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सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

माहिया, व्यंग्य गीत, सॉनेट, वीणा, शरतचंद्र, नेपाल, मुक्तिका, ध्वनि, नवगीत, हरिगीतिका, लोकगीत,

माहिया
(पंजाबी छंद)
विधान
१२-१०-१२
सम तुकांत पहला-तीसरा चरण।
मानव शशि पर जाना
द्वेष-घृणा-नफरत
तुम साथ न ले जाना।
रंगों का बंँटवारा
धर्म व मजहब में
चंदा पर भी होगा?
खाई जो है खोदी
जनता के मन में
चंदा पर भी होगी?
९-१०-२०२३
•••
व्यंग्य गीत
हिंदी लिखते डर लगता है
शब्द-अर्थ बेघर लगता है
खाल बाल की एक निकाले
दूजा डाल अक्ल पर ताले
खींचेगा बेमतलब टाँग
'शब्द बदल' कर देगा माँग
वह गर्दभ का स्वर लगता है
हिंदी लिखते डर लिखता है
होती आस्था पल में घायल
करें सियासत पल पल पागल
अच्छा अपना, बुरा और का
चिंतन स्वार्थी हुआ दौर का
बिखरा उजड़ा घर लगता है
हिंदी लिखते डर लगता है
पैसे दे किताब छपवाओ
हाथ जोड़ घर घर दे आओ
पढ़े न कोई, बेचे रद्दी
फिर दूजी दो बनकर जिद्दी
दस्यु प्रकाशक हर लगता है
हिंदी लिखते डर लगता है
कथ्य भाव रस से नहिं नाता
गति-यति-लय द्रोह रहा मन भाता
मठाधीश बन चेले पाले
दे-ले अभिनंदन घोटाले
लघु रवि बड़ा तिमिर लगता है
हिंदी लिखते डर लगता है
इसको हैडेक हुआ पेट में
फ्रीडमता लेडियाँ भेंट लें
'लिव इन' नया मंच नित भाए
सुना चुटकुले कवि कहलाए
सूना पूजा-घर लगता है
हिंदी लिखते डर लगता है
९-१०-२०२२
●●●
सॉनेट
वीणा
वीणा की झंकार, मौन सुन
आँख मूँद ले पहले पगले!
छेड़े मन के तार कौन सुन।
सँभल न दुनिया तुझको ठग ले।
तू है कौन?, कहाँ से आया?
जाना कहाँ न तुझको मालुम
करे सफर, सामान जुटाया।
मेला-ठेला देख गया गुम।
रो-पछता मत, मन बहला ले
गिर, रो चुप हो, धीरज धरना
लूट न लुटना, खो दे, पा ले।
जैसे भी हो बढ़ना-तरना।
वीणा-तार कहें क्या सुन ले
टूटे तार न सपने बुन ले।
९-१०-२०२२
●●●
सॉनेट
शरत्चंद्र
*
शरत्चंद्र की शुक्ल स्मृति से
मन नीलाभ गगन हो हँसता
रश्मिरथी दे अमृत, झट से
कंकर हो शंकर भुज कसता
सलज उमा, गणपति आहट पा
मग्न साधना में हो जाती
ऋद्धि-सिद्धि माँ की चौखट आ
शीश नवा, माँ के जस गाती
हो संजीव सलिल लहरें उठ
गौरी पग छू सकुँच ठिठकती
अंजुरी भर कर पान उमा झुक
शिव को भिगा रिझाकर हँसती
शुक्ल स्मृति पायस सब जग को
दे अमृत कण शरत्चंद्र का
९-१०-२०२२, १५-४३
●●●
मुक्तक-
माँ की मूरत सजीं देख भी आइये।
कर प्रसादी ग्रहण पुण्य भी पाइये।।
मन में झाँकें विराजी हैं माता यहीं
मूँद लीजै नयन, क्यों कहीं जाइये?
*
आस माता, पिता श्वास को जानिए
साथ दोनों रहे आप यदि ठानिए
रास होती रहे, हास होता रहे -
ज़िन्दगी का मजा रूठिए-मानिए
*
९-१०-२०१६
***
एक रचना:
*
ओ मेरी नेपाली सखी!
एक सच जान लो
समय के साथ आती-जाती है
धूप और छाँव
लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं
अपना गाँव।
परिस्थितियाँ बदलती हैं,
दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं
लेकिन दोस्त नहीं बदलते
दिलों के रिश्ते नहीं टूटते।
मुँह फुलाकर रूठ जाने से
सदियों की सभ्यताएँ
समेत नहीं होतीं।
हम-तुम एक थे,
एक हैं, एक रहेंगे।
अपना सुख-दुःख
अपना चलना-गिरना
संग-संग उठना-बढ़ना
कल भी था,
कल भी रहेगा।
आज की तल्खी
मन की कड़वाहट
बिन पानी के बदल की तरह
न कल थी,
न कल रहेगी।
नेपाल भारत के ह्रदय में
भारत नेपाल के मन में
था, है और रहेगा।
इतिहास हमारी मित्रता की
कहानियाँ कहता रहा है,
कहता रहेगा।
आओ, हाथ में लेकर हाथ
कदम बढ़ाएँ एक साथ
न झुकाया है, न झुकाएँ
हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ।
नेता आयेंगे-जायेंगे
संविधान बनेंगे-बदलेंगे
लेकिन हम-तुम
कोटि-कोटि जनगण
न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे
दूध और पानी की तरह
शिव और भवानी की तरह
जन्म-जन्म साथ थे, हैं और रहेंगे
ओ मेरी नेपाली सखी!
***
मुक्तिका :
सूखी नदी भी रेत सीपी शंख दे देती हमें
हम मनुज बहती नदी को नित्य गन्दा कर रहे
.
कह रहे मैया! मगर आँसू न इसके पोंछते
झाड़ पत्थर रेत मछली बेच धंधा कर रहे
.
काल आ मारे हमें इतना नहीं है सब्र अब
गले मिलकर पीठ पर चाकू चलाकर हँस रहे
.
व्यथित प्रकृति रो रही, भूचाल-तूफां आ रहे
हम जलाने लाश अपनी आप चंदा कर रहे
.
सूरज ठहाका लगाता है, देख कोशिश बेतुकी
मलिन छवि भायी नहीं तो दीप मंदा कर रहे
.
वाह! शाबाशी खुदी को दे रहे कर रतजगा
बाँह में ये, चाह में वो आह फंदा कर रहे
.
सभ्यता-तरु पौल डाला, मूल्य अवमूल्यित किये
पांच अँगुली हों बराबर, 'सलिल' रंदा कर रहे
९-१०-२०१५
***
काव्य का रचना शास्त्र : १
।-संजीव 'सलिल'
-ध्वनि कविता की जान है...
ध्वनि कविता की जान है, भाव श्वास-प्रश्वास।
अक्षर तन, अभिव्यक्ति मन, छंद वेश-विन्यास।।
अपने उद्भव के साथ ही मनुष्य को प्रकृति और पशुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ा। सुन्दर, मोहक, रमणीय प्राकृतिक दृश्य उसे रोमांचित, मुग्ध और उल्लसित करते थे। प्रकृति की रहस्यमय-भयानक घटनाएँ उसे डराती थीं । बलवान हिंस्र पशुओं से भयभीत होकर वह व्याकुल हो उठता था। विडम्बना यह कि उसका शारीरिक बल और शक्तियाँ बहुत कम। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उसके पास देखे-सुने को समझने और समझाने की बेहतर बुद्धि थी।
बाह्य तथा आतंरिक संघर्षों में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने और अन्यों की अभिव्यक्ति को ग्रहण करने की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास कर मनुष्य सर्वजयी बन सका। अनुभूतियों को अभिव्यक्त और संप्रेषित करने के लिए मनुष्य ने सहारा लिया ध्वनि का। वह आँधियों, तूफानों, मूसलाधार बरसात, भूकंप, समुद्र की लहरों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ आदि से सहमकर छिपता फिरता। प्रकृति का रौद्र रूप उसे डराता।
मंद समीरण, शीतल फुहार, कोयल की कूक, गगन और सागर का विस्तार उसमें दिगंत तक जाने की अभिलाषा पैदा करते। उल्लसित-उत्साहित मनुष्य कलकल निनाद की तरह किलकते हुए अन्य मनुष्यों को उत्साहित करता। अनुभूति को अभिव्यक्त कर अपने मन के भावों को विचार का रूप देने में ध्वनि की तीक्ष्णता, मधुरता, लय, गति की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति, लालित्य-रुक्षता आदि उसकी सहायक हुईं। अपनी अभिव्यक्ति को शुद्ध, समर्थ तथा सबको समझ आने योग्य बनाना उसकी प्राथमिक आवश्यकता थी।
सकल सृष्टि का हित करे, कालजयी आदित्य।
जो सबके हित हेतु हो, अमर वही साहित्य।।
भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्त करने का यह प्रयास ही कला के रूप में विकसित होता हुआ साहित्य के रूप में प्रस्फुटित हुआ। सबके हित की यह मूल भावना 'हितेन सहितं' ही साहित्य और असाहित्य के बीच की सीमा रेखा है जिसके निकष पर किसी रचना को परखा जाना चाहिए। सनातन भारतीय चिंतन में 'सत्य-शिव-सुन्दर' की कसौटी पर खरी कला को ही मान्यता देने के पीछे भी यही भावना है। 'शिव' अर्थात 'सर्व कल्याणकारी, 'कला कला के लिए' का पाश्चात्य सिद्धांत पूर्व को स्वीकार नहीं हुआ। साहित्य नर्मदा का कालजयी प्रवाह 'नर्मं ददाति इति नर्मदा' अर्थात 'जो सबको आनंद दे, वही नर्मदा' को ही आदर्श मानकर सतत सृजन पथ पर बढ़ता रहा।
मानवीय अभिव्यक्ति के शास्त्र 'साहित्य' को पश्चिम में 'पुस्तकों का समुच्चय', 'संचित ज्ञान का भंडार', जीवन की व्याख्या', आदि कहा गया है। भारत में स्थूल इन्द्रियजन्य अनुभव के स्थान पर अन्तरंग आत्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को अधिक महत्व दिया गया। यह अंतर साहित्य को मस्तिष्क और ह्रदय से उद्भूत मानने का है। आप स्वयं भी अनुभव करेंगे के बौद्धिक-तार्किक कथ्य की तुलना में सरस-मर्मस्पर्शी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। विशेषकर काव्य (गीति या पद्य) में तो भावनाओं का ही साम्राज्य होता है।
होता नहीं दिमाग से, जो संचालित मीत।
दिल की सुन दिल से जुड़े, पा दिलवर की प्रीत।।
साध्य आत्म-आनंद है :काव्य का उद्देश्य सर्व कल्याण के साथ ही निजानंद भी मान्य है। भावानुभूति या रसानुभूति काव्य की आत्मा है किन्तु मनोरंजन मात्र ही साहित्य या काव्य का लक्ष्य या ध्येय नहीं है। आजकल दूरदर्शन पर आ रहे कार्यक्रम सिर्फ मनोरंजन पर केन्द्रित होने के कारण समाज को कुछ दे नहीं पा रहे जबकि साहित्य का सृजन ही समाज को कुछ देने के लिये किया जाता है।
जन-जन का आनंद जब, बने आत्म-आनंद।
कल-कल सलिल-निनाद सम, तभी गूँजते छंद।।
काव्य के तत्व:
बुद्धि भाव कल्पना कला, शब्द काव्य के तत्व।
तत्व न हों तो काव्य का, खो जाता है स्वत्व।।
बुद्धि या ज्ञान तत्व काव्य को ग्रहणीय बनाता है। सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य, शिव-अशिव, सुन्दर-असुंदर, उपयोगी-अनुपयोगी में भेद तथा उपयुक्त का चयन बुद्धि तत्व के बिना संभव नहीं। कृति को विकृति न होने देकर सुकृति बनाने में यही तत्व प्रभावी होता है।
भाव तत्व को राग तत्व या रस तत्व भी कहा जाता है। भाव की तीव्रता ही काव्य को हृद्स्पर्शी बनाती है। संवेदनशीलता तथा सहृदयता ही रचनाकार के ह्रदय से पाठक तक रस-गंगा बहाती है।
कल्पना लौकिक को अलौकिक और अलौकिक को लौकिक बनाती है। रचनाकार के ह्रदय-पटल पर बाह्य जगत तथा अंतर्जगत में हुए अनुभव अपनी छाप छोड़ते हैं। साहित्य सृजन के समय अवचेतन में संग्रहित पूर्वानुभूत संस्कारों का चित्रण कल्पना शक्ति से ही संभव होता है। रचनाकार अपने अनुभूत तथ्य को यथावत कथ्य नहीं बनाता। वह जाने-अनजाने सच=झूट का ऐसा मिश्रण करता है जो सत्यता का आभास कराता है।
कला तत्त्व को शैली भी कह सकते हैं। किसी एक अनुभव को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते हैं। हर रचनाकार का किसी बात को कहने का खास तरीके को उसकी शैली कहा जाता है। कला तत्व ही 'शिवता का वाहक होता है। कला असुंदर को भी सुन्दर बना देती है।
शब्द को कला तत्व में समाविष्ट किया जा सकता है किन्तु यह अपने आपमें एक अलग तत्व है। भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द ही होता है। रचनाकार समुचित शब्द का चयन कर पाठक को कथ्य से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है।
साहित्य के रूप :
दिल-दिमाग की कशमकश, भावों का व्यापार।
बनता है साहित्य की, रचना का आधार।।
बुद्धि तत्त्व की प्रधानतावाला बोधात्मक साहित्य ज्ञान-वृद्धि में सहायक होता है। हृदय तत्त्व को प्रमुखता देनेवाला रागात्मक साहित्य पशुत्व से देवत्व की ओर जाना की प्रेरणा देता है। अमर साहित्यकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे साहित्य को 'रचनात्मक साहित्य' कहा है।
लक्ष्य और लक्षण ग्रन्थ :
रचनात्मक या रागात्मक साहित्य के दो भेद लक्ष्य ग्रन्थ और लक्षण ग्रन्थ हैं । साहित्यकार का उद्देश्य अलौकिक आनंद की सृष्टि करना होता है जिसमें रसमग्न होकर पाठक रचना के कथ्य, घटनाक्रम, पात्रों और सन्देश के साथ अभिन्न हो सके।
लक्ष्य ग्रन्थ में रचनाकार नूतन भावः लोक की सृष्टि करता है जिसके गुण-दोष विवेचन के लिए व्यापक अध्ययन-मनन पश्चात् कुछ लक्षण और नियम निर्धारित किये गए हैं ।
लक्ष्य ग्रंथों के आकलन अथवा मूल्यांकन (गुण-दोष विवेचन) संबन्धी साहित्य लक्षण ग्रन्थ होंगे। लक्ष्य ग्रन्थ साहित्य का भावः पक्ष हैं तो लक्षण ग्रन्थ विचार पक्ष।
काव्य के लक्षणों, नियमों, रस, भाव, अलंकार, गुण-दोष आदि का विवेचन 'साहित्य शास्त्र' के अंतर्गत आता है 'काव्य का रचना शास्त्र' विषय भी 'साहित्य शास्त्र' का अंग है।
साहित्य के रूप -- १. लक्ष्य ग्रन्थ : (क) दृश्य काव्य, (ख) श्रव्य काव्य।
२.लक्षण ग्रन्थ: (क) समीक्षा, (ख) साहित्य शास्त्र।
***
मौसम बदल रहा
मौसम बदल रहा है, टेर रही अमराई
परिवर्तन की आहट, पनघट आई
जन-आकांक्षा नभ को छूती, नहीं अचंभा
छाँव प्रतिनिधि, ज्यों बिजली का खंभा
आश्वासन की गर्मी, सूरज पीटे डंका
शासन भरमाता है, जनगण-मन में शंका
अपचारी ने निष्ठा, बरगद पर लटकाई
मौनी बाबा गायब, दूजा बड़बोला है
रंग भंग में मिलकर बाकी ने घोला है
पत्नी रुग्णा लेकिन रास रचाये बुढ़ापा
सुत से छोटी बीबी,लाई घर में स्यापा
घोटालों में पीछे, ना सुत नहीं जमाई
अच्छे दिन आये हैं, रखो साल भर रोजा
घाटा घटा सकें हम, यही रास्ता खोजा
हिंदी की बिंदी भी रुचे, न माँ-मस्तक पर
धड़क रहा दिल जन का, सुन द्वारे पर दस्तक
क्यों विरोध की खातिर ही विरोध हो भाई?
***
नवगीत
आस कबीर
नहीं हो पायी
हास भले कल्याणी है
प्यास प्राण को
देती है गति
रास न करने
देती है मति
परछाईं बन
त्रास संग रह
रुद्ध कर रहा वाणी है
हाथ हाथ के
साथ रहे तो
उठा रख सकें
विनत माथ को
हाथ हाथ मिल
कर जुड़ जाए
सुख दे-पाता प्राणी है
नयन मिलें-लड़
झुक-उठ-बसते
नयनों में तो
जीवन हँसते
श्वास-श्वास में
घुलकर महके
जीवन चोखी ढाणी है
***
नवगीत:
नेताजी को
श्रद्धांजलि है
नेताजी की
अनुयायी के
विरोध में हैं
कहते बिलकुल
अबोध ये हैं
कई बरस का
साथ न प्यारा
प्यारी सत्ता
नहीं मित्रता
नेताजी की
अपनी कथनी
अपना काम
मुँह पर
गाँधीजी का नाम
गह नव आशा
गढ़ नव भाषा
निज हितकारक
साफ़-सफाई
नेताजी की
९-१०-२०१४
***
नवगीत:
उत्सव का मौसम
*
उत्सव का मौसम
बिन आये ही सटका है...
*
मुर्गे की टेर सुन
आँख मूँद सो रहे.
उषा की रूप छवि
बिन देखे खो रहे.
ब्रेड बटर बिस्कुट
मन उन्मन ने
गटका है.....
*
नाक बहा, टाई बाँध
अंगरेजी बोलेंगे.
अब कान्हा गोकुल में
नाहक ना डोलेंगे..
लोरी को राइम ने
औंधे मुँह पटका है...
*
निष्ठा ने मेहनत से
डाइवोर्स चाहा है.
पद-मद ने रिश्वत का
टैक्स फिर उगाहा है..
मलिन बिम्ब देख-देख
मन-दर्पण चटका है...
*
देह को दिखाना ही
प्रगति परिचायक है.
राजनीति कहे साध्य
केवल खलनायक है.
पगडंडी भूल
राजमार्ग राह भटका है...
*
मँहगाई आयी
दीवाली दीवाला है.
नेता है, अफसर है
पग-पग घोटाला है.
अँगने को खिड़की
दरवाजे से खटका है...
***
हरिगीतिका:
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
९-१०-२०११
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
लोकगीत:
हाँको न हमरी कार.....
*
पोंछो न हमरी कार
ओ बलमा!
हाँको न हमरी कार.....
हाँको न हमरी कार,
ओ बलमा!
हाँको न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़,
कहे जग -
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे 'बलम अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, न करियो रार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
***
नव गीत:
कैसी नादानी??...
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
****
बाल गीत / नव गीत:
खोल झरोखा....
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
बाल गीत:
माँ-बेटी की बात
*
रानी जी को नचाती हैं महारानी नाच.
झूठ न इसको मानिये, बात कहूँ मैं साँच..
बात कहूँ मैं साँच, रूठ पल में जाती है.
पल में जाती बहल, बहारें ले आती है..
गुड़िया हाथों में गुड़िया ले सजा रही है.
लोरी गाकर थपक-थपक कर सुला रही है.
मारे सिर पर हाथ कहे: ''क्यों तंग कर रही?
क्यों न रही सो?, क्यों निंदिया से जंग कर रही?''
खीज रही है, रीझ रही है, हो बलिहारी.
अपनी गुड़िया पर मैया की गुड़िया प्यारी..
रानी माँ हैरां कहें: ''महारानी सो जाओ.
आँख बंद कर अनुष्का! सपनों में मुस्काओ.
तेरे पापा आ गए, खाना खिला, सुलाऊँ.
जल्दी उठना है सुबह, बिटिया अब मैं जाऊँ?''
बिटिया बोली ठुमक कर: ''क्या वे डरते हैं?'
क्यों तुमसे थे कह रहे: 'तुम पर मरते हैं?
जीते जी कोई कभी कैसे मर सकता?
बड़े झूठ कहते तो क्यों कुछ फर्क नहीं पड़ता?''
मुझे डाँटती: ''झूठ न बोलो तुम समझाती हो.
पापा बोलें झूठ, न उनको डाँट लगाती हो.
मेरी गुड़िया नहीं सो रही, लोरी गाओ, सुलाओ.
नाम न पापा का लेकर, तुम मुझसे जान बचाओ''..
हुई निरुत्तर माँ गोदी में ले बिटिया को भींच.
लोरी गाकर सुलाया, ममता-सलिल उलीच..
९-१०-२०१०

***

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