ॐ
चित्रगुप्त भजन सलिला:
*
१. शरणागत हम
शरणागत हम चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आए
*
अनहद; अक्षय; अजर; अमर हे!
अमित; अभय; अविजित; अविनाशी
निराकार-साकार तुम्ही हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी
पथ-पग; लक्ष्य-विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता-प्रत्याशी
तिमिर मिटाने अरुणागत हम
द्वार तिहारे आए
*
वर्ण; जात; भू; भाषा; सागर
अनिल;अनल; दिश; नभ; नद ; गागर
तांडवरत नटराज ब्रह्म तुम
तुम ही बृज रज के नटनागर
पैगंबर ईसा गुरु तुम ही
तारो अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो; चरणागत हम
झलक निहारें आए
*
आदि-अंत; क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि-कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण; यश-अपयश चक्रित
छाया-माया; सुख-दुःख सम हो
द्वेष भुला दो; करुणाकर हे!
सुनो पुकारें, आए
*
२. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...
*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
३. समय महा बलवान...
*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
*
देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कैसे कब संयोग?...
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएँ
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
*
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
४. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...
*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जयी तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
*
सॉनेट ग्रहण
●
ग्रहण न लगता सूर्य को
चमके सूर्य बिना रुके
शीश तिमिर का ही झुके
कर न अदेखा तूर्य को।
ग्रहण करे कर्तव्य-पथ
रोके रुके न रवि कभी
पाएँ उजाला हम सभी
सतत सूर्य का बढ़े रथ।
ग्रह न टरे, गृह-शांति हो
शेष न किंचित भ्रांति हो
जन हितकारी क्रांति हो
सूर्य ग्रहण आया-गया
जो होना था वह हुआ
पुरा पुरातन, चिर नया
२५-१०-२०२२
●●●
दीपावली पर मुक्तकांजलि:
*
सत्य-शिव-सुंदर का अनुसन्धान है दीपावली.
सत-चित-आनंद का अनुगान है दीपावली..
प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल जीवन हो 'सलिल'-
मनुजता को समर्पित विज्ञान है दीपावली..
*
धर्म, राष्ट्र, विश्व पर अभिमान है दीपावली.
प्रार्थना, प्रेयर सबद, अजान है दीपावली..
धर्म का है मर्म निरासक्त कर्म ही 'सलिल'-
निष्काम निष्ठा लगन का सम्मान है दीपावली..
*
पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान है दीपावली.
आँख में पलता हसीं अरमान है दीपावली..
आन-बान-शान से जीवन जियें हिलमिल 'सलिल'-
अस्त पर शुभ सत्य का जयगान है दीपावली..
*
निस्वार्थ सेवा का सतत अभियान है दीपावली.
तृषित अधरों की मधुर मुस्कान है दीपावली..
तराश कर कंकर को शंकर जो बनाते हैं 'सलिल'-
वही सृजन शक्तिमय इंसान हैं दीपावली..
*
सर्व सुख के लिये निज बलिदान है दीपावली.
आस्था, विश्वास है, ईमान है दीपावली..
तूफ़ान में जो अँधेरे से जीतता लड़कर 'सलिल'-
उसी नन्हे दीप का यशगान है दीपावली..
***
पंजाबी छंद माहिया
*
चल दीपक बन जाएँ
धरती माँ बल दे
अँधियारा पी पाएँ
*
वसुधा सबकी माता
करें सफाई सब
चल हाथ मिला भ्राता
*
रजनीश गले मिलता
रश्मि हाथ फैला
झट अरुण भरे भुज में
*
अरविंद पंक में खिल
सलिल साथ मिलकर
देवों के सिर चढ़ता
*
माटी का दीप उठा
स्नेह स्नेह का भर
श्रम बाती बना जला
*
संजीव सृष्टि कण-कण
सबमें प्रभु बसता
सबसे पथ समरसता
*
तम नष्ट नहीं होता
दीपक के नीचे
छिप उजियारा बोता
*
***
नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:
गीत
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..
अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..
था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..
बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..
राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..
नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..
'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..
'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..
२६-१०-२०१९
***
नवगीत:
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
***
नैरंतरी छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
*
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
***
मुक्तक:
पाँव रख बढ़ते चलो तो रास्ता मिल जाएगा
कूक कोयल की सुनो नवगीत खुद बन जाएगा
सलिल लहरों में बसा है बिम्ब देखो हो मुदित
ख़ुशी होगी विपुल पल में, जन्म दिन मन जाएगा
***
मुक्तक
संवेदना का जन्मदिवस नित्य ही मने
दिल से दिल के तार जुड़ें, स्वर्ग भू बने
वेदना तभी मिटे, सौहार्द्र-स्नेह हो-
शांति का वितान दस दिशा रहा तने
*
श्याम घटा बीच चाँद लिये चाँदनी
लालिमा से, नीलिमा से सजी चाँदनी
सुमन गुच्छ से भी अधिक लिए ताजगी-
बिजलियाँ गिरा रही है विहँस चाँदनी
*
उषा की नमी दे रही दुनिया को ज़िंदगी
डिहाइड्रेशन से गयी क्यों अस्पताल में?
सूरज अधिक तपा या चाँदनी हुई कुपित
धरती से आसमान तक चर्चे है आज ये.
*
जग का सारा तिमिर ले, उसे बना आधार
रख दे आशा दीप में, कोशिश-बाती प्यार
तेल हौसले, योजना-तीली बाले ज्योति-
रमा-राज में हो सके ज्योतित सब संसार
*
रूपया हुआ अज़ीज़ अब, रुपया ही है प्यार
रुपये से इरशाद कह, रूपया पा हो शाद
रुपये की दीवानगी हद से अधिक न होय
रुपये ही आबाद कर, कर देता बर्बाद
*
कुछ मुट्ठी भर चेहरे, बासी सोच- विचार
नव पीढ़ी हित व्यर्थ हैं, जिनके सब आचार
चित्र-खबर में छप सकें, बस इतना उद्देश्य-
परिवर्तन की कोशिशें कर देते बेकार.
*
कतरा-कतरा तिमिर पी, ऊषा ले अरुणाई
'जाग' सूर्य से कह रही, 'चल कर लें कुड़माई'
'धत' कह लहना सिंह हुआ, भास्कर तपकर लाल
नेह नर्मदा तीर पर, कलकल पडी सुनाई
*
पंकज को आ गया है सुन सोना पर प्यार
देख लक्ष्मी को चढ़ा पल में तेज बुखार
कहा विष्णु से लीजिये गहने सभी समेट-
वित्तमंत्री चेता रहे भाव करें हद पार
२६-१०-२०१४
***
'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ?
विजय राज बली माथुर
विजय माथुर पुत्र स्वर्गीय ताज राजबली माथुर,मूल रूप से दरियाबाद (बाराबंकी) के रहनेवाले हैं.१९६१ तक लखनऊ में थे . पिता जी के ट्रांसफर के कारण बरेली, शाहजहांपुर,सिलीगुड़ी,शाहजहांपुर,मेरठ,आगरा ( १९७८ में अपना मकान बना कर बस गए) अब अक्टूबर २००९ से पुनः लखनऊ में बस गए हैं. १९७३ से मेरठ में स्थानीय साप्ताहिक पत्र में मेरे लेख छपने प्रारंभ हुए.आगरा में भी साप्ताहिक पत्रों,त्रैमासिक मैगजीन और फिर यहाँ लखनऊ के भी एक साप्ताहिक पत्र में आपके लेख छप चुके है.अब 'क्रन्तिस्वर' एवं 'विद्रोही स्व-स्वर में' दो ब्लाग लिख रहे हैं तथा 'कलम और कुदाल' ब्लाग में पुराने छपे लेखों की स्कैन कापियां दे
रहे हैं .ज्योतिष आपका व्यवसाय है और लेखन तथा राजनीति शौक है.
*
प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है।कायस्थ बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा कर प्रसन्न होते हैं परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है। आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों में स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ ने सहमति व्यक्त की थी। आज उनके शब्द आपको भेंट करता हूँ।
प्रत्येक प्राणी के शरीर में 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर में 'चित्त'(मन) पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म एवं अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' में अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः, यह पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन में दी जाती थीं। आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने में भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को जान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया है। इस पर्व को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
पौराणिक पोंगापंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित।
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म में अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति। आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव अपने वर्तमान स्वरूप में आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल में आज भी जनरल मेडिसिनविभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण ज्ञान-जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1. जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनकेद्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता थावह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देनेके योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थीको 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किये जाते थे जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य मान्य थे ।
4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने व इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य मान्य थे। ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था।
ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि -वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाति-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया।
खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुए भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें