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सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

मोगरे के फूल पर थी चांदनी


भोर की ले पालकी आते दिशाओं के कहारों 
के पगों की चाप सुनते स्वप्न में खोई हुई 
नीम की शाखाओं से झरती तुहिन की बूँद पीकर 
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई 
 
पूर्णिमा में ताज पर हो 
छाँह तारों की थिरकती 
याकि जमाना तीर पर हो 
आभ रजती रास करती 
झील नैनी में निहारें 
हिम शिखर प्रतिबिम्ब अपना 
हीरकणियों में जड़ित 
इक रूप की छाया दमकती 
 
दूध से हो एक काया संदली धोई हुई 
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई 
 
वर्ष के बूढ़े थके हारे 
घिसटते पाँव रुककर 
देखते थे अधनिमीलित 
आँख से वह रूप अनुपम
आगतों की धुन रसीली 
कल्पना के चढ़ हिंडोले
छेड़ती थी सांस की 
सारंगियों पर कोई सरगम
 
मोतियों की क्यारियों में रागिनी बोई हुई 
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई 
एक पंकज पर सिमट कर 
क्षीर सागर आ गया हो 
खमज,जयवंती कोई
हिंडोल के सँग गा गया हो 
देवसलिला  तीर पर 
आराधना में हो निमग्ना 
श्वेत आँचल ज्योंकि  प्राची का 
तनिक लहरा गया हो 
 
या कहारों ने तुषारी, कांवरी ढोई  हुई 
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई 
सो, का हो अर्क आकर
घुल गया वातावरण में
कामना की हों उफानें 
कुछ नै अंत:करण  में 
विश्वमित्री भावनाओं का
करे खण्डन  समूचा 
रूपगर्वित मेनका के 
आचरण के अनुकरण में 
 
पुष्पधन्वा के शरों  में टाँकती कोई सुई 
मोगरे के फूल पर है चांदनी सोई हुई 
 
राकेश खंडेलवाल

1 टिप्पणी:

संजीव ने कहा…

राकेश जी! बहुत बधाई इस सार्थक सरस गीत हेतु. आपकी चरुत्व्मायी भाषा मन को मोहती है.