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बुधवार, 17 मई 2023

'सुमित्र'



संशय के शैवाल

दोहा संकलन

डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र'

*

'टच' करते ही बदलते, मोबाइल के दृश्य।
राजनीति में सभी कुछ, रहता सदा अदृश्य।।
*
नियम सभी पड़ते शिथिल, यदि हों रिश्तेदार।
फ़र्क नहीं तिल भर पड़े, कोई हो सरकार।।
*
अच्छे दिन आए नहीं, बुरे जमाए पैर।
साँस सिसककर माँगती, अपने 'जी' की खैर।।
*
तरस रही है बूँद को, सूख रही है दूब।
बारिश होगी ख्वाब में, खूब खूब और खूब।।
*
आँसू की ताकत तुम्हें, कहाँ पता है यार?
अविरल आँसू धार में, बह जाती सरकार।।
*
थी गुलाब सी ज़िंदगी, कैसे हुई बबूल।
निर्वाचन हमने किया, बने विधायक शूल।।
*
जिनके खाते में लिखा, लूट फिरौती खून।
वे ही अब करवा रहे, संशोधित कानून।।
*
तालाबंदी सत्य की, झूठ फरेब स्वतंत्र।
बच पाएगा क्या भला, बेचारा गणतंत्र।।
*
मोर पपीहा कोकिला, खोजें गुमा बसंत।
हा हा हु हू कर रहे, कागा बने महंत।।
*
जीना हम भी चाहते, सुख-सुविधा के साथ। 
लेकिन वे ही पा रहे, जिनके लंबे हाथ।।  १० 
*
पानी पानी हो गया, जीवन का इतिहास। 
रेत भरी है आँख में, होठों पर है प्यास।। 
*
रावण क्यों जलता नहीं, जला रहे प्रति वर्ष। 
शायद बैठा हृदय में, निकल रहा निष्कर्ष।। 
*
जितने दल हैं देश में, सब हैं सत्यविहीन। 
ऊपर ओढ़े धवलता, भीतर माहा मलीन।। 
*
सूखे सूखे खेत हैं, भूखे हैं खलिहान। 
भरे पेट रहते अगर, मरते नहीं किसान।। 
*
सुलगी बीड़ी हाथ में, गरमा गया किसान। 
हाथ-पैर ठंडे पड़े, आया घर का ध्यान।।  
*
भ्रष्टाचारी जब हँसे, मन में गड़ती कील। 
खौल रही आक्रोश से, स्वाभिमान की झील।। 
*
जो सपने थे आँख में, सभी हुए नीलाम।
लेकिन है मजबूत मन, होगा नहीं गुलाम।। 
*
उसके पल्ले है पड़ी, गई ज़िंदगी ऊब। 
एक नदी घर से निकल, गई नदी में डूब।। 
*
सत्ताधारी जब रहे, सूजी उनकी दाढ़। 
फिर जिनका कब्जा हुआ, डाढ़ें रहें उखाड़।।
*
शिक्षा मंत्री बन गए, बाप पढ़े ना पूत। 
पढ़े-लिखे की हैसियत, हैंडलूम का सूट।। २० 
*
जिनकी पूछें कट गईं, रही न पूछ पछोर। 
बेचारे अब क्या करें, शोर शोर बस शोर।। 
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क्या है उनकी कुंडली, क्या है उनका ज्ञान। 
अरे! अरे! मत पूछिए, सुनिए सिर्फ बयान।। 
*
बहन- बेटियों समझ लो, समय साँड़ बिगड़ैल। 
सोच-समझकर निकलिए, राजनीति की गैल।।
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कितना क्या हम सह रहे, किसे बताएँ यार।
जीवन नैया बह रही, बिना किसी पतवार।। 
*
है शूकर सी ज़िंदगी, जीते हैं इंसान। 
फ़ोटो उनकी खींचकर, लोग हुए धनवान।। 
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चूहे हैं अच्छे-भले, बदतर हैं इंसान। 
चूहेदानी है उन्हें, इनको नहीं मकान।।      
*
ईश्वर अल्ला एक है, अनगिन पूजा स्थान।           
मगर आरती के लिए, मुश्किल एक मकान।। 
*
अनदेखा भगवान है, सुना नाम ही नाम ।  
चाहे जितना लूटिए, ख्वाबों का गोदाम।। 
*
रंग रँगी थी ज़िंदगी, हुई आज बदरंग। 
रिश्ते-नाते काटते, जैसे जूता तंग।। 
*
उद्घाटन की लालसा, करती गई कमाल।
पाँच बरस में खुल गई, रुपयों की टकसाल।। ३० 
हवामहल में बैठकर, देखा करें जमीन।
जिनको समझ साधु सा, निकले वही कमीन।। 
*
राजनीति के पंक में, लिपटे राज्य रंक। 
एक ध्येय सबका यही, मिले पुष्प पर्यंक।। 
*
किसका कितना भरोसा, कितना क्या विश्वास। 
बनी हुई है झोपड़ी ,गत करियो के पास।।
*
दल के दल में फँसी, चुनी हुई सरकार
 चुने चुनाए बिक रहे, अब तो हाट बाजार
*
कैसे क्या खाएँ जिएँ, पिएँ कौन सा नीर
भक्तों ने तो बदल दी, नदियों की तासीर
*
मत कोई बाबा कहो, मत बोलो महराज
गाली से बदतर हुआ राम रहीमी ताज 
*
जेल खेल सा हो गया, लगता है पाखंड
वी.आई.पी. ठाठ से, पेल रहे हैं दंड
*
उसने जो कुछ कहा था, सब है मुझको याद
लेकिन उसने क्या कहा, उसे नहीं है याद
*
रुपया पैसा प्रतिष्ठा, सभी हाथ का मैल
उसी मेल के मोल पर, दुनिया बनी रखैल
*
क्या देखा अल्लाह को, या देखा भगवान
अरे मूर्खो! पूज लो, प्रभु रूपी इंसान  ४० 
*
प्रभु प्रमाण से परे हैं, होता है आभास। 
मिलता है बस उसे ही, जिसको हो विश्वास
*
सब कुछ तुमको मिलेगा, जो कुछ होगी चाह। 
लेकिन तुम भी तो करो, औरों की परवाह।। 
*
तुम तक पहुंचेगी नहीं, अब तो मेरी बात।  
सोच सोच कर बात, यह करती सारी रात।।
सत्ता दल के प्रवक्ता, शेखी रहे बघार। 
उनकी मुद्रा कह रही, दिल्ली में दमदार।।
*
हाय! पटकनी खा गए, बहे धार ही धार।  
किता आत्म विश्वास ने, ऐसा बंटाधार
*
नारे लगे विरोध में, किए रस्ते जाम।  
लेन देन  पक्का हुआ, मिल जुल बैठे शाम।।
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राजनीति  की चाल को, समझ न पाए आप।  
बेटा भी कहने लगा, हमीं तुम्हारे बाप।।
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मूर्ति लगाई इन्होंने, चढ़े गले में हार।  
बाँह चढ़ा वे आ गए, करने को मिस्मार।।
*
शुद्ध हरामी रहे थे, और बहुत बदनाम। 
दल बदला तो हो गए, पावन सीताराम।।
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अच्छे दिन आए नहीं, शुरू बुरे का दौर।  
कुआ खाई के बीच में, नहीं ठिकाना ठौर।। ४० 
*
भूमंडल की बाँसुरी, सुनी हुए बेहोश। 
जिनको समझे बैद्य जी, निकले उम्र फरोश।।
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सपने देखे आँख ने, मन भी हुआ प्रसन्न। 
लेकिन थी सारी ख़ुशी,  गरम तवे पर छन्न।। 
*
इंकलाब की बोलियाँ, हुईं सभी खामोश। 
आई सत्ता शेरनी, चुप साधे खरगोश।।
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फिल्म नहीं है ज़िंदगी, सीढ़ी सच्ची बात। 
क्या बतलाऊँ दर्द का कितना है अनुपात।।
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कंप्यूटर हम है नहीं,  थोड़ी बहुत डिमांड। 
किन्तु सहन हमको नहीं, माउस करे कमांड।।
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माना पुरखे विदेशी, ह्रदय बसा अब देश। 
सभी लोग अब मानते, संविधान आदेश।।
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स्वार्थ पूर्ति की जुगत में, कितने रचे उपाय। 
जाने किसको ख़ुशी दी, जाने किसकी है।.
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कितना मैं सहयोग दूँ, कितने मीठे बोल। 
किन्तु सदा वे उगलते, कडुवाहट के घोल।।
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बंदी कब तक रखोगे, तुम मेरी आवाज़। 
बार बार मैं कहूँगा, छोड़ो रीति रिवाज़।।
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मन तो तुममें ही सदा, रहता है तल्लीन। 
यादें ऐसी उछलतीं, जैसे जल में मीन।।  ५० 
*
ऐसे मन का क्या करूँ, कसती नहीं लगाम। 
मालिक था मैं हो गया, उसका क्रीत गुलाम।।
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ठुमक ठुमक यादें चलीं, छाया का अनुमान। 
मेघों से आच्छन्न नभ, दिखे नहीं दिनमान।।
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यादें कच्ची निबौली, जो थीं कभी रसाल। 
आँखें भी अब हो गईं, यादों की टकसाल।।
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अभी याद को याद है, कल तक थे खुशहाल। 
पल भर में ही हो गया, शहंशाह कंगाल।।
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यादें मर मर जी रहीं, होकर नित्य नवीन। 
यादों में साँसें बसीं, करना पड़ा यकीन।।
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सिसक सिसक यादें कहें, झेल रहे संत्रास। 
जीवन भर का मिल गया, हमको तो वनवास।। 
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दाल गलाने की जुगत, सबकी पतली दाल। 
सरकारों के हाथ में, आश्वासन टकसाल।।                मुहावरा 
*  
दाल गलाएँ किस तरह, सबकी पतली दाल। 
आश्वासन की खोल दी, सत्ता ने टकसाल।। 
*
मँहगाई की मार से, सभी लोग बेहाल। 
ढेर-ढेर भूसा दिखे, खिंचे हमारी खाल।।
*
गाँवों की क्या ज़िंदगी, कैसे जीते लोग। 
बिना सहे कैसे पता, क्या होता दुःख भोग।।  ६० 
*
जो थी दशा किसान की, लगभग वैसी आज। 
हाड़ तोड़ मेहनत करे, जुटता नहीं अनाज।।      मात्राधिक्य 
*
देता ने है सुख दिया, बाँट रहे दुःख आप। 
मीठी बानी बोलकर, हरें ह्रदय संताप।।
*
राजनीति से प्रदूषित, हरा भरा संसार। 
अब अपनों का प्यार भी, लगता है व्यापार।।
*
किसको अपना मानिए, किसे पराया यार। 
घटनाओं से है भरा, जीवन का अखबार।।
*   
कवि लेखक हैं बाप जी, क्या कुछ लिया उखाड़। 
नहीं लगाकर हैं गए , वे रुपयों का झाड़।। 
*
मूरख मन जाने नहीं, आया कैसा दौर। 
कविता फ़विता छोड़ दे, मिले न रोटी कौर।। 
*
वंशवृक्ष है कीमती, माने नहीं फिजूल। 
वृक्ष बता देता हमें, कितना गहरा मूल।। 
*
कौन सही या है गलत, कैसे हो अहसास। 
जिनकी जो प्रतिबद्धता, लिखें वही इतिहास।।
*
जीतने दल हैं देश में, सब हैं सत्यविहीन। 
ऊपर पढ़े धवलता, भीतर माहा मलीन।। 
*
फटी पुरानी पुस्तकें, या फिर मूल्य विचार। 
सबकी हालत एक सी, ज्यों रद्दी अखबार।। ७० 
*  
दाल गलाने की जुगत, सबकी पतली दाल। 
सरकारों के हाथ में, आश्वासन की ढाल।। 
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दाल गलाएँ किस तरह, सबकी पतली दाल। 
आश्वासन की खोल दी, सत्ता ने टकसाल।। 
*
मँहगाई की मार से, सभी लोग बहाल। 
ढेर ढेर भूसा दिखे, खींचे हमारी खाल।। 
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महापुरुष थे तो रहें, हमसे क्या संबंध। 
इस युग में तो स्वार्थ से होते हैं अनुबंध।। 
सभी पुरानी कवि हुए, पाठ्यकर्मों से गोल। 
नए नवाड़े रच रहे, समकालिक भूगोल।। 
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तुलसी सूर कबीर को, पढ़ें न समझें लोग।  
बस इतना जानें पढ़ें, है समाधि संभोग।। 
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है प्रसिद्धि का शॉर्टकट, लिख दें होकर बोल्ड। 
वरना लेखन व्यर्थ है, होगा सब अनसोल्ड।। 
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अगर चाहते शीघ्र ही होना तुम मशहूर। 
जिस सीढ़ी से हो चढ़े, उसे फेंक दो दूर।। 
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शरुद्ध या विश्वास से, रहो दूर ही दूर। 
मस्तक को ऊँचा रखो, रक्खो गर्व जरूर।। 
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रिश्तों का क्या मूल्य अब, पैसा रक्खो पास। 
पैसे हैं तो है सुलभ, बंधु बांधवी दास।।   ८० 
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जन्म दिया माँ बाप ने, किया नहीं अहसान। 
कहते सुत हमसे मिली उन्हें नई पहचान।। 
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कहाँ भाव की माधुरी, कहाँ प्रेम के बैन।
लगते मुँह के बोल यान, जैसे लगे कुनैन।। 
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मूल्यहीन है जिंदगी, मूल्यवान बाजार। 
बुद्धिमान भी बिक रहे, अब रुपए में चार।। 
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दूषित भाषा रच रही, टीखर तेज बयान। 
पाणिनि अब कैसे कहें, मेरा देश महान।। 
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रूखी सुखी रोटियाँ, पतली बासी दाल।
बिना प्याज के खा रहे बाबू वंशीलाल।। 
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देखी मैंने चिरमिरी, दहकी कोल खदान। 
धधक रहा है आज ज्यों, मेरा हिंदुस्तान।।   
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कंबल कीड़ा रेंगता, चले बिना आवाज। 
लच्छन ऐसे दिख रहे, गिरी हार की गाज।। 
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घर में सब है खैरियत, तबीयत मगर उदास। 
लेबनान में ईद को, दिया गया वनवास।। 
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दुनिया में उत्पात का बड़ा सबब है तेल। 
डाकू मीर फकीर में, हो जाता है मेल।। 
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दोहा क्या सुनिए जरा, मल्लाहिन की नाव। 
पहुँचाएगी घाट पर, लेती हुई घुमाव।।   ९० 
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दोहा है मेरे लोए, ज्यों अनहद का नाद। 
बिना तार के तार से, होता है संवाद।। 
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दर्द हमारा मित्र है, दौलत शत्रु समान। 
दर्द जगत सगापन, दौलत दे अभिमान।। 
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विज्ञापन का दौर है, चमक दमक भरपूर। 
छलकाते हैं शब्द छल, सच से कोसों दूर।। 
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भाषा की रक्षा करो, उसका रखो अचार। 
भाषा की टकसाल वह, जिसको कहें बाजार।। 
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मन व्याकुल होने लगे, पाकर देह सुगंध। 
समय कसौटी पर सभी, टूट गए अनुबंध।। 
*
उसके पल्ले है पड़ी, गई जिंदगी ऊब। 
एक नदी घर से निकल, गई नदी में डूब।। 
*
सूखे सूखे खेत हैं, भूखे हैं खलिहान। 
भरे पेट रहते अगर, मरते नहेने किसान।। 
*
सुलगी बीड़ी हाथ में, गरमा गया किसान। 
हाथ -पैर ठंडे पड़े, आया घर का ध्यान।। 
*
भ्रष्टाचारी जब हँसे, मन में गड़ती कील। 
खौल रही आक्रोश से, स्वाभिमान की झील।। 
*
जो सपने थे आँख में, सभी हुए नीलाम। 
लेकिन है मजबूत मन, होगा नहीं गुलाम।। १०० 
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देवालय पर क्या भला, चल किसी का जोर। 
दिल दहलता रोज ही, विहीयपन का शोर।।
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कोई सरबस ले अगर, तो ले ले भगवान। 
मगर पास में छोड़ दे, बच्चों की मुस्कान।। 
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गायत्री के विरह से, होता हृदय अधीर। 
किन्तु प्रियम को देखकर, मन पाता है धीर।। 
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सेवा से बीटा बहु, रक्खे हैं जीवंत। 
ह्रदय वेदना का नहीं, हो पता है अंत।। 
*
सत्ताधारी जब रहे, सूजी उनकी दाढ़। 
फिर जिनका कब्जा हुआ, डाढ़ें रहे उखाड़।। 
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