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शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

muktika / hindi gazal

विशेष आलेख: 

मुक्तिका / ग़ज़ल

संजीव
*

मुक्तिका: संस्कृत साहित्य से हिंदी में और अरबी-फ़ारसी साहित्य से उर्दू में एक विशिष्ट शिल्प की काव्य रचनाओं की परंपरा विकसित हुई जिसे ग़ज़ल या मुक्तिका कहा जाता है. इसमें सभी काव्य पंक्तियाँ समान पदभार (वज़्न) की होती हैं. इसके साथ सभी पंक्तियों की लय अर्थात गति-यति समान होती है. पहली दो पंक्तियों में तथा इसके बाद एक पंक्ति को छोड़कर हर दूसरी पंक्ति में तुकांत-पदांत (काफ़िया-रदीफ़) समान होता है. रचना की अंतिम द्विपदी (शे'र) में रचनाकार अपना नाम/उपनाम दे सकता है.

गीतिका: गीतिका हिंदी छंद शास्त्र में एक स्वतंत्र मात्रिक छंद है जिसमें १४-१२ = २६ मात्राएँ हर पंक्ति में होती हैं तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु होता है. इस छंद का मुक्तिका या ग़ज़ल से कुछ लेना-है.
उदहारण : 
रत्न रवि कल धारि कै लग, अंत रचिए गीतिका 
क्यों बि सारे श्याम सुंदर, यह धरी अनरीति का 
पायके नर जन्म प्यारे, कृष्ण के गुण गाइये 
पाद पंकज हीय में धरि, जन्म को फल पाइए
इस छंद में तीसरी, दसवीं, स्रहवींऔर चौबीसवीं मात्राएँ लघु होती हैं.


हिंदी ग़ज़ल को भ्रमवश 'मुक्तिका' नाम दे दिया गया है जो उक्त तथ्य के प्रकाश में सही नहीं है. मुक्तिका सार्थक है क्योंकि इस शिल्प की रचनाओं में हर दो पंक्तियों में भाव, बिम्ब या बात पूर्ण हो जाती है तथा किसी द्विपदी का अन्य द्विपदियों से कोई सरोकार नहीं होता।

कवि (शायर) = कहने / लिखनेवाला.

द्विपदी (शे'र बहुवचन अशआर) = दो पंक्तियाँ जिनका पदभार (वज़्न) तथा छंद समान हो.

शे'र = जानना, अथवा जानी हुई बात.  
 
पंक्ति (मिसरा) = शे'र का आधा हिस्सा , दो मिसरे मिलकर शे'र बनता है. शे'र के दोनों मिसरों का एक ही छंद में तथा किसी बह्र के वज़्न पर होना जरूरी है. द्विपदी में ऐसा बंधन है तो पर कड़ाई से पालन नहीं किया जाता है.
पदांत / पंक्त्यान्त (रदीफ़, बहुवचन रदाइफ) = पंक्ति दुहराया जानेवाला अक्षर, शब्द या शब्द समूह.

तुकांत (काफ़िया, बहुवचन कवाफ़ी) = रदीफ़ के पहले प्रयुक्त ऐसे शब्द जिनका अंतिम भाग समान हो.

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल में पहली दो पक्तियाँ मुखड़ा (मतला) हैं. 'लगे हैं' पदांत (रदीफ़) है जबकि 'आ' की मात्रा तथा 'ने' तुकांत (काफ़िया) है. काफ़िया केवल मात्रा भी हो सकती है.

पदांत (रदीफ़) छोटा हो तो ग़ज़ल कहना आसान होता है किन्तु उस्ताद शायरों ने बड़े रदीफ़ की गज़लें भी कही हैं. मोमिन की प्रसिद्ध ग़ज़ल के दो अशआर:
कभी हममें तुममें भी चाह थी, कभी हममें तुममें भी राह थी 
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेशतर, वो करम कि था मिरे हाल पर
मुझे याद सब है ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो कि न याद हो

यहाँ 'आशना' तथा 'ज़रा' कवाफी हैं जिनमें सिर्फ बड़े आ की मात्रा समान है जबकि सात शब्दों का रदीफ़ ' तुम्हें याद हो कि न याद हो' है.

द्विपदी / मुक्तक / बैत = स्फुट (फुटकर) कही गयी द्विपदी या अवसर विशेष पर कही गयी द्विपदी। इनकी प्रतियोगिता (मुकाबला) को अंत्याक्षरी (बैतबाजी) कहा जाता है.

आरंभिका / उदयिका (मतला): मुक्तिका दो पंक्तियाँ जिनमें समान पदांत-तुकांत हो मुखड़ा (मतला) कही जाती हैं. सामन्यतः एक मतले का चलन (रिवाज़) है किन्तु कवि (शायर) एक से अधिक मतले कह सकता है. दूसरे मतले को मतला सनी, तीसरे मतले को मतला सोम, चौथे मतले को मतला चहारम आदि कहा जाता है. उस्ताद शायर शौक ने १० मतलों की ग़ज़ल भी कही है, जिसमें रदीफ़ भी है. गीत में मुखड़ा, स्थाई अथवा संगीत में टेक पंक्तियाँ जो भूमिका निभाती हैं लगभग वैसी ही भूमिका मुक्तिका में आरंभिका या मतला की होती है.

अंतिका / मक़्ता: मुक्तिका की अंतिम द्विपदी मक़्ता कहलाती है. रचनाकार चाहे तो इन पन्क्तियों में अपना नाम या उपनाम (तखल्लुस) या दोनों रख सकता है.  

उपनाम (तखल्लुस): बहुधा प्रसिद्ध शायरों के असली नाम लोग भूल जाते हैं, सिर्फ उपनाम याद रह जाते हैं, जैसे नीरज, बच्चन, साहिर आदि. कुछ शायर नाम को ही तखल्लुस बना लेते हैं. यथा- फैज़ अहमद फैज़, अपने स्थान का नाम भी तखल्लुस का आधार हो सकता है. जैसे: बिलग्रामी, गोरखपुरी आदि. शायर एक से अधिक तखल्लुस भी रख सकते हैं. यथा मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ ने 'असद' तथा 'ग़ालिब' तखल्लुस रखे थे. शायर मतले और मक़ते दोनों में तखल्लुस का प्रयोग कर सकते हैं.

हर जिस्म दाग़-दाग़ था लेकिन 'फ़राज़' हम
बदनाम यूँ हुए कि बदन पर क़बा न थी
.
जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा

बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आंसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा?

परामर्श (इस्लाह): इसे आम बोलचाल में 'सलाह' कहा जाता है. इसका उद्देश्य सुधार होता है. साहित्य के क्षेत्र में रचनाकार किसी विद्वान गुरु (उस्ताद) को अपनी रचना दिखाकर उसके दोष दूर करवाता है तथा रचना की गुणवत्ता वृद्धि के लिये परिवर्तन (बदलाव) करता है. यही इस्लाह लेना है. रचना-विधान की जानकारी तथा रचना सामर्थ्य हो जाने पर गुरु (उस्ताद) शिष्य (शागिर्द) को परामर्श मुक्त (फारिगुल इस्लाह) घोषित करता है, तब वह स्वतंत्र रूप से काव्य .रचना कर सकता है.हिंदी में अब यह परंपरा बहुत कम है. रचनाकार प्राय: किसी से नहीं सीखते या आधा-अधूरा सीखकर ही लिखने लगते हैं.

भार (वज़्न): काव्य पंक्तिओं को जाँचने के लिये मापदंड या पैमाने यह हैं, इन्हें छंद (बह्र) कहते हैं. बह्र का शब्दार्थ 'समुद्र' है. छंद में अभिव्यक्ति के सम्भावना समुद्र की तरह असीम-अथाह होती है इस भावार्थ में 'बह्र' छंद का पर्याय है. हिंदी में काव्य पंक्तिओं के छंद की गणना मात्रा तथा वारं आधारों पर की जाती है तथा उन्हें मात्रिक तथा वर्णिक छंद में वर्गीकृत किया गया है. उर्दू में लय खण्डों का प्रयोग किया गया है.

तक़तीअ: तक़तीअ का शब्दकोषीय अर्थ 'टुकड़े करना' है. हिंदी का छंद-विन्यास उर्दू का तक़तीअ है. शब्द-विभाजन गण या गण समूह (रुक्न बहुवचन अरकान) के भार पर आधारित होता है.

गण (रुक्न): रुक्न का शाब्दिक अर्थ स्तम्भ है. छंद रचना में गण (शब्द समूह) स्तम्भ के तरह होते हैं जिन पर छंद-भवन का भार होता है. गण ठीक न हो तो छंद ठीक हो ही नहीं सकता।

छंद (बह्र): संस्कृत-हिंदी पिंगल के धारा, प्रामणिका, रसमंजरी आदि छंदों की तरह उर्दू में भी कई छंद ( बह्रें) हैं. जैसे  बह्रे-रमल, बह्रे-हज़ज आदि. कुछ नयमों का पालन कर नये अरकान तथा छंद बनाये जा सकते हैं. अरबी फ़ारसी में प्रचलित मूल बह्रें १९ हैं जिनमें से ७ में एक ही रुक्न की आवृत्ति (दुहराव) होता है. इन्हें मुदर्रफ़ बह्र (एकल छंद) कहा जाता है. शेष १२ बह्रों में एक से अधिक अरकान का प्रयोग किया जाता है. ये मुरक्कब बह्रें (यौगिक छंद) कहलाती हैं.

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