दोहा सलिला 
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लिखा बिन लिखे आज कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज। 
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज।।
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अर्थ न रहे अनर्थ में, अर्थ बिना सब व्यर्थ। 
समझ न पाया किस तरह, समझा सकता अर्थ।।
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सजे अधर पर जब हँसी, धन्य हो गयी आप। 
पैमाना कोई नहीं, जो खुशियाँ ले नाप।।
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सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग? 
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग।।
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दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल। 
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल।।
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प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान।
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान।।
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कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग। 
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग।।
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कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख।
मैं जन्मा क्यों द्रुपदसुता,का होता उल्लेख?
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मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर। 
फटक न;  सटके सफलता, अटके; करिए गौर।।  
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३.८.२०१८, ७९९९५५९६१८ 
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