सॉनेट
रामकिशोर
*
मधुर मधुर मुस्कान बिखेरें
दर्द न दिल का कभी दिखाते
हर नाते को पुलक सहेजें
अनजाने को भी अपनाते
वाणी मधुर स्नेह सलिला सम
झट हिल-मिल गुल सम खिल जाते
लगता दूर हो गया है तम
प्राची से दिनकर प्रगटाते
शब्दों की मितव्ययिता बरते
कविताओं में सत्य समय का
लिखें लेख पैने मन-चुभते
भान न लेकिन कहीं अनय का
चेहरे छाई रहती भोर
देते खुशियाँ रामकिशोर
२९-१०-२०२२
***
हाइकु
*
करो वंदन
निशि हुई हाइकु
गीत निशीश।
*
मुदित मन
जिज्ञासु हो दिमाग
राग-विराग।
*
चश्मा देखता
चकित चित मौन
चश्मा बहता।
*
अभिनंदन
माहिया-हाइकु का
रोली-चंदन।
*
झूमा आकाश
महमहाया चाँद
लिए चाँदनी।
*
आज की शाम
फुनगी पर चाँद
झूम नाचता
२८-१०-२०२२
***
सराइकी दोहा:
भाषा विविधा:
[सिरायकी पाकिस्तान और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में बोले जानेवाली लोकभाषा है. सिरायकी का उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से हुआ है. इसे लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी आदि भी कहा गया है. सिरायकी की मूल लिपि लिंडा है. मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली इससे मिलती-जुलती बोलियाँ हैं. सिरायकी में दोहा छंद अब तक मेरे देखने में नहीं आया है. मेरे इस प्रथम प्रयास में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है. पाठकों से त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]
*
बुरी आदतां दुखों कूँ, नष्ट करेंदे ईश।
साडे स्वामी तुवाडे, बख्तें वे आशीष।।
*
रोज़ करन्दे हन दुआ, तेडा-मेडा भूल।
अज सुणीज गई हे दुआं,त्रया-पंज दा भूल।।
*
दुक्खां कूँ कर दूर प्रभु, जग दे रचनाकार।
डेवणवाले देवता, वरण जोग करतार।।
*
कोई करे तां क्या करे, हे बदलाव असूल।
कायम हे उम्मीद पे, दुनिया कर के भूल।।
*
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार।
लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
२९-१०-२०१९
*
२९.५.२०१५
एक मुक्तक
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे
पंच पर्व पर प्राण-वर्तिका तम पी पाए
एक छंद
*
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएं न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
*
***
एक छंद
राम के काम को, करे प्रणाम जो, उसी अनाम को, राम मिलेगा
नाम के दाम को, काम के काम को, ध्यायेगा जो, विधि वाम मिलेगा
देश ललाम को, भू अभिराम को, स्वच्छ करे इंसान तरेगा
रूप को चाम को, भोर को शाम को, पूजेगा जो, वो गुलाम मिलेगा
***
मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
२९-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला: २६
व्यतिरेक अलंकार
*
हिंदी गीति काव्य का वैशिष्ट्य अलंकार हैं. विविध काव्य प्रवृत्तियों को कथ्य का अलंकरण मानते हुए
पिंगलविदों ने उन्हें पहचान और वर्गीकृत कर समीक्षा के लिये एक आधार प्रस्तुत किया है. विश्व की
किसी अन्य भाषा में अलंकारों के इतने प्रकार नहीं हैं जितने हिंदी में हैं.
आज हम जिस अलंकार की चर्चा करने जा रहे हैं वह उपमा से सादृश्य रखता है इसलिए सरल है. उसमें
उपमा के चारों तत्व उपमेय, उपमान, साधारण धर्म व वाचक शब्द होते हैं.
उपमा में सामान्यतः उपमेय (जिसकी समानता स्थापित की जाये) से उपमान (जिससे समानता
स्थापित की जाये) श्रेष्ठ होता है किन्तु व्यतिरेक में इससे सर्वथा विपरीत उपमेय को उपमान से भी श्रेष्ठ
बताया जाता है.
श्रेष्ठ जहाँ उपमेय हो, याकि हीन उपमान.
अलंकार व्यतिरेक वह, कहते हैं विद्वान..
तुलना करते श्रेष्ठ की, जहाँ हीन से आप.
रचना में व्यतिरेक तब, चुपके जाता व्याप..
करें न्यून की श्रेष्ठ से, तुलना सहित विवेक.
अलंकार तब जानिए, सरल-कठिन व्यतिरेक..
उदाहरण:
१. संत ह्रदय नवनीत समाना, कहौं कविन पर कहै न जाना.
निज परताप द्रवै नवनीता, पर दुःख द्रवै सुसंत पुनीता.. - तुलसीदास (उपमा भी)
यहाँ संतों (उपमेय) को नवनीत (उपमान) से श्रेष्ठ प्रतिपादित किया गया है. अतः, व्यतिरेक अलंकार है.
२. तुलसी पावस देखि कै, कोयल साधे मौन.
अब तो दादुर बोलिहैं, हमें पूछिहैं कौन.. - तुलसीदास (उपमा भी)
यहाँ श्रेष्ठ (कोयल) की तुलना हीन (मेंढक) से होने के कारण व्यतिरेक है.
३. संत सैल सम उच्च हैं, किन्तु प्रकृति सुकुमार..
यहाँ संत तथा पर्वत में उच्चता का गुण सामान्य है किन्तु संत में कोमलता भी है. अतः, श्रेष्ठ की हीन से तुलना होने के कारण व्यतिरेक है.
४. प्यार है तो ज़िन्दगी महका
हुआ इक फूल है !
अन्यथा; हर क्षण, हृदय में
तीव्र चुभता शूल है ! -महेंद्र भटनागर
यहाँ प्यार (श्रेष्ठ) की तुलना ज़िन्दगी के फूल या शूल से है जो, हीन हैं. अतः, व्यतिरेक है.
५. धरणी यौवन की
सुगन्ध से भरा हवा का झौंका -राजा भाई कौशिक
६. तारा सी तरुनि तामें ठाढी झिलमिल होति.
मोतिन को ज्योति मिल्यो मल्लिका को मकरंद.
आरसी से अम्बर में आभा सी उजारी लगे
प्यारी राधिका को प्रतिबिम्ब सो लागत चंद..--देव
७. मुख मयंक सो है सखी!, मधुर वचन सविशेष
८. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू, चाँद कलंकी वह निकलंकू
९. नव विधु विमल तात! जस तोरा, उदित सदा कबहूँ नहिं थोरा (रूपक भी)
१०. विधि सों कवि सब विधि बड़े, यामें संशय नाहिं
खट रस विधि की सृष्टि में, नव रस कविता मांहि
११. अवनी की ऊषा सजीव थी, अंबर की सी मूर्ति न थी
१२. सम सुबरन सुखमाकर, सुखद न थोर
सीय-अंग सखि! कोमल, कनक कठोर
१३. साहि के सिवाजी गाजी करयौ दिल्ली-दल माँहि,
पाण्डवन हूँ ते पुरुषार्थ जु बढ़ि कै
सूने लाख भौन तें, कढ़े वे पाँच रात में जु,
द्यौस लाख चौकी तें अकेलो आयो कढ़ि कै
१४. स्वर्ग सदृश भारत मगर यहाँ नर्मदा वहाँ नहीं
लड़ें-मरें सुर-असुर वहाँ, यहाँ संग लड़ते नहीं - संजीव वर्मा 'सलिल'
***
***
नवगीत
एक पसेरी
*
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
अनपढ़, बिन पढ़ वह लिखे
जो आँधर को ही दिखे
बहुत सयाने, अति चतुर
टके तीन हरदम बिके
बर्फ कह रहा घाम में
हाथ-पैर झुलसे-सिके
नवगीतों को बाँधकर
खूँटे से कुछ क्यों टिके?
मुट्ठी भर तो लुटा
झोला भर धरना फिर तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
सूरज ढाँके कोहरे
लेते दिन की टोह रे!
नदी धार, भाषा कभी
बोल कहाँ ठहरे-रुके?
देस-बिदेस न घूमते
जो पग खाकर ठोकरें
बे का जानें जिन्नगी
नदी घाट घर का कहें?
मार अहं को यार!
किसी पर मरना फिर तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
लाठी ने कब चाहा
पाये कोई सहारा?
चंदा ने निज रूप
सोच कब कहाँ निहारा
दियासलाई दीपक
दीवट दें उजियारा
जला पतंगा, दी आवाज़
न टेर गुहारा
ऐब न निज का छिपा
गैर पर छिप धरना तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
२९-१०-२०१५
***
नवगीत:
रिश्ते
*
सांस बन गए रिश्ते
.
अनजाने पहचाने लगते
अनचीन्हे नाते, मन पगते
गैरों को अपनापन देकर
हम सोते या जगते
ठगे जा रहे हम औरों से
या हम खुद को ठगते?
आस बन गए रिश्ते
.
दिन भर बैठे आँख फोड़ते
शब्द-शब्द ही रहे जोड़ते
दुनिया जोड़े रूपया-पैसा
कहिए कैसे छंद छोड़ते?
गीत अगीत प्रगीत विभाजन
रहे समीक्षक हृदय तोड़ते
फांस बन गए रिश्ते
.
नभ भू समुद लगता फेरा
गिरता बहता उड़ता डेरा
मीठा मैला खरा होता
'सलिल' नहीं रोके पग-फेरा
दुनियादारी सीख न पाया
क्या मेरा क्या तेरा
कांस बन गए रिश्ते
२९-१०-२०१५
***
नवगीत:
आओ रे!
मतदान करो
भारत भाग्य विधाता हो
तुम शासन-निर्माता हो
संसद-सांसद-त्राता हो
हमें चुनो
फिर जियो-मरो
कैसे भी
मतदान करो
तूफां-बाढ़-अकाल सहो
सीने पर गोलियाँ गहो
भूकंपों में घिरो-ढहो
मेलों में
दे जान तरो
लेकिन तुम
मतदान करो
लालटेन, हाथी, पंजा
साड़ी, दाढ़ी या गंजा
कान, भेंगा या कंजा
नेता करनी
आप भरो
लुटो-पिटो
मतदान करो
पाँच साल क्यों देखो राह
जब चाहो हो जाओ तबाह
बर्बादी को मिले पनाह
दल-दलदल में
फँसो-घिरो
रुपये लो
मतदान करो
नाग, साँप, बिच्छू कर जोड़
गुंडे-ठग आये घर छोड़
केर-बेर में है गठजोड़
मत सुधार की
आस धरो
टैक्स भरो
मतदान करो
***
(कश्मीर तथा अन्य राज्यों में चुनाव की खबर पर )
sanjivani hospital raipur
29-11-1014
नवगीत:
ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर
धर देता
वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता
सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता
रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता
२९-१०-२०१४
***
नवगीत:
सुख-सुविधा में
मेरा-तेरा
दुःख सबका
साझा समान है
पद-अधिकार
करते झगड़े
अहंकार के
मिटें न लफ़ड़े
धन-संपदा
शत्रु हैं तगड़े
परेशान सब
अगड़े-पिछड़े
मान-मनौअल
समाधान है
मिल-जुलकर जो
मेहनत करते
गिरते-उठते
आगे बढ़ते
पग-पग चलते
सीढ़ी चढ़ते
तार और को
खुद भी तरते
पगतल भू
करतल वितान है
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर
***
नवगीत:
देव सोये तो
सोये रहें
हम मानव जागेंगे
राक्षस
अति संचय करते हैं
दानव
अमन-शांति हरते हैं
असुर
क्रूर कोलाहल करते
दनुज
निबल की जां हरते हैं
अनाचार का
शीश पकड़
हम मानव काटेंगे
भोग-विलास
देवता करते
बिन श्रम सुर
हर सुविधा वरते
ईश्वर पाप
गैर सर धरते
प्रभु अधिकार
और का हरते
हर अधिकार
विशेष चीन
हम मानव वारेंगे
मेहनत
अपना दीन-धर्म है
सच्चा साथी
सिर्फ कर्म है
धर्म-मर्म
संकोच-शर्म है
पीड़ित के
आँसू पोछेंगे
मिलकर तारेंगे
***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर
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