लेख:
बुन्देली लोकरंग की साक्षी :
ईसुरी की फागें
संजीव
.
बुंदेलखंड
के महानतम लोककवि ईसुरी के काव्य में लोकजीवन के सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक
पक्ष पूरी जीवन्तता और रचनात्मकता के साथ उद्घाटित हुए हैं. ईसुरी का वैशिष्ट्य यह
है कि वे तथाकथित संभ्रांतता या पांडित्य से कथ्य, भाषा, शैली आदि उधार नहीं लेते.
वे देशज ग्रामीण लोक मूल्यों और परम्पराओं को इतनी स्वाभाविकता, प्रगाढ़ता और
अपनत्व से अंकित करते हैं कि उसके सम्मुख शिष्टता-शालीनता ओढ़ति सर्जनधारा विपन्न
प्रतीत होने लगती है. उनका साहित्य पुस्तकाकार रूप में नहीं श्रुति परंपरा में
सुन-गाकर सदियों तक जीवित रखा गया. बुंदेलखंड के जन-मन सम्राट महान लोककवि ईसुरी
की फागें गेय परंपरा के कारण लोक-स्मृति और लोक-मुख में जीवित रहीं. संकलनकर्ता
कुंवर श्री दुर्ग सिंह ने १९३१ से १९४१ के मध्य इनका संकलन किया. श्री इलाशंकर
गुहा ने धौर्रा ग्राम (जहाँ ईसुरी लम्बे समय रहे थे) निवासियों से सुनकर फागों का
संकलन किया. अपेक्षाकृत कम प्रचलित निम्न
फागों में ईसुरी के नैसर्गिक कारयित्री प्रतिभा के साथ-साथ बुन्देली लोक परंपरा, हास्य एवं श्रृंगारप्रियता के भी दर्शन होते हैं:
कृष्ण-भक्त ईसुरी वृन्दावन की माटी का महात्म्य
कहते हुए उसे देवताओं के लिए भी दुर्लभ बताते हैं:
अपनी
कृस्न जीभ सें चाटी, वृन्दावन की माटी
दुरलभ
भई मिली ना उनखों, देई देवतन डाटी
मिल ना
सकी अनेकन हारे, पावे की परिपाटी
पायो
स्वाग काहू ने नइयाँ, मीठी है की खाटी
बाही रज
बृजबासिन ‘ईसुर’, हिसदारी में बाटी
कदम कुञ्ज में खड़े कन्हैया राहगीरों
को रास्ता भुला देते हैं, इसलिए पथिक जमुना की राह ही भूल गये हैं अर्थात जमुना से
नहीं जाते. किसी को भुला कर मजा लेने की लोकरीत को ईसुरी अच्छा नहीं मानते और
कृष्ण को सलाह देते हैं कि किसी से अधिक हँसी अच्छी नहीं होती:
आली!
मनमोहन के मारें, जमुना गेल बिसारें
जब देखो
जब खडो कुञ्ज में, गहें कदम की डारें
जो कोउ
भूल जात है रस्ता, बरबस आन बिगारें
जादा
हँसी नहीं काऊ सें, जा ना रीत हमारें
‘ईसुर’
कौन चाल अब चलिए, जे तौ पूरी पारें
रात भर घर से बाहर रहे कृष्ण को अपनी सफाई में
कुछ कहने का अवसर मिले बिना ‘छलिया’ का खिताब देना ईसुरी के ही बस की बात है:
ओइ घर
जाब मुरलियाबारे!, जहाँ रात रये प्यारे
हेरें
बाट मुनइयां बैठीं, करें नैन रतनारे
अब तौ
कौनऊँ काम तुमारो, नइयाँ भवन हमारे
‘ईसुर’
कृष्ण नंद के छौना, तुम छलिया बृजबारे
फगुआ हो और राधा न खेलें, यह कैसे हो सकता है?
कृष्ण सेर हैं तो राधा सवा सेर. दोनों की लीलाओं का सजीव वर्णन करते हैं ईसुरी
मानो साक्षात् देख रहे हों. राधा ने कृष की लकुटी-कमरिया छीन ली तो कृष्ण ने राधा
के सिर से सारी खींच ली. इतना ही हो तो गनीमत... होली की मस्ती चरम पर हुई तो राधा
नटनागर बन गयी और कृष्ण को नारी बना दिया:
खेलें
फाग राधिका प्यारी, बृज खोरन गिरधारी
इन भर
बाहू बाँस को टारो, उन मारो पिचकारी
इननें
छीनीं लकुटि मुरलिया, उन छीनी सिर सारी
बे तो
आंय नंद के लाला, जे बृषभान दुलारी
अपुन
बनी नटनागर ‘ईसुर’, उनें बनाओ नारी
अटारी के सीढ़ी चढ़ते घुंघरू निशब्द हो गए. फूलों
की सेज पर बनवारी की नींद लग गयी, राधा के आते ही यशोदा के अनाड़ी बेटे की बीन
(बांसुरी) चोरी हो गयी. कैसी सहज-सरस कल्पना है:
चोरी गइ
बीन बिहारी की, जसुदा के लाल अनारी की
जामिन
अमल जुगल के भीतर, आवन भइ राधा प्यारी की
नूपुर
सबद सनाके खिंच रये, छिड़िया चड़त अटारी की
बड़ी
गुलाम सेज फूलन की लग गइ नींद मुरारी की
कात
‘ईसुरी’ घोरा पै सें, उठा लई बनवारी की
कृष्ण राधा और गोपियों के चंगुल में फँस गये
हैं. गोपियों ने अपने मनभावन कृष्ण को पकड़कर स्त्री बनाए का उपक्रम करने में कोई
कसर नहीं छोड़ी. कृष्ण की बनमाला और मुरली छीनकर सिर पर साड़ी उढ़ा दी गयी. राधा ने
उन्हें सभी आभूषणों से सजाकर कमर में लंहगा पहना दिया और सखियों के संग फागुन
मनाने में लीन हो गयी हैं. श्रृंगार और हास्य का ऐसा जीवंत शब्द चित्र ईसुरी ही
खींच सकते हैं:
पकरे
गोपिन के मनभावन, लागी नार बनावन
छीन लई
बनमाल मुरलिया, सारी सीस उड़ावन
सकल
अभूषन सजे राधिका, कटि लंहगा पहरावन
नारी
भेस बना के ‘ईसुर’, फगुआ लगी मगावन
ईसुरी प्रेमिका से निवेदन करा रहे हैं कि वह अपने
तीखे नयनों का वार न करे, जिरह-बख्तर कुछ न कर सकेंगे और देखे ही देखते नयन-बाण
दिल के पार हो जायेगा. किसी गुणी वैद्य की औषधि भी काम नहीं आएगी, ईसुरी के दवाई
तो प्रियतमा का दर्शन ही है. प्रणय की ऐसी प्रगाढ़ रससिक्त अभिव्यक्ति अपनी मिसाल
आप है:
नैना ना
मारो लग जैहें, मरम पार हो जैहें
बखतर
झिलम कहा का लैहें, ढाल पार कर जैहें
औषद मूर
एक ना लगहै, बैद गुनी का कैहें
कात
‘ईसुरी’ सुन लो प्यारी, दरस दबाई दैहें
निम्न फाग में ईसुरी नयनों की कथा कहते हैं जो
परदेशी से लगकर बिगड़ गये, बर्बाद हो गये हैं. ये नयना अंधे सिपाही हैं जो कभी लड़कर
नहीं हारे, इनको बहुत नाज़ से काजल की रेखा भर-भरकर पाला है किन्तु ये खो गए और इनसे
बहते आंसुओं से नयी की नयी सारी भीग गयी है. कैसी मार्मिक अभिव्यक्ति है:
नैना
परदेसी सें लग कें, भये बरबाद बिगरकें
नैना
मोरे सूर सिपाही, कबऊँ ना हारे लरकें
जे नैना
बारे सें पाले, काजर रेखें भरकें
‘ईसुर’
भींज गई नई सारी, खोवन अँसुआ ढरकें
श्रृंगार के विरह पक्ष का प्रतिनिधित्व करती यह
फाग ईसुरी और उनकी प्रेमिका रजऊ के बिछड़ने की व्यथा-कथा कहती है:
बिछुरी
सारस कैसी जोरी, रजो हमारी तोरी
संगे-सँग
रहे निसि-बासर, गरें लिपटती सोरी
सो हो
गई सपने की बातें, अन हँस बोले कोरी
कछू
दिनन को तिया अबादो, हमें बता दो गोरी
जबलो
लागी रहै ‘ईसुरी’, आसा जी की मोरी
ईसुरी
की ये फागें श्रृंगार के मिलन-विरह पक्षों का चित्रण करने के साथ-साथ hasya के उदात्त
पक्ष को भी सामने लाती हैं. इनमें हँसी-मजाक, हँसाना-बोलना सभी कुछ है किन्तु
मर्यादित, कहीं भी अश्लीलता का लेश मात्र भी नहीं है. ईसुरी की ये फागें २८ मात्री
नरेन्द्र छंद में रचित हैं. इनमें १६-१२ पर यति का ईसुरी ने पूरी तरह पालन किया
है. सम चरणान्त में गुरु की अधिकता है किन्तु २ लघु भी प्राप्य है. इक फाग में ४,
५ या ६ तक पंक्तियाँ मिलती हैं. एक फाग की सभी पंक्तियों में सम चरणान्त सम्मन है
जबकि विषम चरणान्त में लघु-गुरु का कोई बंधन नहीं है.
*
-समन्वयम
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१.
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