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रविवार, 28 मई 2023

गीत, तुम, लघुकथा, चित्रगुप्त, मुक्तिका, सरस्वती, अलंकार, चंद्रकांता अग्निहोत्री

आलंकारिक सरस्वती वंदना
*
वाग्देवि वागीश्वरी, वरदा वर दे विज्ञ
- वृत्यानुप्रास (आवृत्ति व्)
कोकिल कंठी स्वर सजे, गीत गा सके अज्ञ
-छेकानुप्रास (आवृत्ति क, स, ग)
*
नित सूरज दैदीप्य हो, करता तव वंदन
- श्रुत्यनुप्रास (आवृत्ति दंतव्य न स द त)
ऊषा गाती-लुभाती, करती
अभिनंदन

- अन्त्यानुप्रास (गाती-भाती)
*
शुभदा सुखदा शांतिदा, कर मैया उपकार
- वैणसगाई (श, क)
हंसवाहिनी हो सदा, हँसकर हंससवार
- लाटानुप्रास (हंस)
*
बार-बार हम सर नवा, करते जय-जयकार
- पुनरुक्तिप्रकाश (बार, जय)
जल से कर अभिषेक नत, नयन बहे जलधार
- यमक (जल = पानी, आँसू)
*
मैया! नृप बनिया नहीं, खुश होते बिन भाव
- श्लेष (भाव = भक्ति, खुशामद, कीमत)
रमा-उमा विधि पूछतीं, हरि-शिव से न निभाव?
- वक्रोक्ति (विधि = तरीका, ब्रह्मा)
*
कनक सुवर्ण सुसज्ज माँ, नतशिर करूँ प्रणाम
- पुनरुक्तवदाभास (कनक = सोना, सुवर्ण = अच्छे वर्णवाली)
मीनाक्षी! कमलांगिनी, शारद शारद नाम
- उपमा (मीनाक्षी! कमलांगिनी), - अनन्वय (शारद)
*
सुमन सुमन मुख-चंद्र तव, मानो 'सलिल' चकोर
- रूपक (मुख-चंद्र), उत्प्रेक्षा (मान लेना)
शारद रमा-उमा सदृश, रहें दयालु विभोर
- व्यतिरेक (उपमेय को उपमान से अधिक बताया जाए)
***
रचना-प्रतिरचना
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
चाँद का टीका लगाकर, माथ पर उसने मुझे,
ओढ़नी दे तारिकाओं की, सुहागिन कह दिया।
संजीव वर्मा 'सलिल'
बिजलियों की, बादलों की, घटाओं की भेंट दे
प्रीत बरसा, स्वप्न का कालीन मैंने तह दिया।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
कैसे कहूँ तुझसे बच के चले जायेंगे कहीं।
पर यहाँ तो हर दर पे तेरा नाम लिखा है।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
चाहकर भी देख पाया, जब न नैनों ने तुझे।
मूँद निज पलकें पढ़ा, पैगाम दिखा है।।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
आज फिर तेरी मुहब्बत ने शरारत खूब की है
नाम तेरा ले रही पर वो बुला मुझको रही है।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
आज फिर तेरी शराफत ने बगावत खूब की है
काम तेरा ले रही पर वो समा मुझमें रही है।।
२८.५.२०१८
***
गीत
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
नेह नर्मदा
पुलक निहारो
विहँस घूमते तीरे-तीरे।
*
क्षमा करो जो करी गलतियाँ
कभी किसी ने भी प्रमाद वश।
आज्ञा-ह्रदय चक्र मत कुंठित
होने देना निज विषाद वश।
खुलकर हँसो
गगन गुंजित हो
जैसे बजते हों मंजीरे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
*
प्रेम करो तो सच्चा करना
कपट-कलुष मत मन में धरना।
समय कहे जब तब तत्क्षण ही
ज्यों की त्यों तन-चादर धरना।
वस्तुजगत के
कंकर फेंको
भावजगत के ले लो हीरे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
*
तोड़ो बंधन, कर नादानी
पीर न देना, कर शैतानी।
कल-कल कलकल लहरियाँ
नर्तित आस मछलिया रानी।
शतदल खिले
चेतना जाग्रत
हूँ छोड़े यश-कीर्ति सजी रे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
***
गीत:
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
साँस जाने का समय आने न पाए।
रास गाने का समय जाने न पाए।
बेहतर है; पेश्तर
मन-राग गाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
हीरकों की खदानों से बीन पत्थर।
फोड़ते क्यों हाय! अपने हाथ निज सर?
समय पूरा हो न पाए
आग लाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
***
ओशो चिंतन:
देता हूँ आकाश मैं सारा भरो उड़ान।
भुला शास्त्र-सिद्धांत सब, गाओ मंगल गान।।
*
खुद पर निर्भर हो उठो, झट नापो आकाश।
पंख खोल कर तोड़ दो, सीमाओं के पाश।।
*
मानव के अस्तित्व की, गहो विरासत नाम।
बाँट वसीयत अन्य को, हो गुमनाम अनाम।।
*
ओ शो यह बढ़िया हुआ, अधरों पर मुस्कान।
निर्मल-निश्छल गा रही, ओशो का गुणगान।।
*
जिससे है नाराजगी, करें क्षमा का दान।
खुलते आज्ञा-ह्रदय के, चक्र शीघ्र मतिमान।।
*
संप्रभु जैसे आओ रे, प्रेम पुकारे मीत।
भिक्षुक जैसे पाओगे, वास्तु जगत की रीत।।
***
हास्य कुंडलिया
गाय समझकर; शेरनी, थाम भर रहे आह!
कहो! समझ अब आ रहा, कहते किसे विवाह?
कहते किसे विवाह, न जिससे छुटकारा हो।
डलती नाक-नकेल, तभी जब पुचकारा हो।।
पड़े दुलत्ती सहो, हँसो ईनाम समझकर।
थाम शेरनी वाह कह रहे; गाय समझकर।।
***
चित्रगुप्त दोहावली
*
चित्रगुप्त का गुप्त है, चित्र न पाओ देख।
तो निज कर्मों का करो, जाग आप ही लेख।।
*
असल-नक़ल का भेद क्या, समय न पाया जान।
असमय बूढ़ा हो गया, भुला राम-रहमान।।
*
अकल शकल के फेर में, गुम हो हुई गुलाम।
अकल सकल के फेर में, खुद खो हुई अनाम।।
*
कल-कल करते कल हुआ, बेकल मन बेचैन।
कलकल जल सम बह सके, तब पाए कुछ चैन।।
२८.५.२०१८
***
गीत
तुम
*
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
रूप अरूप स्वरूप लुभाये
जल में बिम्ब हाथ कब आये?
जो ललचाये, वह पछताये
जिसे न दीखा, वह भरमाये
किससे पूछें
कब अपरा,
कब परा हो गया?
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
तुममें खुद को देख रहा मन
खुदमें तुमको लेख रहा मन
चमन-अमन की चाह सुमन सम
निज में ही अवरेख रहा मन
फूला-फला
बिखर-निखरा
.निर्भरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
कहे अजर यद्यपि है जर्जर
मान अमर पल-पल जाता मर।
करे तारने का दावा पर
खुद ही अब तक नहीं सका तर।
माया-मोह
तजा ज्यों हो
अक्षरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
२८-५-२०१६
***
गीत
*
सभ्य-श्रेष्ठ
खुद को कहता नर
करता अत्याचार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों
काटे? धिक्कार।
*
बोये बीज, लगाईं कलमें
पानी सींच बढ़ाया।
पत्ते, काली, पुष्प, फल पाकर
मनुज अधिक ललचाया।
सोने के
अंडे पाने
मुर्गी को डाला मार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को नित
काटें? धिक्कार।
*
शाखा तोड़ी, तना काटकर
जड़ भी दी है खोद।
हरी-भरी भू मरुस्थली कर
बोनसाई ले गोद।
स्वार्थ साधता क्रूर दनुज सम
मानव बारम्बार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों
काटें? धिक्कार।
*
ताप बढ़ा, बरसात घट रही
सूखे नदी-सरोवर।
गलती पर गलती, फिर गलती
करता मानव जोकर।
दण्ड दे रही कुदरत क्रोधित
सम्हलो करो सुधार।
पालें-पोसें वृक्ष
उन्हीं को हम
काटें? धिक्कार।
*
२६.५.२०१६
***
गीत :
तुम
*
पास आओ ना
*
दूरियाँ हो दूर
निकटता भरपूर
शिव-शिवानी सम
मन हुए कर्पूर
गीत गाओ ना
पास आओ ना
*
धूप में भी छाँव
रूप का मन- गाँव
घाट-बाट न भूल
छोड़ना मत नाव
दूर जाओ ना
पास आओ ना
*
प्रीत के गा गीत
हार में हो जीत
हो नहीं तुम भीत
बना दो नव रीत
मुस्कुराओ ना
पास आओ ना
*
भूलना मत राह
पूर्ण हो हर चाह
मिटे मन की दाह
दंश मत दे डाह
मन मिलाओ न
पास आओ ना
***
नवगीत:
*
अपने घर में
आग लगायें
*
इसको इतना
उसको उतना
शेष बचे जो
किसको कितना?
कहें लोक से
भाड़ में जाएँ
सबके सपने
आज जलायें
*
जिसका सपना
जितना अपना
बेपेंदी का
उतना नपना
अपनी ढपली
राग सुनाएँ
पियें न पीने दें
लुढ़कायें
*
इसे बरसना
उसको तपना
इसे अकड़ना
उसे न झुकना
मिलकर आँसू
चंद बहायें
हाय! राम भी
बचा न पायें
२८-५-२०१५
***
लघुकथा
ज़हर
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त कह ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
*
[साहित्य शिल्पी में २००९ में प्रकाशित]
***
लेख :चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
|| चित्रगुप्त चालिसा ||
ब्रह्मा पुत्र नमामि नमामि, चित्रगुप्त अक्षर कुल स्वामी ||
अक्षरदायक ज्ञान विमलकर, न्यायतुलापति नीर-छीर धर ||
हे विश्रामहीन जनदेवता, जन्म-मृत्यु के अधिनेवता ||
हे अंकुश सभ्यता सृष्टि के, धर्म नीति संगरक्षक गति के ||
चले आपसे यह जग सुंदर, है नैयायिक दृष्टि समंदर ||
हे संदेश मित्र दर्शन के, हे आदर्श परिश्रम वन के ||
हे यममित्र पुराण प्रतिष्ठित, हे विधिदाता जन-जन पूजित ||
हे महानकर्मा मन मौनम, चिंतनशील अशांति प्रशमनम ||
हे प्रातः प्राची नव दर्शन, अरुणपूर्व रक्तिम आवर्तन ||
हे कायस्थ प्रथम हो परिघन, विष्णु हृद्‌य के रोमकुसुमघन ||
हे एकांग जनन श्रुति हंता, हे सर्वांग प्रभूत नियंता ||
ब्रह्म समाधि योगमाया से, तुम जन्मे पूरी काया से ||
लंबी भुजा साँवले रंग के, सुंदर और विचित्र अंग के ||
चक्राकृत गोला मुखमंडल, नेत्र कमलवत ग्रीवा शंखल ||
अति तेजस्वी स्थिर द्रष्टा, पृथ्वी पर सेवाफल स्रष्टा ||
तुम ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र हो, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शुद्र हो ||
चित्रित चारु सुवर्ण सिंहासन, बैठे किये सृष्टि पे शासन ||
कलम तथा करवाल हाथ मे, खड़िया स्याही लिए साथ में ||
कृत्याकृत्य विचारक जन हो, अर्पित भूषण और वसन हो ||
तीर्थ अनेक तोय अभिमंत्रित, दुर्वा-चंदन अर्घ्य सुगंधित ||
गम-गम कुमकुम रोली चंदन, हे कायस्थ सुगंधित अर्चन ||
पुष्प-प्रदीप धूप गुग्गुल से, जौ-तिल समिधा उत्तम कुल के ||
सेवा करूँ अनेको बरसो, तुम्हें चढाँऊ पीली सरसों ||
बुक्का हल्दी नागवल्लि दल, दूध-दहि-घृत मधु पुंगिफल ||
ऋतुफल केसर और मिठाई, कलमदान नूतन रोशनाई ||
जलपूरित नव कलश सजा कर, भेरि शंख मृदंग बजाकर ||
जो कोई प्रभु तुमको पूजे, उसकी जय-जय घर-घर गुंजे ||
तुमने श्रम संदेश दिया है, सेवा का सम्मान किया है ||
श्रम से हो सकते हम देवता, ये बतलाये हो श्रमदेवता ||
तुमको पूजे सब मिल जाये, यह जग स्वर्ग सदृश्य खिल जाए ||
निंदा और घमंड निझाये, उत्तम वृत्ति-फसल लहराये ||
हे यथार्थ आदर्श प्रयोगी, ज्ञान-कर्म के अद्‌भुत योगी ||
मुझको नाथ शरण मे लीजे, और पथिक सत्पथ का कीजे ||
चित्रगुप्त कर्मठता दिजे, मुझको वचन बध्दता दीजे ||
कुंठित मन अज्ञान सतावे, स्वाद और सुखभोग रुलावे ||
आलस में उत्थान रुका है, साहस का अभियान रुका है ||
मैं बैठा किस्मत पे रोऊ, जो पाया उसको भी खोऊ ||
शब्द-शब्द का अर्थ मांगते, भू पर स्वर्ग तदर्थ माँगते ||
आशीर्वाद आपका चाहू, मैं चरणो की सेवा चाहू ||
सौ-सौ अर्चन सौ-सौ पूजन, सौ-सौ वंदन और निवेदन ||
~Kayastha~सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं
चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।
सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेव वाद की परंपरा
इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।
पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य
निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।
उदारता तथा समरसता की विरासत
यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।
२८-५-२०१४
_____________________________


मुक्तिका:
नहीं समझे
*
समझकर भी हसीं ज़ज्बात दिल के दिल नहीं समझे.
कहें क्या जबकि अपने ही हमें अपना नहीं समझे..


कुसुम परिमल से सारे चमन को करता सुवासित है.
चुभन काँटों की चुप सहता कसक भँवरे नहीं समझे..


सियासत की रवायत है, चढ़ो तो तोड़ दो सीढ़ी.
कभी होगा उतरना भी, यही सच पद नहीं समझे..


कही दर्पण ने अनकहनी बिना कुछ भी कहे हरदम.
रहे हम ताकते खुद को मगर दर्पण नहीं समझे..


'सलिल' सबके पखारे पग मगर निर्मल सदा रहता.
हुए छलनी लहर-पग, पीर को पत्थर नहीं समझे..
२८-५-२०११
***

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