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रविवार, 1 अक्तूबर 2023

मेरी बगिया के फूल, प्रताप

पुरोवाक् 
काव्य सलिला में मस्तूल ''मेरी बगिया के फूल''
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर  
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 अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्य और काव्य                                                   

                         अनुभूति और अभिव्यक्ति का नाता पुरातन और अधुनातन दोनों है। जीव में चेतना का संचार होते ही उसे अनुभूति होने लगती है और वह अनुभूतियों को जाने-अनजाने व्यक्त करने लगता है। यह क्रिया जितनी सघन, तीव्र और गहन होती है जीव का अधिकाधिक विकास होता जाता है। मानव अन्य जीवों से अधिक उन्नत, सभ्य और सुसंस्कृत इसीलिए हुआ कि उसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति अन्य जीवों की तुलना में अधिक संवेदनपूर्ण और गतिमय थी और है। मानवीय अभिव्यक्ति के प्रागट्य  का सर्वाधिक संवेदनापूर्ण सृजन माध्यम ध्वनि (काव्य/छंद) है। छंद वह जो छा जाए, मन पर, चिंतन पर, आत्मा पर। काव्यकविता या पद्यसाहित्य की वह विधा है जिसमें किसी भाषा के द्वारा, किसी मनोभाव को कलात्मक रूप से अभिव्यक्त किया जाता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत निबद्ध काव्यात्मक रचना या कृति। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है।रसगंगाधर के अनुसार 'रमणीय' अर्थ प्रतिपादक शब्द संग्रह 'काव्य' है। साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ के अनुसार 'रसात्मक वाक्य  काव्य है'। 

काव्य के प्रकार 
                         काव्यप्रकाश के अनुसार काव्य के तीन प्रकार ध्वनि, गुणीभूत व्यंजना और चित्र हैं। ध्वनि में शब्दों से निकले अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंजना) प्रधान, गुणीभूत व्यंग्य में गौण तथा चित्र या अलंकार में बिना व्यंजना के चमत्कार होता है। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाए। जैसे- नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनने योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य (साहित्य) दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य। पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद हैं। गद्य काव्य के दो भेद कथा और आख्यायिका हैं । काव्य के ३ और प्रकार चंपू, विरुद और कारंभक हैं। 

गीतिकाव्य, प्रबंधकाव्य और मुक्तककाव्य  

                         कवित्व और सांगितिकता प्रधान काव्य को ‘गीतिकाव्य’ कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना से कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। किसी विशिष्ट विषय पर केंद्रित प्रबंध योजनानुसार रचित गीतिकाव्य को प्रबंधकाव्य कहते हैं। प्रबंधकाव्य के दो रूप महाकाव्य (विषय से संबद्ध सकल घटनाक्रम पर केंद्रित) तथा खंड काव्य (किसी घटना विशेष या कालखंड विशेष पर केंद्रित) हैं। मुक्तक काव्य विषय विषय के बंधन से मुक्त रहता है। 

                         मुक्तककाव्य की परम्परा स्फुट सन्देश रचनाओं के रूप में वैदिक युग से ही प्राप्त होती है। ऋग्वेद में सरमा नामक कुत्ते को सन्देशवाहक के रूप में भेजने का प्रसंग है। वैदिक मुक्तककाव्य के उदाहरणों में वसिष्ठ और वामदेव के सूक्त, उल्लेखनीय हैं। रामायण, महाभारत और उनके परवर्ती ग्रन्थों में भी इस प्रकार के स्फुट प्रसंग विपुल मात्रा में उपलब्ध होते हैं। कदाचित् महाकवि वाल्मीकि के शोकोद्गारों में यह भावना गोपित रूप में रही है। पतिवियुक्ता प्रवासिनी सीता के प्रति प्रेषित श्री राम के संदेशवाहक हनुमान, दुर्योधन के प्रति धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा प्रेषित श्रीकृष्ण और सुन्दरी दयमन्ती के निकट राजा नल द्वारा प्रेषित सन्देशवाहक हंस इसी परम्परा के अन्तर्गत गिने जाने वाले प्रसंग हैं। इस सन्दर्भ में भागवत पुराण का वेणुगीत तथा कालिदास कृत मेघदूत उद्धरणीय है जिनकी रसविभोर करने वाली भावना व छवि अब तक मुक्तक काव्यों का आदर्श है।


                         इस पृष्ठ भूमि में ''मेरी बगिया के फूल'' युवा कवि राहुल प्रताप सिंह रचित मुक्तककाव्य है। राहुल समर्पित अध्येता और कर्मठ शिष्य है। वह जिससे जो सीखने योग्य है, सीखता है और विनम्र सम्मान भाव समर्पित कर निरंतर सीखता रहता है, वह उन ज्ञान पिपासुओं में नहीं है जो पंछी की तरह चंद बूंदें पीकर तृप्त हो जाते हैं। इस प्रवृत्ति का परिणाम यह है कि राहुल ने हिंदी व संस्कृत काव्य सलिलाओं की विविध छंद निर्झरियों में अवगाहन कर संतुष्टि पाई है तथा अब वह विविध छंद रचनाओं के माध्यम से काव्यामृत अपने पाठकों को पिला रह है। ''मेरी बगिया के फूल'' के फूल के आरंभ में परंपरा का निर्वहन करते हुए पूज्य जनों (पुरखों और देवगणों) के प्रति प्रणति निवेदन पश्चात ऋतुराज बसंत का यशगान ६४ मात्रिक चौपाई छंद में किया गया है- 


पतझड़ में झरकर धरणी पर, पल्लव पुष्प यहाँ बिखरे जब।

नव -पल्लव नव -पुष्प दिखें, तब नव आगंतुक सखा यहाँ सब।।

भ्रमर-पुष्प आलिंगन करते, मन को विचलित ये करते तब।

योग प्रताप करें हठ का अरु, मन को करतेहै वश में अब।।


                         हिंदी के आदिकवियों में से एक अमीर खुसरो (1253 ईस्वी - अक्तूबर 1325) लोक काव्य 'कहमुकरी' (कोई बात कहकर न स्वीकारना)  की ३३ रचनाओं में कहमुकरीकार राहुल ने आशु चिंतन, अवलोकन सामर्थ्य और रसिक दृष्टि का परिचय दिया है- 


नित सोलह शृंगार रचाऊँ।

उसे देखकर मैं इठलाऊँ।

सम्मुख उसके करूँ समर्पण।

क्या सखि साजन?, ना सखि दर्पण।।२९।।  


                         ६४ मात्रिक चौपाई की आरंभिक ३ पाइयों (चरणों) में पहेली रूप में कुछ कहना, चौथी पाई के अर्ध भाग में सखी द्वारा उत्तर बूझना और शेष अर्ध भाग में नायिका द्वारा उस उत्तर को नकारकर समान लक्षण युक्त अन्य उत्तर बताना, गागर में सागर भरने की तरह है। कहमुकरीकार की शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति क्षमता की कठिन परीक्षा लेती है 'कहमुकरी'। किस तरह एक छंद के विधान का पालन करते हुए समर्थ कवि नव छंद का अन्वेषण करता है, उसका श्रेष्ठ उदाहरण है 'कहमुकरी'। राहुल इस कसौटी पर खरे उतरे हैं। 


                         ११ कुंडलिनी छंद (एक विषय पर केंद्रित दो समतुकांती  द्विपदियाँ जिनका चौथा-पाँचवा चरण समान हो) भी छंद से नव छंद रचना का उदाहरण है- 


आया था जब जगत में, बिलख रहा था खूब।

धीरे-धीरे फिर दिखी, मनमोहक सी दूब।

मनमोहक सी दूब, दिखी हरियाली माया।

लगता ऐसा आज, पुन: है सावन आया।। 


                         कुण्डलिया (एक दोहा+एक रोला) छंद में राहुल ने समसामयिक प्रसंगों को उठाया है। दोहा और रोल की लय भिन्नता को साधने में कुंडलिकार को सफलता मिली है। 


हिंदी भाषा का करें, स्वयं वही अपमान

जो कहते फिरते दिखें, यही राष्ट्र की शान।। 

यही राष्ट्र की शान, बताते जो नर नारी।

हिंदी का उपयोग लगे क्यों उनको भारी।

कहता सदा प्रताप, बने माथे की बिंदी।

देखो कैसे लोग रटेंगे हिंदी-हिंदी।।  


                         सार छंद में विवाह गीत, आरक्षित रेल डब्बे का हाल, सरस छंद में शीत वर्णन, आनंदवर्धक छंद में मातृ वंदना, विधाता छंद में गीत,  गीता, पंच चामर, लावणी,  ककुभ, ताटंक, अर्धाली, तोटक, पंचचामर, दोहा, रोला, सोरठा, मुक्तक, संस्मरण आदि विविध विधाओं का सृजन कर राहुल ने अपनी सृजन सामर्थ्य का परिचय इस कृति में दिया है। 


                         राहुल के पास शब्द सामर्थ्य है, शब्द चयन का सलीका भी है, छंदों में उनकी रुचि और छंद विधान की समझ भी है। कमी है तो छंद-को आत्मसात करने की। इसके पहले कि एक छंद पर अधिकार हो, वे दूसरे-तीसरे छंद को लिखने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि पूर्व छंद पर अधिकार होने के पहले ही वे अन्य छंद रच रहे होते हैं। आत्म कथ्य और संस्मरण में भी यही जल्दबाजी की गई है। 'मेरी बगिया के फूल' के रचनाकार को समझना होगा कि फूल को महकने का समय देना होता है। एक फूल खिलते ही उसमें पानी सींचना बंद कर नया पौधा लगा दें तो अनेक कलियाँ अनखिली ही मुरझा जाती हैं। 


                         'मेरी बगिया के फूल' एक रंग-बिरंगा गुलदस्ता है जिसकर रूप-रस का पान कर मन आह्लादित हो जाता है। इस बगिया के बागबान में प्रतिभा है, समझ है और सामर्थ्य भी। विश्ववाणी हिंदी का सारस्वत कोश उनकी कलम से नि:सृत विविध विधायी अनेक कृतियों से समृद्ध-संपन्न हो, यही कामना है। 

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संपर्क- ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 

चलभाष- ९४२५१८३२४४, एमेल- salil.sanjiv@gmail.com  


                         

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