आओ फिर से दीया जलाएं
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल
कालोनी , रामपुर जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२
भरी दोपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोडें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दीया जलाएं
जैसा
हम चिन्तन करते हैं, भविष्य में वही हमारा भाग्य बन जाता है।
इसलिये विचार हमारे भविष्य के निर्माता हैं। हमारे व्यक्तित्व का विकास भूतकाल के विचारों
से ही हुआ है . अतः विचारों के आते ही मन में
यह चिन्तन करना नितान्त अपरिहार्य हो जाता है कि ये किस प्रकार के हैं- ये सकारात्मक
हैं अथवा नकारात्मक। यदि हम चाहते हैं कि भविष्य हमें स्वीकार करे, तो हमें सकारात्मक विचारों को ही
अपने मन में स्थान देना चाहिये . प्रश्न उठता है कि सकारात्मक और नकारात्मक विचारों
को कैसे पहिचाना जाये ? विचार समसामयिक घटनाओ तथा परिवेश से ही उपजते हैं , आज
हमारे समाज में कतिपय राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, सत्ता के दलालों के जमावडे के गठजोड ने
अपने व्यक्तिगत स्वार्थो के लिये देश और समाज को निगल जाने के हर सम्भव यत्न करने में
कोई कसर नहीं छोड़ी है। इससे हमारे मन में नैराश्य
तथा ॠणात्मक विचार आना स्वाभावविक है , ऐसे लोगो की तात्कालिक
भौतिक सफलतायें देककर विभ्रम होता है , और उनके अपनाये गलत तरीको
का ही अनुसरण करने का मन होता है .
राग-द्वेष से ऊपर उठकर मन्थन करने पर सरलता से शुभ और
अशुभ , सही और गलत का निर्णय किया जा सकता है। हमारे वेद पुराण तथा सभी धर्मो के विभिन्न
ग्रंथ हमें शुभ संकल्प करने के लिये प्रेरित
और अशुभ संकल्प के लिये हतोत्साहित करते हैं । यजुर्वेद में कहा गया है कि जिस प्रकार
कुशल सारथि रथ के अश्वों को जहाँ चाहता है, वहाँ ले जाता है,
उसी प्रकार यह मन भी मनुष्य को पता नहीं कहाँ-कहाँ ले जाता है। इसका
समाधान प्रस्तुत करता हुआ मन्त्र कहता है कि
जिस प्रकार रश्मि की सहायता से सारथी अश्वों पर नियन्त्रण करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी सारथी यदि सावधान हो तो मन पर नियन्त्रण किया जा सकता
है।
विज्ञान सम्मत
तथ्य है कि एक दिन में मनुष्य के मन में लगभग 60 हजार
विचार आते हैं पुनः पुनः आवृत्ति करने वाले
विचारों में उन विचारों की प्रमुखता होती है जो चिन्ता का कारण हेते हैं। हमारे मन
का स्वभाव है कि यह राम तत्व की अपेक्षा रावण तत्व का अधिक विचार करता है। इसका कारण
यह है कि प्राप्त की अपेक्षा अप्राप्त की चिन्ता मनुष्य को अधिक सताती है। जो हमें
मिला हुआ है, उसके सुख का अनुभव करने के मुकाबले हम जो नहीं मिला
हुआ है, उसके प्रति अधिक
सजग रहते हैं । इसलिये चिन्तन की दिशा फल पर न होकर कर्म पर रहे तो फल की अप्राप्ति
में आने वाली दुश्चिन्ताओं से मुक्ति पाई जा सकती है।
गीता में इसी लिये
कहा गया है ..
कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन।
इस प्रकार मन में आत्म उत्थान तथा समाज उत्थान की कामना
हो, विचार तदनुकूल हों तो फिर सफलता को प्राप्त करने से कोई कैसे
रोक सकता है? ऐसे विचार सफलता का निष्कण्टक मार्ग हैं। हमारे
विचारो में बृहत् सत्य होना चाहिये अर्थात् ऐसा सत्य हो जो स्व और पर के भेद से ऊपर
हो, केवल अपने या कुछ लोगों के स्वार्थ को ध्यान में रखकर जो
लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, वह संकुचित हो सकता है,
अतः वेद के अनुसार जीवन के लिये निर्धारित किया गया लक्ष्य महान् सत्य
होना चाहिये , जो सबके लिये हितकर हो . उस लक्ष्य की ओर कठोरता
के साथ, तेजस्विता के साथ, प्राणों की पूरी
शक्ति के साथ , प्रयास किया जाना चाहिये। वैचारिक संकल्प यदि
व्रत का रूप ले लेता है, तो फिर उसके सफल होने की सम्भावना बहुत
बढ़ जाती है। अन्यथा कितना भी महान् उद्देश्य हो, संकल्पशक्ति
के अभाव में वह चूर-चूर होकर धराशायी हो जाता है। अच्छे संकल्प करने वाले लोग बहुत
होते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं,सफलता का मात्र
कारण यही है कि उनकी संकल्पशक्ति कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होती। तो आइये सकारात्मक विचारो का दीप प्रज्जवलित करें
. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की
पंक्तियो को साकार करें ...
'आओ फिर से दीया
जलाएं"
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