चिंतन कण :
अंतिम सत्य
मृदुल कीर्ति
जगत को सत मूरख कब जाने .
दर-दर फिरत कटोरा ले के, मांगत नेह के दाने,
बिनु बदले उपकारी साईं, ताहि नहीं पहिचाने.
आपुनि-आपुनि कहत अघायो, वे सब अब बेगाने.
निज करमन की बाँध गठरिया, घर चल अब दीवाने.
रैन बसेरा, जगत घनेरा, डेरा को घर जाने.
जब बिनु पंख , हंस उड़ जावे, अपने साईं ठिकाने.
पात-पात में लिखा संदेशा , केवल पढ़ही सयाने.
आज बसन्ती, काल पतझरी, अगले पल वीराने.
बहुत जनम धरि जनम अनेका, जनम-जनम भटकाने.
मानुष तन धरि, ज्ञान सहारे, अपनों घर पहिचाने.
विनत
मृदुल
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शनिवार, 26 सितंबर 2009
चिंतन कण : अंतिम सत्य -मृदुल कीर्ति
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मृदुल कीर्ति
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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3 टिप्पणियां:
राग की उपत्यका को तजकर विराग के शिखर पर सृजन-साधना कर पाना सबके बीएस की बात नहीं है. आपने कबीर के फक्कड़पन, मीरां की सधुक्कड़ी और तुलसी के समर्पण को एक साथ इन पंक्तियों में ढल दिया है. साधुवाद...
mridul kirti ✆ ८:४६ PM
Saumya Salil Ji,
Naman.
Your wonderful words for the poem are extremly admireable and remarkable too.
Virtually this is my real treasure, when a scholar gives such a wonderful comments.
punah naman.
I have at least 1000 bhajans,
during my routine work I link myself to HIM, He gives me His messages I write as HE SAYS.
haath se kaam hradya se RAM
Behad sunder Kavita aur us ke oopar Aacharya shre ki tippanni mano
" sone pe suhaga "
wah wah wah ...
अंतर्मन के पवित्र मोती कौन यूं , लुटाता है ?
जो खोकर हर आराम सत कर्म सुफल श्रम पाता है
सादर, स - स्नेह,
- लावण्या
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