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सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

नवगीत, दोहा दीप, जनक मुक्तक, निशा तिवारी, आदमी जिंदा है, सुनीता सिंह, तकनीकी शिक्षा में हिंदी

मुक्तक
आरज़ू है अंजुमन में बहारें रहें।
आसमां में चाँद खुश हो, सितारे रहें।।
है जमीं का कौन?, सबकी वालिदा है वो
प्यार कर माँ से सलिल तो बहारें रहें।।
***
गीत
*
ओझल हो तुम
किंतु सरस छवि,
मन में अब तक बसी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
उषा किरण सम रश्मि रथी का
दर तज मेरी ड्योढ़ी आई।
तुहिन बिंदु सम ठिठकीं-सँकुचीं
अरुणाई ने की पहुनाई।।
दर पर हाथ-
हथेली छापा
घड़ी मिलन की लिखी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दिन भर राह हेरतीं गुमसुम
कब संझा हो दीपक बालो।
रजनी हो तो मिलन पूर्व मिल
गीत मिलन के गुनगुन गा लो।।
चेहरा थाम निहारा, पाया
सिमटी-सिकुड़ी छुई-मुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दो थे, पल में एक हो गए,
नयन नयन में डूब-उबरते।
अधर अधर पर धर अधरामृत
पीते; उर धर, विहँस सिहरते।।
पाकर खोएँ, खोकर पाएँ
आस अहैतुक पली हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
२३-१०-२०२२, ९४२५१८३२४४
***
विमर्श- तकनीकी शिक्षा में हिंदी
क्या औचित्य और उपयोग है मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस पाठ्यक्रम शुरू करने का, जबकि सारी पुस्तकों में अधिकांश अंग्रेजी शब्द "जस के तस" हैं और उन्हें केवल देवनागरी लिपि में लिख दिया गया है?
पहले आपकी प्रश्न की पृष्ठभूमि समझें-
पढ़ने-समझने और लिखने में भाषा माध्यम का कार्य करती है। आप भाषा जानते हैं तो विषय या कथ्य को समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे?
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा सबसे आधी सरलता, सहजता से अपनी मातृभाषा समझता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है। किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नति देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
पराधीनता के समय में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया।
१९६२ में चीनी हमले के बाद देश में अभियंताओं की बड़ी संख्या की जरूरत हुई ताकि देश विज्ञान, तकनीक और उद्योग के क्षेत्र में प्रगति कर सके। दक्षिण भारतीय राज्यों ने ६ माह और एक वर्ष के सर्टिफिकेट कोर्स आरंभ किए जिन्हें उत्तीर्ण कर बड़ी संख्या में दक्षिण भाषी, मध्य तथा उत्तर भारत में कार्य विभागों में घुस गए और लगभग ४ दशकों तक पदोन्नत होकर उच्च पदों पर काबिज रहे। मध्य तथा उत्तर भारत में पॉलिटेक्निक आरंभ कर त्रिवर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरंभ किए गए। इनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक युवा प्रविष्ट हुए जिन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में अच्छे एक मिले थे किन्तु पॉलिटेक्निक तथा अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में अंग्रेजी न समझ सकने के कारण ये प्रथम वर्ष में असफल हो गए। कई ने पूरक परीक्षाओं से परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु अंक कम हो गए, कई ने आत्महत्या तक कर लीं। पॉलिटेक्निक जबलपुर के छात्रों ने वर्ष १९७१-७२ में परीक्षा में हिंदी की मांग करते हुए हड़ताल की। तब मैं भी वहाँ एक छात्र था।
डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने इस विषमता को समझते हुए पदोन्नति अवसरों के सृजन, वेतनमान में सुधार तथा हिंदी में अभियांत्रिकी शिक्षण के लिए कई बार हड़तालें कीं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि राज्यों के डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने अखिल भारतीय महासंघ बनाकर भारत सरकार को अपनी पीड़ा और समाधान के उपायों से वगत कराया। तब जनसंघ और समाजवादी दल विरोध में, कोंग्रेस सत्ता में थी। जनसंघ के कई नेताओं प्यारेलाल खंडेलवाल जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, अटलजी, आडवाणी जी, जोशी जी, आदि ने अभियंताओं के मांग पत्रों का समर्थन किया, विधायिकाओं में प्रश्न उठाए। तभी से यह नीति कि उच्च तथा तकनीकी शिक्षा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में हो जनसंघ और कालांतर में भाजपा की नीति बन गई। समाजवादी भी इस मांग के पक्ष में थे किन्तु सत्ता में आने पर उन्होंने इस बिंदु को भुला दिया। उस दौर में सर्व अभियंता ब्रह्म दत्त दिल्ली, रामकिशोर दत्त लख़नऊ, संजीव वर्मा जबलपुर, अमरनाथ लखनऊ, नारायण दास यादव ग्वालियर, जयशंकर सिंह महासमुंद, बृजेश सिंह बिलासपुर, रमाकांत शर्मा भोपाल, शिवप्रसाद वशिष्ठ उज्जैन, सतीश सक्सेना ग्वालियर, आदित्यपाल सिंह भोपाल आदि ने सतत संघर्ष किया। संजीव वर्मा ने जबलपुर में इंजीनियर्स फोरम (इंडिया) का गठन कर भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के जान दिन को अभियंता दिवस के रूप में मनाकर स्वभाषा में अभियांत्रिकी शिक्षा के आंदोलन को नव स्फूर्ति दी। फलत:, हर विभाग में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की मूर्ति कार्यालय परिसर में स्थापित कर हिंदी में कार्य करने का संकल्प लिया गया। डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने प्राकल्लन (एस्टिमेटिंग), मापन (मेजरमेंट) तथा मूल्याङ्कन (वेल्युएशन) हिंदी में करना आरंभ कर दिया। डिप्लोमा परीक्षाओं में छात्रों ने हिंदी में उत्तर लिखे। शासन के लिए इन्हें अमान्य करने का अर्थ विभागीय कार्य बंद होना होता, जिससे हड़ताल सफल होती। शासन ने हड़ताल को असफल दिखाने के लिए, देयकों का भुगतान होने दिया। मध्य प्रदेश में पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा स्तर पर हिंदी में पुस्तकें तथा परीक्षा १९९० के आसपास ही सुलभ हो गयी किन्तु दुर्भाग्य से अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों ने जहाँ समाजवादियों की सरकारें थीं ने इसका अनुकरण नहीं किया।
बड़ी संख्या में निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें भी ग्रामीण छत्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। इतिहास ने खुद को दुहराया। बी.ई./बी.टेक. तथा एम.ई./एम.टेक. में भी हिंदी का प्रवेश हुआ। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने मेडिकल की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कर एम.बी.बी.एस. में हिंदी में करना संभव कर दिया। यद्यपि यह आरंभ मात्र है। लगभग एक दशक लगेगा मेडिकल शिक्षा का पूरी तरह हिन्दीकरण होने में।
आपका प्रश्न तकनीकी किताबों में प्रयुक्त भाषा को लेकर है। हिन्दीकरण करते समय यदि शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाए तो पारिभाषिक शब्द अत्यधिक कठिन तथा अप्रचलित होंगे। विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व् शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए आरंभ में तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्या का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है।
तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, जैसी संस्थाएं हैं जहाँ हिंदी का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर कभी नहीं किया जाता। सरकार और जनता को इस दिशा में सजग होकर इन संस्थाओं का चरित्र बदलना होगा।
२३-१०-२०२२
***
पुरोवाक
'शफ़क-गुलाली' ग़ज़लाकाश में मुस्कुराती लाली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत की गंगो-जमनी तहज़ीब की बानगी देखनी हो तो ग़ज़ल पढ़नी चाहिए। गीत और दोहे की तरह ग़ज़ल ने भी वक़्त, हालत, मुल्क, जुबान और कौमों की हदों को पार कर दिलों को अपना दीवाना बनाया है। किसी बच्चे की पैदाइश की तरह ग़ज़ल के तशरीफ़ लाने की कोई तारीख तो नहीं बताई जा सकती पर यह जरूर कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे इंसान ने इंसानियत की तरफ कदम रखने की शुरुआत की, वैसे-वैसे उसने अपने दिल की बात, कम से कम लफ़्ज़ों में बयां करने का हुनर सीखा। अपने अहसासात दो मिसरों (पंक्तियों) में कहने के बाद उसने हमकाफ़िया (सम तुकांत) और हमरदीफ़ (सम पदांत) मिसरों की ईजाद की। शुरुआत में फ़क़त दो मिसरे ही कहे गए होंगे। दोहा, सोरठा, रोला, श्लोक वगैरह की मानिंद शे'र कहे गए। दो मिसरों में बात पूरी न होने पर चार मिसरों का इस्तेमाल किया गया। फ़क़ीर और शायर चार मिसरों का मुक्तक या रुबाई लिखकर गुनगुनाते-गाते और शाबाशी पाते। इनमें पहले, दूसरे और चौथे मिसरे हमकाफ़िया-हमरदीफ़ होते थे जबकि तीसरे मिसरे में यह बंदिश नहीं थी, बशर्ते वज़न (पदभार) चारों मिसरोंका एक सा होता था। शुरुआत में हजाज छंद में मुक्तक कहे गए, बाद में रुबाई के २४ औज़ान तय किये गए। बतौर नमूना -
आसमान पर शफ़क गुलाली।
तेरे रुखसारों पर लाली।।
जी करता है जी भर पी लूँ-
ढाल-ढाल प्याली पर प्याली।।
भारत में सदियों पहले से अपभृंश और अब हिंदी में कुछ छंद (दोहा, सोरठा, रोला, चौपाई वगैरह) दो पंक्तियों के हैं जबकि बहुत से छंदों (दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, चौपाई, माहिया, हाइकु वगैरह) का उपयोग कर मुक्तक कहे जाते रहे हैं। मुक्तक का विस्तार अर्थात तीसरी-चौथी पंक्तियों की तरह पंक्तियाँ जोड़कर भारतीय लोक काव्यों को गायक और कवि चिरकाल से लिखते-गाते रहे हैं। कालांतर में फारस और भारत के बीच लोगों का आना-जाना होने पर ग़ज़ल कहने की यह काव्य विधा फारस में गई। कहावत है कि इतिहास खुद को दुहराता है। ग़ज़ल के सिलसिले में यह पूरी तरह सत्य सिद्ध हुई। भारत में जन्मी, पली-पुसी विधा फारसी संस्कार लेकर एवं आक्रांताओं के साथ फिर भारत में आई तो उसके नाक-नक्श ही नहीं, चाल-ढाल भी बदली हुई थी, बदलाव इस हद तक की जन्मदात्री धरती पर भी ग़ज़ल को आयातित काव्य विधा मान लिया गया। भारत में यह काव्य विधा किसी नाम विशेष से नहीं पुकारी गयी थी किन्तु इसके संस्कारों में लोकधर्मिता, शुचिता तथा पाकीजगी थी। फारस में इसे ग़ज़ल संज्ञा तथा '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत) एवं 'कसीदा' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) विशेषण देकर ​'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी) महबूबा-माशूका से बातचीत के पिजरे में कैद कर, इसे पंख फड़फड़ाने के लिए मजबूर कर दिया। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ औरतों (प्रेमिकाओं) से बातें करना है।१
हिंदी ग़ज़ल
मायके लौटी बेटी के सर पर कुछ दिनों सासरे की तारीफ का भूत सवार रहने की तरह, ग़ज़ल ने भी मादरे-वतन में आने के बाद कुछ वक़्त हुस्नो-इश्क़ की इबादत में गुजारे लेकिन जल्दी ही इस पर मुल्क की माटी का रंग चढ़ गया और ग़ज़ल ने बगावती तेवर के साथ आम आदमी के दर्दो-ख्वाब के साथ नाता जोड़ना शुरू कर दिया। जनाब सरवरी ग़ज़ल का अर्थ 'जवानी का हाल बयां करना' बताते हैं२ और इश्क़ को ग़ज़ल की रूह कहते हैं।३ जनाब कादरी ग़ज़ल का मानी 'इश्क़ और जवानी का जिक्र' मानते हैं।४ हद तो तब हुई हुई जब लिखा गया 'गरज हर वह चीज जो माशूक के शायनशान न हो, वह ग़ज़ल में नापसंदीद: है।'५ बकौल डॉ. सैयद ज़ाफ़र ग़ज़ल शुरू से ही दिलवरों की बात कहती आई है।६ जनाब आल अहमद सरूर कहते हैं - 'ग़ज़ल वैसे तो महबूब से बातें करने का नाम है मगर इसमें हदीसे-हुस्न से ज्यादा इश्क की हिक़ायत है।'७-८ डॉ. रामदास 'नादार' के लफ़्ज़ों में 'उर्दू शायरी फ़ारसी शायरी का अनुकरण है और फारसी शायरी अरबी शायरी का।८ डॉ. मसऊद खां के मुअतबिक 'इसका अपना दाइर-ए-अलम (कार्यक्षेत्र) है।९ हिंदुस्तानी ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल को फारसी ग़ज़ल के नक्शे-कदम पर चलने की भरपूर कोशिश उर्दू परस्तों ने की, लेकिन आखिर में हारकर चुप हो गए। इसका कारण आर्थिक है। बशीर बद्र हकीकत को यूं बयां करते हैं - 'आज ग़ज़ल का मसला क्या है? उर्दू ग़ज़ल पढ़नेवाले लाख-सवा लाख हैं तो उसी उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी लिपि में, ग़ज़ल गायकी में, ज़िंदगी की गुफ्तगू में हिंदुस्तान-पाकिस्तान क्या दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में करोड़ों करोड़ों हैं। ....इस बोली जानेवाली जदीद लफ़्जीयात का बड़ा हिस्सा ग़ज़ल की जबान बनता जा रहा है।'१०
नामकरण
बहरहाल वजह कोई भी हो ग़ज़ल ने अपनी माटी की खुशबू को जल्द ही पहचान लिया और वह खुद को बदलने से न रोक सकी और बदलाव के हिमायतियों ने उसे सिर-आँखों लिया। सागर मीरजापुरी ने ग़ज़लपुर और नवगज़लपुर में इस बदलाव का स्वागत एवं 'गीतिका' नामकरण कर लिखा -'ग़ज़ल, गीत की एक विधा है जो उर्दू-फ़ारसी से हिंदी में आई है।'११ चंद्र सेन 'विराट' और पद्मभूषण नीरज जी ने मुक्तक का विस्तार इसे 'मुक्तिका' कहा। हिंदी ग़ज़ल को 'तेवरी' [तेवर (व्यवस्था विरोध के स्वर) की प्रधानता के कारण], सजल, पूर्णिका, अनुगीत आदि नाम देने के प्रयास लिए जाने के बाद भी यह 'हिंदी ग़ज़ल थी, है और रहेगी।' ॐ नीरव के शब्दों में 'गीतिका एक ऐसे ग़ज़ल है जिसमें हिंदी भाषा की प्रधानता हो, हिंदी व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ हिंदी छंदों का समादर हो।२९
हिंदी ग़ज़ल-उर्दू गजल
हिंदी एक समर्थ और स्वतंत्र भाषा है जिसका अपना शब्द भंडार, व्याकरण, छंद शास्त्र और लिपि है। उर्दू मूलत: सीमाप्रांत की भारतीय भाषाओँ-बोलिओं का संकर रूप है जो फ़ारसी या देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू का अपना शब्द-भंडार नहीं है। उर्दू शब्दकोष का हर शब्द किसी अन्य भाषा-बोली से आयातित है। फारसी के व्याकरण और छंद शास्त्र का उपयोग उर्दू करती है। वास्तव में उर्दू भी हिंदी की एक शैली (भाषा रूप) मात्र है जिसमें फ़ारसी शब्दों का प्रयोग अधिक किया जाता है। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनियों का प्रयोग हिंदी ग़ज़ल बेहिचक करती है, जो फ़ारसी-ुर्दी ग़ज़ल के लिए संभव नहीं है। बांगला ग़ज़ल, तमिल ग़ज़ल, अंग्रेजी ग़ज़ल, रुसी ग़ज़ल अगर भाषिक आधार पर फ़ारसी-उर्दू ग़ज़ल से भिन्न है और वहां फ़ारसी लयखंडों या छंदों को अपनाने की बाध्यता नहीं है तो हिंदी ग़ज़ल पर ऐसे बंधन कैसे थोपे जा सकते हैं? हिंदी ग़ज़ल को विरासत में वैदिक-पौराणिक-लौकिक मिथक, बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे, कहावतें आदि मिली हैं जिनका प्रयोग कर वह फ़ारसी-उर्दू ग़ज़ल से भिन्न हो जाती है। हिंदी ग़ज़ल का मिजाज और कहन परंपरागत ग़ज़ल से बिलकुल अलहदा और मौलिक है। बतौर नमूना -
राजनीति घना कोहरा नैतिकता का सूर्य छिपा है।
टके सेर ईमान सभी का स्वार्थ हाथों हाय! बिका है।।
रूप देखकर नज़र झुका लें कितनी वह तहज़ीब भली थी।
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़कर उसे तका है।।
गुमा मशीनों के मेले में आम आदमी खोजें कैसे?
लीवर एक्सल गियर हथौड़ा ब्रैक कहीं वह महज चका है।
आओ! हम सब इस समाज की छाती पर कुछ नश्तर मारें।
सड़े गले रंग-ढंग जीने के, हर हिस्सा एक घाव पका है।।
फ़ना हो गए वे दिन यारों जबकि हम सब फरमाते हैं।
अब तो लब खोलो तो यही कहा जाता है ख़ाक बका है।।
ईंट रेत सीमेंट जोड़कर करी इमारत 'सलिल' मुकम्मिल।
चाह रहे घर नेह-प्रेममय, बना महज बेजान मकाँ है।।
यहाँ यह भी स्पष्ट होना जरूरी है कि हिंदी-फ़ारसी ग़ज़ल की भिन्नता शब्दों के कारण कतई नहीं है। दुनिया की हर भाषा अन्य भाषाओँ से शब्दों को ग्रहण करती और अन्य भाषाओँ को शब्द देती है। हर भाषा शब्दों को अपनी प्रकृति और संस्कार के अनुसार ढलती बदलती है। हिंदी 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' कर लेती है तो फ़ारसी 'ब्राह्मण' को 'बिरहमन'। संस्कृत का 'मातृ', फ़ारसी में मादर और अंग्रेजी में 'मदर' हो जाता है। डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' के अनुसार 'हिंदी और उर्दू में बहुत ज़्यादा फर्क नहीं है सिर्फ लिपि का फर्क है। फ़ारसी में लिखा जाए तो उर्दू और वही बात देवनागरी में लिखी जाए तो हिंदी हो जाती है।२७
हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकार्य (१९८५) करनेवाले डॉ. रोहिताश्व अस्थाना खुसरो और कबीर की ग़ज़लों में भी हिंदी ग़ज़ल के मूल तत्व देखे हैं।१२ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' हिंदी ग़ज़ल में गंभीरता और जीवन दर्शन तथा सतही उथलेपन की सामान गुंजाइश देखते हैं।१३ ज़हीर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी प्रकृति की ग़ज़ल आम आदमी की जनवादी अभिव्यक्ति है'।१४ शिवॐ अंबर कहते हैं 'समसामयिक हिंदी ग़ज़ल भाषा के भोजपत्र पर लिखी हुई विप्लव की अग्नि ऋचा है।'१५ शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार 'ग़ज़ल एक लिरिक विधा है।' १६ डॉ. उर्मिलेश हिंदी ग़ज़ल को इस तरह परिभाषित करते हैं 'जो उर्दू ग़ज़ल की शैल्पिक काया में हिंदी की आत्मा को प्रतिष्ठित करती है।'१७ बकौल डॉ. कुंवर बेचैन 'ग़ज़ल जागरण के बाद का उल्लास है, पाँखुरी के मंच पर खुशबू का मौन स्पर्श है।'१८ डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के शब्दों में 'अनुभूति की तीव्रता एवं संगीतात्मकता हिंदी ग़ज़ल के प्राण हैं।१९
शिल्प
स्पष्ट है कि हिंदी ग़ज़ल का शिल्प फ़ारसी ग़ज़ल की तरह होते हुए भी इसकी अपनी अलग पहचान और विशेषता है। बकौल नरेश नदीम 'ग़ज़ल एक से अधिक अशआर का संग्रह मात्र है जिसमें हर शेर दूसरों से स्वतंत्र हो सकता है।२०
विषय
डॉ. रामप्रसाद शरण 'महर्षि' के अनुसार 'कोई भी विषय क्यों न हो, अब उसे ग़ज़ल का विषय बनाया जा सकता है।'२१ डॉ. सादिका असलम नवाब 'सहर' के मत में - 'आधुनिक ग़ज़ल राजनीति और समाज से जुडी हुई समस्याओं को अभिव्यक्त करती है।२२ डॉ. महेंद्र अग्रवाल के शब्दों में 'नई ग़ज़ल का मूल प्रतिपाद्य समकालीन मकनव जीवन के समग्र है। वह ठोस यथार्थ पर खड़ी है।२३
शैली (ग़ज़लियत, तगज़्ज़ुल)
डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर की मान्यता है कि ग़ज़ल की भाषा शैली प्राय: प्रतीकात्मक एवं संकेतात्मक होती है।२४ हिंदी गजल भी ‘तगज्जुल’ को स्वीकार और शेर कहते हुए अभीष्ट सांकेतिकता की अधिकतम रक्षा करना चाहती है। ज़हर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी गजल के पास अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक, मुहावरे, बिंब, प्रतीक, रदीफ और काफिए हैं। शिल्प और विषय का उत्तरोत्तर विकास भी इसमें दिखता है। इस प्रक्रिया और विकास की पृष्ठभूमि में समकालीन जीवन की जटिल परिस्थितियां भी महत्त्वपूर्ण हैं। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और तकनीकी परिवर्तन भी इसकी पृष्ठभूमि में हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी गजल का उद्भव अकस्मात नहीं हुआ। यह गतिशील संघर्ष प्रक्रिया का परिणाम है।'२५ रामदेव लाल 'विभोर' लिखते हैं 'तगज़्ज़ल सामान्य सी बात में अर्थ सौष्ठव उत्पन्न कर उसे असामान्य व् आनंददायी बना देता है। संस्कृत-हिंदी काव्य में इसे ही शब्द शक्ति का चमत्कार कहा गया है।'२६ 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और' यह अंदाजे-बयां ही गज़लकार के शैली कहलाती है।
तत्व
मुग़ल काल में प्रशासकों का आश्रय मिला इसलिए फ़ारसी मिश्रित हिंदी (उर्दू) को देशी हिंदी (खड़ी बोली) पर वरीयता मिली। सुशिक्षित जनों ने प्रशासन में हिस्सेदारी पाने के लिए सत्ताधीशों की भाषा को अपनाया। इसलिए ग़ज़ल के फ़ारसी मानक, लय खंड और चंद पहले प्रचलित हो गए। हिंदी ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनने पर फ़ारसी पारिभाषिक शब्दों के हिंदी पर्याय विक्सित किए गए। तदनुसार पद या पंक्ति (मिसरा), पद युग्म या द्विपदी (शे'र), पहला पद (मिसरा ऊला), दूसरी पंक्ति (मिसरा सानी), प्रथम समतुकांती द्विपदी (मत्ला), अंतिम द्विपदी (मक़्ता), तुकांत (काफ़िया), पदांत (रदीफ़), भार (वज़्न), लयखण्ड या गण (रुक्न), छंद (बह्र) हिंदी ग़ज़ल के तत्व हैं।
छंद
अन्य गीति रचनाओं की तरह हिंदी ग़ज़ल भी लयखण्ड (रुक्न, बहुवचन अरकान) तथा छंद (बह्र) का प्रयोग कर रची (कही) जाती है। गण के आधार पर छंद के दो प्रकार एक गणीय छंद (मुफर्रद बह्र) तथा मिश्रित गणीय छंद (मुरक्कब बह्र) हैं। हिंदी ग़ज़ल के दो और प्रकार एक छंदीय ग़ज़ल और बहुछंदीय ग़ज़ल भी हैं जो उर्दू ग़ज़ल में नहीं हैं। डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के अनुसार 'उर्दू ग़ज़ल की लगभग सभी बहरें हिंदी के मात्रिक या वर्णिक छंदों से निकली हैं।' २८ मैंने, रसूल अहमद 'सागर बक़ाई' डॉ. गौतम, साज जबलपुरी ने हिंदी छंदों पर आधारित ग़ज़लें लिखने का श्रीगणेश लगभग ४ दशक पूर्व किया था। 'बह्र नहीं तो ग़ज़ल नहीं' लिखकर महावीर प्रसाद 'मूकेश' ग़ज़ल में छंद की अपरिहार्यता बताते हैं।३० उत्तम (मुरस्सा) ग़ज़ल की विशेषता बताते हुए रामप्रसाद शर्मा 'महर्षि' लिखते हैं 'एक ओर नाद सौंदर्य हो तो दूसरी ओर भाषा और भाव का सौंदर्य। ३१
अलंकार व रस
अलंकार (सनअत) हिंदी ग़ज़ल के लालित्य और चारुत्व में वृद्धि कर ग़ज़ल में आकर्षण उत्पन्न कर, गज़लकार की कहन को पठनीय, श्रवणीय और मननीय बनाते हैं। हिंदी ग़ज़ल में अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, वक्रोक्ति, रूपक, संदेह, भ्रांतिमान, व्यतिरेक, स्मरण, दीपक, दृष्टांत, व्याजस्तुति पुरुक्तिवदाभास, अन्योक्ति आदि के प्रयोग मैंने हुए अन्य ग़ज़लकारों ने किए है। हिंदी ग़ज़ल में रस सलिला का प्रवाह अबाध होता रहा है।
'शफ़क़-गुलाली' : हिंदी ग़ज़ल का गुलदस्ता
हिंदी ग़ज़ल का ताज़ा-तरीन गुलदस्ता लेकर तसरीफ लाई हैं शाने-अवध लखनऊ से सुनीता सिंह। इन ग़ज़लों में मौलिकता, सुरुचि संपन्नता और ताज़गी सहज ही देखी जा सकती है। ये गज़लें सूरत-हाल का आईना हैं। इश्को-माशूक की खाम ख़याली से परहेज़ इन ग़ज़लों की खासियत है। इन ग़ज़लों में हिंदी के कई छंदों का सफल सार्थक प्रयोग किया गया है।
शायरा के हौसले की दाद दी जाना चाहिए जब वह आसमानी रब से भी सवाल करती है। गीतिका छंद में कही गई ग़ज़ल का यह शेर देखिए -
आसमां में बैठकर करता वहाँ क्या रब बता?
साँस बेकल डूबती तो भी सदाएँ चाहिए?
कोरोना की मार ने इंसानी रिश्तों-नातों और अहसासों को किस हद तक नुक्सान पहुँचाया, उपमान छंद में कहा गया एक शेर सूरते-हालात बयां करता है -
वहम की बात नहीं है, यकीन हारा था।
बहुत करीब थे लेकिन, फिसल गये नाते।।
रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें अमूमन बड़ी बनकर नज़दीकियों को दूरियों में बदल देती हैं। अरुण छंद में यह अनुभूति बखूबी अभिव्यक्त की गयी है -
बात ही बात में बात बढ़ती गयी।
बात भूली न तल्खी मगर जा रही।।
अरुण छंद में इससे अलग मिजाज की ग़ज़ल का मजा लें -
गुनगुनाता हुआ आसमां देखिए।
खास है ये नज़ारा ज़रा देखिए।।
आ रही कहकशां से सुहानी सदा।
रौशनी का जहां चाँद का देखिए।।
'जैसी करनी वैसी भरनी' की लोकोक्ति को चित्रपटीय गीत में 'कर्म किये जा फल की चिंता मत कर रे इंसान / जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान् / ये है गीता का ज्ञान' कहकर अभिव्यक्त किया गया है। मुक्तामणि छंद में इसी बात को सुनीता जी ने बेहद खूबसूरती से एक ग़ज़ल में पिरोया है -
बरबादियाँ कहीं पर तो सुकून है कहीं पर।
कर्मों से तय हमेशा अंजाम ज़िंदगी का।।
कहने लगा जमाना मुश्किल बहुत है जीना।
बनता रहे तमाशा सरे-आम ज़िंदगी का।।
'दीवार से सिर फोड़ना' मुहावरे का प्रयोग इस शे'र की खासियत है-
वक़्त का साज है, वक़्त का राज है।
सर न दीवार पर फोड़ना चाहिए।।
मुहावरों को लेकर कहे गए कुछ अशआर मजा लीजिए। ऐसे अशआर लिखना आसान नहीं होता। शायरा दाद की हक़दार है।
हम तो सरसों उगाने चले हाथ पर।
एक फूटी भी कौड़ी नहीं हाथ पर।।
हाथ आगे किसी के पसारे नहीं।
बनती गयी बात ही बात पर।।
योजनाएँ खटाई में पड़ गयीं।
ख़ाक में जाते मिल छानते ख़ाक पर।।
होश तो उड़ गये पर जताया नहीं।
खार खाता जहां मेरे ज़ज़्बात पर।।
कोई अपनी खबर खोज लेता नहीं।
बेतकल्लुफ हुए अपने हालात पर।।
हम तो खिचड़ी हैं अपनी पकाते अलग।
ज़िंदगी थाम लेते हैं हर मात पर।।
'क्यों कवायद सदा जूझने की रहे?', 'चाहना और पाना अलग बात है', 'ख्वाब टूटे हैं पर मलाल नहीं', 'गुल हमेश खिला नहीं करते', 'ज़िंदगी भी हमें सिखाती है', 'निराश जब दिल हो हर तरफ से, सहारा मिलता इबादतों में', 'कोशिश न बेहतरी के लिए रुकनी चाहिए', 'रहा किसी से गिला न शिकवा, फ़क़ीर जैसी हुई है फितरत' जैसे मिसरे गागर में सागर की तरह, कम लफ्जों में गहरी बात कहते हैं। इनसे गज़लसरा की भाषाई पकड़ पता चलती है।
दुष्यंत कुमार ने हालत से बेजार हो कर कहा था -'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो', सुनीता का शायर मन समय की विसंगतियों को देखते हुए लिखता है -
'अब इन हवाओं बदलना हो जरूरी है गया'
शायरी-आज़म मेरे तकी मेरे की मशहूर ग़ज़ल है 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है', सुनीता जी भी इस ग़ज़ल के असर को अपने रंग में ढालकर कहती हैं-
गुमसुम-गुमसुम मद्धम-मद्धम लय गीतों की लगती है।
जाने कैसा सावन बरसे, भीगी खुश्की रहती है।।
आँगन-आँगन बस्ती-बस्ती, पत्ते-पत्ते बूटों में।
बूँद बरसती सावन की जो नज़्म रूहानी कहती है।।
वक़्त और हालात की दुश्वारियों का तकाज़ा है कि एक साथ रहा जाए। सुनीता जी जानती हैं की मुश्किलों को हसालों से ही जीता जा सकता है। वे अपने तमाम पाठकों तक यह पैगाम ग़ज़ल के जरिए पहुँचाती हैं-
दुआ में हाथ उठें, दौर मुश्किलों का है।
सभी के साथ चलें, दौर मुश्किलों का है।।
बता रही दुश्वारी न जीत पाओगे
दिखे जो छाँव छले, दौर मुश्किलों का है।।
चलो दिखा दें कलेजा की हम भी रखते हैं।
ये हौसले न ढलें, दौर मुश्किलों का है।।
जम्हूरियत के इस दौर में आम आदमी अपने नेताओं से परेशां है, किस पर भरोसा करे किस पर नहीं, यही समझ नहीं आता। जिस सिक्के को आजमाया वही खोटा निकला। एवं को हर नुमाइंदे से नाउम्मीदी ही हुई। सुनीता अपनी बात इस तरह कहती हैं -
वो रहनुमा मेरा जिस पर जां निसार थी।
संग उसके ही गम गयी, मेरी बहार थी।।
वो जिस पे नाज़ था मुझे, मेरा नसीब था।
जो अनसुनी थी रह गयी, मेरी पुकार थी।।
हालात कितने भी ख़राब हों, मायूसी से कोई हल नहीं निकलता। कामयाबी मिले न मिले, कोशिश बदस्तूर जारी रहनी चाहिए। बकौल शायरे-वक़्त फ़िराक़ गोरखपुरी 'ये माना ज़िंदगी है चार दिन की / बहुत होते हैं यारों चार दिन भी / खुदा को पा गया वाइज मगर है / जरूरत आदमी को आदमी की'। साहिर लुधियानवी लिखते हैं - 'मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया / हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया / मनाना फज़ूल था / बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया'। सुनीता फ़िराक के शहर की रहनेवाली हैं। वे हालत और वक़्त को अपने नज़रिए से देखती-परखती हैं और फिर कहती हैं -
हँसी-खुशी गुजारिए ये चार दिन की ज़िंदगी।
न रोइए-रुलाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
यहाँ-वहाँ कहाँ-कहाँ सुकून ढूँढता जिया।
जरा ठहर भी जाइए ये चार दिन की ज़िंदगी।।
न कामयाब हो सके, न ख्वाब जी सके कभी।
अजी न ग़म मनाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
धुआँ-धुआँ भरा जो दिल, सुलग रहा सिगार सा।
गुबार सब निकालिए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
अगर न गुल खिले चमन, उदास क्यों हुई फ़िज़ा।
बहार फिर बुलाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
हिंदी ग़ज़ल की खासियत और खसूसियत यही है कि वह सांसारिक और आध्यात्मिक पहलुओं को सिक्के के दो पहलुओं, धूप-छाँव, हार-जीत या फूल-शूल की तरह एक साथ कहती है। सुनीता इससे पूरी तरह वाक़िफ़ हैं।
आँख खोली तो देखा सहर हो गयी।
शबनमी सी सुहानी पहर हो गयी।।
दिल हमारा-तुम्हारा खुदा पा गया।
ये मुहब्बत रूहानी अगर हो गयी।।
जो दिया, जैसा दिया, उसने दिया, शिकवा न कर। यह फलसफा हर खासो-आम के काम आता है। सुनीता कहती हैं-
सफर ये ज़िन्दगी का भला या बुरा।
तौल करनी नहीँ, बस गुजर हो गयी।।
चौरासी हिंदी ग़ज़लों का यह गुलदस्ता अलग-अलग रूप-रंग-खुशबू के गुलों से बाबस्ता है। हर तितली और भँवरे का यहाँ स्वागत है। सपनों और सच्चाईयों दोनों की खबर रखती हैं ये ग़ज़लें। इनमें ज़िन्दगी के अलहदा-अलहदा पहलू इस तरह नुमाया हुए हैं कि वाह वाह कहने का मन होता है।
खवाबों का इक मकान बनता है आदमी।
चुन-चुन के ईंट उसमें लगता है आदमी।।
ढूँढे सुई भी रेत से, सीने को ज़िंदगी।
दिल चाक अपना सबसे छिपाता है आदमी।।
जाती है रात दे के सुहानी सी भोर को।
फिर तीरगी में हार क्यों जाता है आदमी।।
इन ग़ज़लों में वतनपरस्ती का पैगाम भी है और खुदाई वज़ूद का इमकान भी -
जब-जब वतन की आन पे हो आँच आ रही।
होना ही जां को देश पर कुर्बान चाहिए।।
घर जलता देख दूसरे का हँसना छोड़िए।
करना किसी को भी न परेशान चाहिए।।
थामा है रब ने जब भी जहाँ ठोकरें लगीं।
अब और क्या वज़ूद का फरमान चाहिए।।
चचा ग़ालिब फरमाते हैं - 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना', सुनीता का नजरिया अलग है -
आग जलने लगी हवा पाकर।
दर्द मिटने लगा दवा पाकर।।
एकटक देखती रहीं आँखें।
आप आये नहीं पता पाकर।।
लिख रही है कलम ग़ज़ल कोई।
उनकी भेजी हुई सदा पाकर।।
रे त सी रौशनी फिसलती है।
इक झरोखा कहीं जरा पाकर।।
मानविकीकरण का एक उदाहरण देखें -
वो सूरज हमारी तरह लग रहा है।
सुबह रोज उठता मगर फिर ढला है।।
निराशा और आशा का चोली-दामन का सा साथ है। किसी एक से ज़िंदगी मुकम्मल नहीं होती है। सुनीता ने ग़ज़लों में जगह-जगह दोनों रंग पिरोये हैं। बतौर नमूना देखिए-
मुट्ठी में कैद रेत फिसलती चली गयी।
सहरा मेरी उम्मीद पे हँसती गयी।।
बरसात जो थी संग लिए रंग आ रही।
बिन बरसे मेरे घर से निकलती चली गयी।।
*
लहरा रहे हैं फूल जो सरसों के खेत में।
मन मोहने की उनकी कला भी तो कम नहीं।।
वो दूर शफक पर है सुनहरी सी लालिमा।
उससे मिली उम्मीद ये, दिल का भरम नहीं।।
'शफ़क़-गुलाली' की ग़ज़लों की जुबान आम आदमी की बोलचाल की है। आजकल भाषाई शुद्धता के नाम पर कुछ अलफ़ाज़ को उपयोग न करने का जो जाहिलाना माहौल बनाया जा रहा है, उसकी ख़िलाफ़त इसी तरह की जुबान के जरिये से की जानी चाहिए। सुनीता जी मुबारकबाद की हकदार हैं, वे सरकारी मुलाजिम होते हुए भी अपनी रूह की आवाज़ सुनती हैं और उसे गीतों, दोहों, ग़ज़लों की शक्ल में अवाम तक पहुँचा देती हैं। 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा' की भावना से किया गया यह रचना कर्म वाकई काबिले तारीफ है। मुझे पूरी उम्मीद है कि इस दीवान को तारीफ मिलेगी और सुनीता दिन-ब-दिन ज्याद: से ज्याद: शिद्दत से यह कलमी सफर जारी रखकर बुलंदियों छुएँगी।
संदर्भ -
१. शमीमे बलाग़त, सफा ४६, २. जदीद उर्दू शायरी, सफा ४८, ३. जदीद उर्दू शायरी, सफा २६०, ४. तारीखी तनक़ीद, सफा १०१, ५. शेरुअल हिन्द, भाग २, सफा २८९, ६. तनक़ीद और अंदाज़े नज़र, सफा १४४, ७. तनक़ीद क्या है?, सफा १३३, ८. उर्दू काव्यशास्त्र में काव्य का स्वरूप, सफा ९२, ९. फन और तनक़ीद : ग़ज़ल का फन सफा २२१, १०. अमीर खुसरो-ता-ग़ज़ल २०००, ११. गीतिकायनम, पृष्ठ १५, १२-१९. हिंदी ग़ज़ल स्वरूप और विकास, डॉ. अस्थाना, २०. उर्दू कविता और छंद शास्त्र, २१. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १८, २२. साठोत्तरी हिंदी ग़ज़ल - शिल्प और चेतना पृष्ठ २६४, २३. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १९, २४. ग़ज़ल ज्ञान, ११, २५. जनसत्ता २६-८-२०१८, २६. ग़ज़ल ज्ञान पृष्ठ ११३, २७. ग़ज़ल : रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, २८. एक बह्र पर एक ग़ज़ल, ११-१२, २९. गीतिकालोक पृष्ठ १२, ३०. ग़ज़ल छंद चेतना पृष्ठ ३१. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १३।
२३.१०.२०२१
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लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नई शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
मुक्तिका:
*
रात चूहे से चुहिया यूँ बोली
तू है पोरस तो मैं सिकंदर हूँ
.
चौंक चूहा छिपा के मुँह बोला:
तू बँदरिया, मैं तेरा बंदर हूँ
.
शोख चुहिया ने हँस जवाब दिया:
तू न गोरख, न मैं मछंदर हूँ
*
तू सुधा मेरी, मान जा प्यारी!
मैं तेरा अपना दोस्त चन्दर हूँ
.
दिया नहले पे दहला चुहिया ने
तू है मंदर मगर मैं मंदिर हूँ
.
सर झुका चूहे ने सलाम किया:
मलिका तूफान, मैं बवंडर हूँ
.
जा किनारे खड़े लहर गिनना
याद रखना कि मैं समंदर हूँ
.
बाहरी दुनिया मुबारक हो तुझे
तू है बाहर, मैं घर के अंदर हूँ
२३-१०-२०१५
***
जनक मुक्तक
*
मिल त्यौहार मनाइए
गीत ख़ुशी के गाइए
साफ़-सफाई सब जगह
पहले आप कराइए
*
प्रिया रात के माथ पर,
बेंदा जैसा चाँद धर.
कालदेवता झूमता-
थाम बाँह में चूमता।
*
गये मुकदमा लगाने
ऋद्धि-सिद्धि हरि कोर्ट में
माँगी फीस वकील ने
अकल आ गयी ठिकाने
*
नयन न नम कर नतमुखे!
देख न मुझको गिलाकर
जो मन चाहे, दिलाऊं-
समझा कटनी जेब है.
*
हुआ सम्मिलन दियों का
पर न हो सका दिलों का
तेल न निकला तिलों का
धुंआ धुंआ दिलजलों का
*
शैलेन्द्र नगर, रायपुर
***
दोहा दीप
रांगोली से अल्पना, कहे देखकर चौक
चौंक न घर पर रौनकें, सूना लगता चौक
बाती मन, तन दीप से, कहे न देना ढील
बाँस प्रयासों का रखे, ऊँचा श्रम-कंदील
नेता जी गम्भीर हैं, सुनकर हँसते लोग
रोगी का कब डॉक्टर , किंचित करते सोग?
चाह रहे सब रमा को, बिसरा रहे रमेश
याचक हैं सौ सुरा के, चाहें नहीं सुरेश
रूप-दीप किस शिखा का, कहिए अधिक प्रकाश?
धरती धरती मौन जब, पूछे नीलाकाश
दोहा दीप जलाइए, स्नेह स्नेह का डाल
बाल न लेकिन बाल दें, करिए तनिक सम्हाल
कलम छोड़कर बाण जब, लगे चलने बाण
शशि-तारे जा छिप गए हो संकट से त्राण
दीपोत्सव, रायपुर
२३.१०.२०१४.
***
नवगीत:
मंज़िल आकर
पग छू लेगी
ले प्रदीप
नव आशाओं के
एक साथ मिल
कदम रखें तो
रश्मि विजय का
तिलक करेगी
होनें दें विश्वास
न डगमग
देश स्वच्छ हो
जगमग जगमग
भाग्य लक्ष्मी
तभी वरेगी
हरी-भरी हो
सब वसुंधरा
हो समृद्धि तब ही
स्वयंवरा
तब तक़दीर न
कभी ढलेगी
२३-१०-२०१४
***

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