कविता:
दिया १
संजीव 'सलिल'
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला।
फिर भी कभी
हाथों को नहीं मला।
होठों को नहीं सिला,
न किया शिकवा गिला।
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया।
इसीलिए तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया।
***
दिया २
*
दिया
राजनीति का,
लोकतंत्र की
झोपड़ी को जला रहा है।
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है।
जब तक जनता
मूक हो देखती जाएगी।
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चर जाएगी।
एकता की लाठी ले
भैंस को भागो अब।
बहुत अँधेरा देखा
दिया एक जलाओ अब।
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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बुधवार, 3 नवंबर 2021
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