कुल पेज दृश्य

बुधवार, 9 जून 2021

बिरसा मुंडा



क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा आदिवासियों के 'भगवान' : अग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में सभाली थी कमान
रांची. 28 अगस्त 1998 को देश की सर्वोच्च संस्था संसद भवन के परिसर में बिरसा मुंडा की मूर्ति का अनावरण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में बिरसा मुंडा को आदिवासी अधिकारों के आरंभिक प्रवर्तक संरक्षक तथा विदेशी सत्ता और दासता के आगे कभी न झुकने वाले योद्धा के रूप में याद करते हुए एक असाधारण लोकनायक की संज्ञा दी थी। 16 अक्टूबर, 1989 इसी संसद भवन के केंद्रीय हॉल में बिरसा मुंडा की भव्य तस्वीर को स्थापित कर देश के राष्ट्रीय नेताओं की श्रेणी में बिरसा मुंडा को प्रथम आदिवासी नेता को महत्ता दी गई।
इस अवसर पर वक्ताओं ने बिरसा मुंडा को एक महान समाज सुधारक, रचनात्मक प्रतिभा के धनी और सबसे अधिक उत्साही राष्ट्रवादी बताते हुए ऐसा महान स्वतंत्रता सेनानी कहा जिसने जीवन पर्यंत स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। 15 नवंबर, 1989 को बिरसा मुंडा पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया। गौरतलब है कि 19-20 मार्च 1940 में रामगढ़ में आयोजित कांग्रेस के महाधिवेशन स्थल का मुख्य द्वार बिरसा मुंडा के नाम पर रखा गया था।
बिरसा मुंडा के संदर्भ में विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने दर्शाया कि देश में चल रहे अन्य राष्ट्रीयता स्वाधीनता संग्राम की भांति ही बिरसा का उलगुलान (आंदोलन) ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी था। बिरसा संपूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे। ऐसी स्वतंत्रता जो राजनीतिक और धार्मिक हो। जिसके लिए पूर्व में छेड़े गए सरदार आंदोलन की सीमाओं से आगे बढ़कर 22 दिसंबर, 1889 की सर्द रात में अपने चुने हुए साथियों की उपस्थिति में संपूर्ण उलगुलान की घोषणा की। अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए दुराग्रही इतिहास और दर्शन अभी भी लोगों के मानस पटल से नहीं हटाया जा सका है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासकार व मानव शास्त्री कुमार सुरेश जैसे कई अन्य वरिष्ठ मनीषियों ने गांव-गांव घूमकर गहन अध्ययन विश्लेषण से बिरसा मुंडा अन्य आदिवासी नायकों व उनके आंदोलनों पर तथ्य व तर्कसंगत विवेचन प्रस्तुत कर नई विचार दृष्टि प्रदान की।
यह उलगुलान था तत्कालीन देशी-विदेशी शोषणकारी सत्ता और शक्तियों से शोषित-वंचित आदिवासी समुदाय को सम्मान-स्वतंत्रता और अधिकार दिलाने के लिए। जिनकी अन्यायकारी शासन व्यवस्था ने पूरे ग्रामीण के साथ-साथ जनजातीय अर्थव्यवस्था के भयावह विघटन तथा आदिवासी समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक बिखराव की कगार पर पहुंचा दिया था। इस उलगुलान के कई महत्वपूर्ण आयाम थे। सामाजिक कूरीतियों के प्रती किया जागरुक
एक ओर जमीन तथा जंगलों से अन्य ग्रामीण व आदिवासी समुदाय को जबरन बेदखल कर जमीन, फसल तथा प्राकृतिक संसाधनों पर फौजी संगीनों के बल पर कायम साम्राज्य का जोरदार प्रतिरोध था तो दूसरी ओर आदिवासी समाज में जड़ जमाई नशाखोरी, अंधविश्वास, कुरीतियों व ओझागीरी इत्यादि गलत प्रवृत्तियों व आदतों के खिलाफ जबरदस्त सांस्कृतिक-सामाजिक जागरण। यह पूरा का पूरा आंदोलन अनुकरणात्मक से अधिक प्रतिरोधात्मक था।
बिचौलिया के खिलाफ आंदोलन
सरदार आंदोलन जो मुख्य रूप से बिचौलिया एवं दिकुओं के खिलाफ था। बिरसा द्वारा छेड़े गए उलगुलान ने समस्त आदिवासी एवं अन्य देशज समुदायों पर भी गहरा असर डालकर उनमें जागरूकता लाने में अभूतपूर्व योगदान दिया। जो उस समय बाहरी आक्रमणों के साथ-साथ अपने समुदाय की भीतर की आंतरिक कमजोरियों से लगातार टूटते और बिखरते जा रहे थे। इसका ही ऐतिहासिक दुष्परिणाम हुआ कि अंग्रेज शासकों द्वारा पुरस्कार के प्रलोभन दिए जाने पर बंदगांव के कुछ लोगों ने विश्वासघात कर धोखे से बिरसा को पकड़वाने का कृत्य कर डाला।कहा था मैं लौट कर आउंगा
आज बिरसा मुंडा के बलिदान दिवस से लेकर उनके जन्मदिवस पर बड़े-बड़े कार्यक्रम के आयोजन से लेकर उनके नाम पर संस्था, स्थान, सड़क व चौराहों इत्यादि के नामकरण की होड़-सी मची हुई है। लेकिन बिरसा के विचारों और मूल्य-दर्शन को स्वयं के अंदर तथा समाज में विस्थापित करने वाले कितने ईमानदार लोग खड़े हैं बिरसा मुंडा भी जानते थे कि यह लड़ाई आखिरी नहीं है। इसीलिए उन्होंने कहा भी कि-मैं लौट कर आऊंगा! क्योंकि उलगुलान का अभी अंत नहीं हुआ है, उलगुलान जारी है...अबुआ दिसुम, अबुआ राज का सफर जारी है!

कोई टिप्पणी नहीं: