मकान झोपड़ीनुमा छोटे-छोटे, पत्थर (बोल्डर) और कच्ची ईंटों को को गारे से जोड़कर निर्मित होते थे। दीवारों में मलगे, कैंची, , दरवाजे खूँटियाँ आदि लकड़ी की होती थीं। छत बनाने के लिए बाँस, जूट, तेंदूपत्ते आदि का पयोग किया जाता था। चूने के गारे और अपक्की ईटों या आयताकार पत्थरों का उपयोग समृद्ध जनों के आवास हेतु किया जाता था। इसीलिये इस निर्माण सामग्री से बनी इमारत को भले ही वह छोटी हो 'महल' कहा जाना सर्वथा उचित है। सादगी गोंड़ जीवनशैली का अंग और वैशिष्ट्य थे, विपन्नता नहीं।
* मदन महल भावी विकास :
मदन महल क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विक्सित किये जाने की आवश्यकता और संभावना दोनों हैं। यहाँ के पर्यावरण और परिवेश को देखते हुए यहाँ लाखों की संख्या में बाँस, साल, सागौन, तेन्दु, पलाश, सीताफल, बीजा, महुआ, सेमल आदि के वृक्ष लगाए जाने चाहिए। यहाँ की पहाड़ियों में सर्पगन्धा, अश्वगंधा, ब्राम्ही, कालमेघ, कौंच, सतावरी, तुलसी, एलोवेरा, वच, आर्टीमीशिया,लेमनग्रास, अकरकरा, सहजन जैसी आयुर्वेदिक औषधिजनक पौधों की रोपणी बनाई जानी चाहिए। इससे इन पहाड़ियों का क्षय होना बंद होगा। यहाँ के बैसाल्ट पत्थरों को तोड़ने पर तुरंत रोक लगाई जाए। यह शिलायें जबलपुर क्षेत्र को भूकंपरोधी बनाने में सहायक हैं। वन और औषधीय पौधों के विकास से भूमिगत जलस्तर ऊपर उठेगा। इन वनों में गिरनेवाला वर्षाजल कुओं। बवालियों, झरनों, नदियों में पहुँचेगा तो औषधीय गुणों से युक्त होगा जिसका पान करने से जन सामान्य को लाभ होगा। यह बड़ी मात्रा में सर्प रहते हैं जी गर्मी और बरसात में निकलते हैं। सर्प संग्रहालय बनाकर सर्प विष का उत्पादन किया जा सकता है। यहाँ तेंदुओं तथा मृगों का भी आवास रहा है। अनेक तरह के पक्षी यहाँ अभी भी रहते हैं। वन विकसित होने पर पक्षी अभयारण्य भी विक्सित किया जा सकता है। इन इमारतों को मूल रूप में पुनर्निर्मित कर उनमें गोंड़ सभ्यता और संस्कृति का संग्रहालय भी बनाया जा सकता है। वर्तमान में इस क्षेत्र में जो भी विकास योजनाएं हैं वे इस परिवेश और विरासत के अनुकूल नहीं हैं। इस क्षेत्र में नई इमारतें बनाना प्रतिबंधित कर, नगरीकरण से बचाकर प्रकृति के अनुकूल विकास कार्य किए जाने चाहिए।
५-७-२०२२

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