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रविवार, 22 फ़रवरी 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत
संजीव
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दहकते पलाश
फिर पहाड़ों पर.
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हुलस रहा फागुन
बौराया है
बौराया अमुआ
इतराया है
मदिराया महुआ
खिल झाड़ों पर
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विजया को घोंटता
कबीरा है
विजया के भाल पर
अबीरा है
ढोलक दे थपकियाँ 
किवाड़ों पर
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नखरैली पिचकारी
छिप जाती
हाथ में गुलाल के
नहीं आती
पसरे निर्लज्ज हँस 
निवाड़ों पर  

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