शब्द-शब्द से छंद बना तू।
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥
सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥
कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥
खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥
'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 3 सितंबर 2009
गीतिका: संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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3 टिप्पणियां:
यह रचना मन को रुची.
fine
bahut achchhee lagi.
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