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मंगलवार, 2 मई 2023

वीरेंद्र निर्झर

लेख -

नर्मदा निनाद सम नवीन - 'निर्झर' के नवगीत

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

*
                              सनातन सलिला नर्मदा का जल प्रवाह पुरातनता में नवीनता का प्रवाह है। अमरकंटकी का शैशव, मेकलसुता का बचपन, रेवा का कैशोर्य, रुद्रदेहा का तारुण्य, शिखरिणी का यौवन, तरंगिणी की प्रौढ़ता, बालुकावाहिनी का वार्धक्य और पापहारिणी का लोकमांगल्य गीतों की गुनगुनाहट में सुनना हो नर्मदासूट वीरेंद्र निर्झर के गीतों में अवगाहन करना होगा। नर्मदांचली गीतलेखन परंपरा लोक-लालित्य से पुष्ट होकर सँवरती-निखरतीहै। दादा माखनलाल चतुर्वेदी, महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, भवानी प्रसाद मिश्र, केशव पाठक, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी, गोविंद प्रसाद तिवारी, पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', बृजेश माधव, रामकृष्ण दीक्षित 'विश्व', जवाहरलाल चौरसिया तरुण, हरीश निगम, बालकवि बैरागी, कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', मयंक श्रीवास्तव, यतीन्द्र नाथ राही, चंद्रसेन विराट, मनोरमा तिवारी, गिरिमोहन गुरु, श्याम श्रीवास्तव, राम सेंगर, विनोद निगम, आचार्य भगवत दुबे, पारस मिश्र, शिव कुमार अर्चन, जयप्रकाश श्रीवास्तव, संजीव वर्मा 'सलिल', अभय तिवारी, अशोक गीते, पूर्णिमा निगम, प्रेमलता नीलम, अंबर प्रियदर्शी, बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार, सोहन सलिल, राजा अवस्थी, आनंद तिवारी, विजय बागरी, रामकिशोर दाहिया, राजकुमार महोबिया, छाया सक्सेना, विनीता श्रीवास्तव, मिथलेश बड़गैया, रानू रुही आदि गीतकारों जन मन रंजन के साथ भव भय भंजन के भाव को शब्द-माल में पिरोकर शारदार्पित करने में कोताही नहीं की। नर्मदांचल में नवगीत को गीत वृक्ष की शाख पर खिले पुष्प के रूप में स्वीकार गया। अधिकांश गीतकारों ने नवतापरक व्यंजनाओं का प्रयोगकर नवगीत रचे। नर्मदा साधना स्थली है, संभवत: इसीलिए इस अञ्चल के शब्द साधक प्रचार और पुरस्कार को हेय मानकर, चुपचाप सृजन यज्ञ करते रहे, कुछ को वार्धक्य में सही पहचान मिल सकी पर अधिकांश अनचीन्हे ही रह गए। 

                              सुदीर्घ साहित्य साधना में निमग्न रहे नर्मदा पुत्रों में १५ अक्टूबर १९४९ को महोबा उत्तर प्रदेश में जन्मे और बुरहानपुर में रचनारत डॉ. वीरेंद्र स्वर्णकार 'निर्झर' अनन्य हैं। एम.ए. हिन्दी, बी.एड., पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त वीरेंद्र जी ने 'बुन्देली कहावतों का भाषा वैज्ञानिक एवं समाज शास्त्रीय अनुशीलन' विषय पर शोध कार्य किया। निर्झर जी हिन्दी बुन्देली में एक ही समय में रचनकर्म करते रहे हैं। बुन्देली पत्रिका मामुलिया के संपादन ने उनके प्रतिभा सूर्य को प्रतिष्ठित किया। आपका रचना संसार को ओंठों पर लगे पहरे (नवगीत, २००५), विप्लव के पल (कविताएँ), ठमक रही चौपाल (दोहा संकलन), वार्ता के वातायन (वार्ता संकलन), सपने हाशियों पर (नवगीत २०१७), संघर्षों की धूप (दोहा सतसई), खिड़की पर सूरज बैठा है (नवगीत २०२२) आदि कृतियों ने समृद्ध किया है। आपके द्वारा संपादित कृतियाँ कजली समय (पाठालोचन), वीर विलास (पाठालोचन २०२०) , बुन्देली फाग काव्य - एक मूल्यांकन, आल्हखंड - शोध और समीक्षा, हिन्दी साहित्य में पर्यावरणीय चेतन, ताप्ती तट से (कविता संग्रह) आदि हैं। आपको"संघर्षों की धूप" के लिए साहित्य अकादमी, भोपाल से अखिल भारतीय भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार (राशि एक लाख रु.) से पुरस्कृत किया गया है।

                              निर्झर जी की चिंता लोक से उत्पन्न काव्य को लोक में मान्यता न मिल पाना रही है। गीति काव्य में समसामयिक यथार्थ और बौद्धिकता के साथ पारंपरिक संवेदनशील सर्व सहिष्णुता के सम्मिश्रण को निर्झर जी आवश्यक मानते हैं। वे नवगीत की सार्थकता छंदहीनता से छांदसिकता की ओर लौटने को मानते हैं। नवगीत में लोकजीवन से संपृक्तता और युगबोध की परिपुष्टता होना आवश्यक है। निर्झर जी के नवगीत हर्ष-विषाद, संशय-विश्वास, गिराव-उठाव, निराशा-आशा का संतुलित समन्वय बैठाल पाते हैं। वस्तुत: नवगीत लेखन कोई विद्रोह या आंदोलन नहीं है, वह तो समाज में सकारात्मक सोच को प्रोत्साहित करने का सृजनात्मक संसाधन है। नवगीत अपने आपमें साधी नहीं है, नवगीत में अंतर्निहित रचनात्मक नवनीत ही उसका प्रदेय है। निर्झर जी के नवगीत की प्रेयसी प्रियतम के विरह में दुख से जायसी की नागमती की तरह जलती नहीं, वह उदास होते हुए भी अमलतासी उजास को याद करती है। प्रगतिवादी नकारात्मकता प्रधान नवगीति स्वर पर सकारात्मकता प्रधान नवाचार निर्झर जी का वैशिष्ट्य है -

साधों की अमलतास के
पियराये दिन उजास के
तिल-तिल आविल
डूबे आस के पुलिन। - (प्रियतम तुम बिन)

                              निर्झर जी पेशे से प्राध्यापक हैं। भटके हुए का पथ-प्रदर्शन उनका शौक ही नहीं फर्ज भी है। वे नवगीत में आत्मावलोकन, आत्मालोचन के चरणों से बढ़ते आत्मोन्नयन की ओर अग्रसर होना चाहते हैं। उनका कवि पूछता है-

चूक गये हम किधर-कहाँ
फिसल गए पाँव से ठिये
सिलसिले गुनाह से हुए
चुटकी भर छाँव के लिए
बाढ़ में कगार की तरह
टूट रहा आदमी । - (छूट रहा आदमी)

                              कथ्य की मौलिकता, भाषा की अर्थपरकता, शब्दों का टटकापन, भाव की उपयुक्तता, शिल्प की नवता, छंद की सहजता, लय की सरसता, सं सामयिकता तथा नव आशा का संचार का सम्मिश्रण ही गीत (नवगीत भी) को कालजयी बनाता है। निर्झर जी के नवगीतों को इन नवों  कसौटियों पर कसा जा सकता है। 'आदमी का हलफ़नामा' शीर्षक नवगीत में निर्झर जी लिखते हैं- 

चुप्पियों में चीख है, संघर्ष है 
ढह गए पल आस के विश्वास के 
खुशबुओं में भी गजब के दंश हैं  
घोर गहरे घाव हैं संत्रास के 
छटपटाती टूटती सी बाँह का 
आदमी ने हाथ थामा है।            - आदमी का हलफ़नामा

                              गीत के अंत में आशावादिता का आभास इस नवगीत को पूर्णता देता है। कहते हैं 'वेल बिगिन इस हाफ डन'। नवगीत के अंत में थामा गया हाथ अगले नवगीत को विरासत में मिलना स्वाभाविक है। \लेकर हाथ चलें' शीर्षक नवगीत  'हाथ थामने' और 'हाथ लेने' के सद्भावना को हाथों हाथ लेने में कोटहे नहीं की है। नवगीत की यह भावमुद्रा आज के समाज की सबसे बड़ी जरूरत है-

ओस नहाई इस बेला में
कुछ पल साथ चलें 
लेकर हाथ चलें। 
तुम मेरी मंशा को समझो 
में तेरे दुख को 
महसूसे कुछ देर इस तरह 
बासंती सुख को 
अहं-दुराग्रह के 
बैलों को नाथ चलें।   - लेकर हाथ चलें 
  
                              निर्झर जी का नवगीतकार अहं और दुराग्रह  से मुक्ति पाकर ही नहीं रुकता अपितु 'दहलीजें अवरोध बनें तो  / झुककर माथ चलें' का गुरु मंत्र देकर दिशा दर्शन भी करता है। 

                              समसामयिक देश-काल में निरंतर निरंकुश होते सत्ताधारी, संवैधानिक संस्थाओं में होता संघर्ष, मनमानी करती लालफीताशाही लोकतंत्र में लोकमंगल की संभावना पर प्रश्नचिह्न लगती है। असहिष्णुता के इस दौर में सत्ता को लेकर आलोचनात्मक अभिव्यक्ति करने का साहस बहुत कम कलमकारों में शेष रहा है। दुष्यंत कुमार द्वारा अंकुरित सत्ता के अनाचारों को साङ्केतिकता से इस तरह उद्घाटित करने की विरासत कि समझनेवाले समझ जाएँ किन्तु जिस पर चोट की गई हो वह तिलमिलाने पर भी प्रतिक्रिया न कर सके, को निर्झर जी ने अपने नवगीतों में पोषित किया है। एक नमूना देखिए- 

हैं बड़े पदनाम 
पर कद बहुत छोटे 
शेर का अभिनय यहाँ 
करते अनाड़ी  कुछ बिलौटे 
सत्य के अंदाज में 
मिथ्याचरण जोड़े गए हैं। - समय के संदर्भ 

                              एक और उदाहरण - 

हैं विकास की अटपट बातें 
योजनाओं की बिछी बिसातें 
रेत नदी की धार पी गई 
व्यर्थ हुई बदल बरसातें    - अजब घड़ी है 

                              भारत की भाषा समस्या राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण कालजयी हो रही है। हिन्दीभाषी क्षेत्र में अंग्रेजी का अंधमोह निर्झर जी के गीतकार को व्यथित करता है। वे लिखते हैं- 

गजब गुलामी की आदत है 
सदियों की ठहरी 
अपने घेर में हेय हुई अपनी ही स्वर लहरी 
नाक कान आँखों के बदले 
नोज इयर आई 
बेटे के मुख माम ममी सुन 
मैया इतराई                                   - गुलामी की आदत 

                              मानव की हर भाषा सरस्वती का ही प्रतिरूप है। इसलिए निर्झर जी अंग्रेजी के अंधविरोध के भी विरोधी है। वे अपने तीनों नवगीत संग्रहों में हिंदीतर शब्दों का यथास्थान बेहिचक प्रयोग करते हैं। भाषिक शुद्धता के संकीर्णपन से मुक्त रहकर वे अनुभूति की अभिव्यक्ति हेतु शब्द की उपयुक्तता के पक्षधर हैं। संतुलित भाषिक आचरण का संकेत इन पंक्तियों में निहित है-  
 
अंग्रेजी तो पढ़ें मगर हिन्दी 
अभिमान बने 
सभी ज्ञान-विज्ञान प्रगति की 
यह पहचान बने 
हमसे यह हो, इससे हम हों 
समझ बने गहरी                  - गुलामी की आदत 

                              गीतकार निर्झर कबेर के वंशज होने के गुरुतर दायित्व का निर्वहन करते हुए धर्म के नाम पर अधर्म ध्वजा फहराते फिर रहे तथाकथित सन्यासियों को ललकारते हैं- 

संतों! सुनों तुम्हारी करनी 
साथ तुम्हारे 
मन में अधम विकार भरा है 
शुद्ध आत्मा नहीं कहीं पर 
इस दर से उस दर तक बैठी 
भोगासक्ति देह देहरी पर 
तिलक त्रिपुण्ड भस्म से मंडित 
झुले-झुके हैं माथ तुम्हारे।         - संतों सुनो 

                              नवगीतों में पुरातन पौराणिक मिथकों के माध्यम से प्रवृत्तियों को संकेतित करते हुए युग-सत्य कहना आसान नहीं होता। निर्झर जी के नवगीत इस निकष पर भी समृद्ध और संपन्न हैं। एक बानगी प्रस्तुत है- 

बरसों से साष्टांग पड़े हैं 
अगणित विंध्याचल 
पर अगस्त के कृपा भाव में 
दिखी नहीं हलचल 
चुल्लू में भर लील गए 
नेता समुद्र सारा।    - सर्वहारा 

                              महाभारत के समर के माध्यम से सम-सामयिक विसंगति का प्रस्तुतीकरण देखिए -

एक महाभारत बाहर 
भीतर भी जारी है 
इच्छाओं की महागणित 
का पलड़ा भारी है 
कुछ लोगों के तकिया 
कुछ के लिए बिछौने हैं।    - खेल खिलौने हैं 

                              निर्झर जी बुंदेली भाषा के उद्भट विद्वान हैं। स्वाभाविक है कि उनके नवगीत में बुंदेली शब्द-लालित्य संपन्न हों। जहाँ ठेठ बुंदेली शब्दों का उपयोग है, वहाँ पाद टिप्पणी में उनके अर्थ दिए जाने की आवश्यकता अनुभव होती है।

कोयल फिर बोल गई
हौले से
संयम के स्वरों को बिथोल गई। - (कोयल फिर बोल गई)

धूप माथे तक चढ़ी पर क्या कहें
द्वार की उरइन अछूती रह गई। - (हासिया)

                              यहाँ 'हौले' बुंदेली शब्द हिंदी में भी प्रयोग होता है किन्तु 'बिथोल', 'उरइन' आदि ग्राम्यांचल में प्रयुक्त हो रहे शब्दों से नगरों में रह रहे पाठक अपरिचित हैं। निर्झर जी के गीतों में प्रयुक्त कुछ बुंदेली शब्दों का आनंद लीजिए- उरइन, बिथोल, छूँछी, थिगरी, सातिया, मुंडेरों, चौहद्दियाँ, थिगरी, टिटकोरी, पपटाए, अँकुआए, कनाव, चिनगी, जुगाने, सनेह, चहुरे, छुवन, घुआ, मुआ, दाय आदि बुन्देली शब्दों को विलोपन के आसन्न संकट से निकाल कार आगामी पीढ़ी तक पहुँचाने के गुरुतर दायित्व का निर्वहन करते हैं निर्झरी नवगीत।  


                              निर्झर जी नवगीतों में शब्द-चयन करते समय भक्षीण शुद्धता के नाम पर थोपी जा रही संकर्णता को नकारते हुए कथ्यानुरूप शब्द चुनते हैं। उनके गीतों में इबारत, आस्तीन, वाकिया, काफिया, तख्ती, आराजी, जिबह, अस्मिता, अनलहक, ख़ुदकुशी, लजीज, सैलाब, फलसफे, सलीब, महसूसो, रस्ता, दर्पन, अर्श, फर्श, जश्न जैसे फारसी शब्द, तपस्थली, मृगदाव, विगलित, इन्द्रासन, मूर्छित, रिक्तियाँ, प्रस्फुटित, शर्वरी, स्तवन जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, अपने बुन्देली शब्द मित्रों के साथ गलबहियाँ डाले मिलते हैं। उनके लिए अंग्रेजी शब्द भी पराए नहीं हैं।                              ,  

                              गीत रचना करते समय निर्झर जी सजग रहते हैं की कोई चूक न हो सके, किन्तु दाग तो चंद्रमा में भी हैँ ही। एक कथ्य दोष देखें। "बुझी हुई चिमनी की फिर से / रोशन हुई शिखा' शिखा रौशन तभी होगी जन चिमनी जल डीई गई हो, बुझी हुई चिमनी तो ज्योति शिखा विहीन होती है। 

                              'मुँह चिड़ा रही मौत / फाख्ता दिन हो गए सुगंधों के' यहाँ 'चिड़ा' शब्द का प्रयोग गलत है। 'चिड़ा' नर चिड़िया को कहते हैं। यहाँ 'चिढ़ा' शब्द क प्रयोग होना चाहिए।  
 
                              'इच्छाओं की महागणित / का पलड़ा भारी है' में लिंग दोष है, 'इच्छाओं के महागणित' होना चाहिए। 

                              निर्झर जी के नवगीतों में नवगीतों में कथ्य के साथ न्याय करते हुए, लोक के अधरों पर आरोहित मुहावरों का सहजता से साथ उपयोग मन मोहता है। एक उदाहरण देखें -

घाटों को छोड़कर परे
एक ओर बह गई नदी
'हवन किया हाथ जल गए'
भला किया हो गई बदी - (छूट रहा आदमी)

                              'बहसें श्रीमंत हो गईं', 'गढ़ना था आदमी मगर/पत्थर के देवता गढ़े', अर्थ मिला आज जब मुझे/और मैं विपन्न हो गया', 'इनके उनके हाथों के हम/खेल-खिलौने', 'आँगन का आँगन आखेटक है', 'आदमी स्वयं से कतरा रहा', 'गाथायें गाथ चलें', 'अपना घर भी अपना नहीं रहा', गजब शराफत क्या कुछ / किसने किसको नहीं  कहा', रेत पर लिखकर लहर / कुछ अनकहा सा कह गई',  जैसे सुरुचिपूर्ण भाषिक प्रयोग पाठक का मन मोहने के साथ कम शब्दों में अधिक अनुभूतियाँ संप्रेषित करने में समर्थ हैं। 

                              मानवीय जिजीविषा की जय गुंजाते निर्झरी नवगीत विसंगतियों में सुसंगति स्थापित कर पाते हैं-

हम तो मिट्टी थे
कुम्हार ने जैसा रूप दिया
बिना हिचकिचाहट के हमने
उसको
खूब जिया ।
बीच कुएं में लटके, तैरे
डूबे, उतराए
फाँसी सहकर भी गहरे से
पानी भर लाये
सब की प्यास बुझे
इसके हित क्या कुछ नहीं किया - (खूब जिया)

                              निर्झर जी बुन्देली आन-बयान की विरासत समेटे-सहेजे शब्द साधना कर रहे हैं। युगीन विसंगतियों से आँखें चार करते हुए भी उनके गीतों में निराशाजनित दैन्य नहीं है। उनका पुरुषार्थ नियति को भी चुनौती देता है। नवगीतों में यह भावमुद्रा निर्झर जी की अपनी देन है-

ऐसे कैसे बह जाएगी
नदी छोड़कर हमें किनारे
हम अनवरत नदी के धारे.... - (नदी के धारे)

                              ये  नवगीत, कहीं-कहीं आव्हान गान गुँजाते प्रतीत होते हैं-

ले कुदाल उठ चलो अभागों
लावारिस अंडे सेना है
माझी का विश्वास नहीं है
अपनी तरी स्वयं खेना है
किसका और भरोसा कैसा
हम अपने ही सगे सहारे - (नदी के धारे)

                              नवगीत को नवाचारित करते निर्झर जी के लिए अनास्था के घटाटोप में आस्था का दीप बालन आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य भी है। उनके लिए सद्भाव और सहयोगजनित 'सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय' की पगडंडी ही नवगीत के लिए बनी है। 'नाम बड़े पर दर्शन छोटे'', 'थोथा चना बाजे घना' की मनोवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए वे लिखते हैं -

हैं नहीं अनुकूल जो  
जो वे प्रश्न सब छोड़े गए हैं। 
समय के संदर्भ ही 
मोड़े गए हैं।
हैं बड़े पदनाम 
पर कद बहुत छोटे 
शेर का अभिनय यहाँ 
करते अनाड़ी कुछ बिलौटे 
सत्य के अंदाज में 
मिथ्याचरण जोड़े गए हैं।    - (समय के संदर्भ) 

                              संस्कृति किसी देश के साहित्य की उद्भवस्थली होती है। पाश्चात्य अपसंस्कृति से प्रदूषित वैचारिक प्रदूषण ग्रस्त नवगीत को विसंगति से निकालकर सुसंगति के साथ प्राणवंत करते निर्झर जी भारतीय जीवन मूल्यों को नवगीत का काठी बनाते हैं- 

पढ़े मंगलाचरण प्रकृति ऋतु 
नदियाँ बहें पयोद झरें 
पर्वत हरे-भरे नभ चूमें 
वृक्ष धरा की गोद भरें। 
सी ओ टू लेकर तरु झूमें   
प्राणवायु संचारित हों 
दूर दूर तक इस धरती में 
सदाचरण विस्तारित हो 
मानवता फिर पंख पसारे
हिलमिल जीव विनोद करें।    - (धरा की गोद भरें) 

                              नवगीत को प्रेरक होना चाहिए। तभी वह नई पीढ़ी के लिए अपनी उपादेयता सिद्ध कर सकेगा।  

कोई और प्रकाश स्रोत क्यों 
अपने स्वयं प्रकाश बनो 

अगर मगर लेकिन परंतु के 
अवरोधों का अर्थ नहीं 
तेरे साहस से टकराएँ 
गिरी सागर सामर्थ नहीं 
युग परिवर्तन की बेला है 
विश्वासों की आस बनो।    - (स्वयं प्रकाश)

                              इस संक्रमण काल में जबकि सनातन मूल्यों और  पुरातन परंपराओं से समृद्ध पारिवारिक जीवनशैली को पूँजीवादजनित शहरीकरण और शासकीय कुनीतिजनित आजीविका के चक्रव्यूह में फँसा युवावर्ग खुद ही विवश होकर तज रहा है, तब नवगीत को उसका संबल बनकर उसे परिवार और समाज से जोड़े रखने की पहल करनी होगी। निर्झर जी का शिक्षक आओने शिष्य के सम्मुख उपस्थित पारिस्थितिक विडंबनाओं को सामने लाकर बदलने की प्रेरणा देता है- 

होना था कुछ और 
और हम 
अपने ही नासूर हुए 
अपनी धरती गगन पवन से 
अपने से ही दूर हुए। 
मौलिकता मर गई कहाँ कब 
नकल और अनुवादों में 
अपनी बोलि बानी भाषा 
रही नहीं संवादों में 
किन्तु परंतु चुटीले आड़े 
तिरछे बेहद क्रूर हुए।       - (निठुर कसूर) 

'क्या विकलांग समय है
हाथ हाथ से छूट रहा'  - (संयम टूट रहा)
   
'बहुत निवेदन किया
और घिघियाए 
समय न हुआ नरम
बढ़ता रहा जखम',   

इधर उधर अरगनी झाँकते 
फटी पिछौरे और कथूले 
चिंता की समृद्ध वादियों 
में कुछ और कैक्टस फूले 
एक्सपायरी डेटोंवाले 
मिले बहुत मरहम   - (बढ़ता रहा जखम) 

जागा उजियारा 
हुआ फिर भुनसारा 
साखी और रमैनी गाता 
तुन तुन इकतारा        - (जग उजियारा)

                              डॉ. वीरेंद्र निर्झर की गीत-नवगीत यात्रा 'ओठों  पर लगे पहरे' और उन्हें लगनेवाले पहरेदारों के सम्मुख नतमस्तक न होकर शब्द प्रहार कर सुनिश्चित करते हैं की 'सपने हाशियों पर' न जाने पाएँ । वे नवगीत के पाठकों को आश्वस्त करते हैं कि विसंगतियों और विडंबनाओं का घटाटोप चाहे जितना सघन हो, 'खिड़की पर सूरज बैठा है' जो नवगीत के माध्यम से अपनी प्रकाश रश्मि बिखेरकर राह दिखा रहा है। नवगीत की इस सकारात्मक भाव मुद्रा को सशक्त कर निर्झर जी ने नार्मदेय बुन्देली संस्कार से नवगीत को अलंकृत  किया है।
***
संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभक्ष ९४२५१८३२४४, ई मेल salil.sanjiv@gmail.com  

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