भोर की ले पालकी आते दिशाओं के कहारों
के पगों की चाप सुनते स्वप्न में खोई हुई
नीम की शाखाओं से झरती तुहिन की बूँद पीकर
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई
पूर्णिमा में ताज पर हो
छाँह तारों की थिरकती
याकि जमाना तीर पर हो
आभ रजती रास करती
झील नैनी में निहारें
हिम शिखर प्रतिबिम्ब अपना
हीरकणियों में जड़ित
इक रूप की छाया दमकती
दूध से हो एक काया संदली धोई हुई
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई
वर्ष के बूढ़े थके हारे
घिसटते पाँव रुककर
देखते थे अधनिमीलित
आँख से वह रूप अनुपम
आगतों की धुन रसीली
कल्पना के चढ़ हिंडोले
छेड़ती थी सांस की
सारंगियों पर कोई सरगम
मोतियों की क्यारियों में रागिनी बोई हुई
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई
एक पंकज पर सिमट कर
क्षीर सागर आ गया हो
खमज,जयवंती कोई
हिंडोल के सँग गा गया हो
देवसलिला तीर पर
आराधना में हो निमग्ना
श्वेत आँचल ज्योंकि प्राची का
तनिक लहरा गया हो
या कहारों ने तुषारी, कांवरी ढोई हुई
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई
सो, का हो अर्क आकर
घुल गया वातावरण में
कामना की हों उफानें
कुछ नै अंत:करण में
विश्वमित्री भावनाओं का
करे खण्डन समूचा
रूपगर्वित मेनका के
आचरण के अनुकरण में
पुष्पधन्वा के शरों में टाँकती कोई सुई
मोगरे के फूल पर है चांदनी सोई हुई
राकेश खंडेलवाल
1 टिप्पणी:
राकेश जी! बहुत बधाई इस सार्थक सरस गीत हेतु. आपकी चरुत्व्मायी भाषा मन को मोहती है.
एक टिप्पणी भेजें