एक रचना :
संजीव
*
मात्र कर्म अधिकार है'
बता गये हैं ईश।
मर्म कर्म का चाहकर
बूझ न सके मनीष।
'जब आये संतोष धन
सब धन धूरि समान'
अगर सत्य तो कर्म क्यों
करे कहें इंसान?
कर्म करें तो मिलेगा
निश्चय ही परिणाम।
निष्फल कर्म न वरेगा
कोई भी प्रतिमान।
धर्म कर्म है अगर तो
जो न कर रहे कर्म
जीभर भरते पेट नित
आजीवन बेशर्म
क्यों न उन्हें दंडित करे
धर्म, समाज, विधान?
पूजक, अफसर, सेठ या
नेता दुर्गुणवान।
श्रम उत्पादक हो तभी
देश बने संपन्न।
अनुत्पादक श्रम अगर
होगा देश विपन्न।
जो जितना पैदा करे
खर्च करे कम मीत
तभी जुड़े कुछ, विपद में
उपयोगी हो, रीत।
हर जन हो निष्काम तो
निकल जाएगी जान
रहे सकाम बढ़े तभी
जीवन ले सच मान।
***
संजीव
*
मात्र कर्म अधिकार है'
बता गये हैं ईश।
मर्म कर्म का चाहकर
बूझ न सके मनीष।
'जब आये संतोष धन
सब धन धूरि समान'
अगर सत्य तो कर्म क्यों
करे कहें इंसान?
कर्म करें तो मिलेगा
निश्चय ही परिणाम।
निष्फल कर्म न वरेगा
कोई भी प्रतिमान।
धर्म कर्म है अगर तो
जो न कर रहे कर्म
जीभर भरते पेट नित
आजीवन बेशर्म
क्यों न उन्हें दंडित करे
धर्म, समाज, विधान?
पूजक, अफसर, सेठ या
नेता दुर्गुणवान।
श्रम उत्पादक हो तभी
देश बने संपन्न।
अनुत्पादक श्रम अगर
होगा देश विपन्न।
जो जितना पैदा करे
खर्च करे कम मीत
तभी जुड़े कुछ, विपद में
उपयोगी हो, रीत।
हर जन हो निष्काम तो
निकल जाएगी जान
रहे सकाम बढ़े तभी
जीवन ले सच मान।
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