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गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

सॉनेट, मुक्तक, दस मात्रिक छंद, वैलेंटाइन, हास्य, नवगीत,

सॉनेट
क्यों?
*
अघटित क्यों नित घटता हे प्रभु?
कैसे हो तुम पर विश्वास?
सज्जन क्यों पाते हैं त्रास?
अनाचार क्यों बढ़ता हे विभु?
कालजयी क्यों असत्-तिमिर है?
क्यों क्षणभंगुर सत्य प्रकाश?
क्यों बाँधे मोहों के पाश?
क्यों स्वार्थों हित श्वास-समर है?
क्यों माया की छाया भाती?
क्यों काया सज सजा लुभाती?
क्यों भाती है ठकुरसुहाती?
क्यों करते नित मन की बातें?
क्यों न सुन रहे जन की बातें?
क्यों पाते-दे मातें-घातें?
९-२-२०२२
***
***
मुक्तक
मुक्त मन से लिखें मुक्तक
सुप्त को दें जगा मुक्तक
तप्त को शीतल करेंगे
लुप्त को लें बुला मुक्तक
*
हमें ही है आना
हमें ही है छाना
बताता है नेता
सताता है नेता
***
दस मात्रिक छंद
१० लघु मात्रा
*
२५. हर दम छल मत कर
शुभ तज, अशुभ न वर
पथ पर बढ़, मत रुक
नित नव करतब कर
.
'सलिल' प्रवह कलकल
सुख गहकर पल-पल
रुक मत कल रख चल
मनुज न बन अब कल
*
२६. ८ लघु, १ गुरु
नित नर्तित नटवर
गुरु गर्वित गिरिधर
चिर चर्चित चंचल
मन हरकर मनहर
*
२७. ६ लघु, २ गुरु
नित महकती कली
खिल चहकती भली
ललच भँवरे मिले
हँस, बहकती कली
राह फिसलन भरी
झट सँभलती कली
प्रीत कर मत अभी
बहुत सँकरी गली
संयमित रह सदा
सुरभि देकर ढली
*
२८. ४ लघु, ३ गुरु
धन्य-धन्य शंकर
वन्दन संकर्षण
भोले प्रलयंकर
दृढ़ हो आकर्षण
आओ! डमरूधर
शाश्वत संघर्षण
प्रगटे गुप्तेश्वर
करें कृपा-वर्षण
.
हमें साथ रहना
मिला हाथ रहना
सुख-दुःख हैं सांझा
उठा माथ कहना
*
२९. २ लघु, ४ गुरु
बोलो, सच बोलो
पोल नहीं खोलो
सँग तुम्हारे जो
तुम भी तो हो लो
.
तू क्यों है बेबस?
जागो-भागो हँस
कोई देगा न साथ
सोते-रोते नाथ?
*
३०. ५ गुरु
जो चाहो बोलो
बातों को तोलो
झूठों को छोड़ा
सच्चे तो हो लो
.
जो होना है हो
रोकोगे? रोको
पाया खो दोगे
खोया पा लोगे
*
***
द्विपदियाँ (अश'आर)
*
बना-बना बाहर हुआ, घर बेघर इंसान
मस्जिद-मंदिर में किये, कब्जा रब-भगवान
*
मुझे इंग्लिश नहीं आती, मुझे उर्दू नहीं आती
महज इंसान हूँ, मुझको रुलाई या हँसी आती
*
खुदा ने खूब सूरत दी, दिया सौंदर्य ईश्वर ने
बनें हम खूबसूरत, क्या अधिक चाहा है इश्वर ने?
*
न नातों से रखा नाता, न बोले बोल ही कड़वे
किया निज काम हो निष्काम, हूँ बेकाम युग-युग से
९-२-२०१६
*
दोहा सलिला:
वैलेंटाइन
*
उषा न संध्या-वंदना, करें खाप-चौपाल
मौसम का विक्षेप ही, बजा रहा करताल
*
लेन-देन ही प्रेम का मानक मानें आप
किसको कितना प्रेम है?, रहे गिफ्ट से नाप
*
बेलन टाइम आगया, हेलमेट धर शीश
घर में घुसिए मित्रवर, रहें सहायक ईश
*
पर्व स्वदेशी बिसरकर, मना विदेशी पर्व
नकद संस्कृति त्याग दी, है उधार पर गर्व
*
उषा गुलाबी गाल पर, लेकर आई गुलाब
प्रेमी सूरज कह रहा, प्रोमिस कर तत्काल
*
धूप गिफ्ट दे धरा को, दिनकर करे प्रपोज
देख रहा नभ मन रहा, वैलेंटाइन रोज
*
रवि-शशि से उपहार ले, संध्या दोनों हाथ
मिले गगन से चाहती, बादल का भी साथ
*
चंदा रजनी-चाँदनी, को भेजे पैगाम
मैंने दिल कर दिया है, दिलवर तेरे नाम
*
पुरवैया-पछुआ कहें, चखो प्रेम का डोज
मौसम करवट बदलता, जब-जब करे प्रपोज
*
***
हास्य सलिला:
वैलेंटाइन पर्व:
*
भेंट पुष्प टॉफी वादा आलिंगन भालू फिर प्रस्ताव
लला-लली को हुआ पालना घर से 'प्रेम करें' शुभ चाव
कोई बाँह में, कोई चाह में और राह में कोई और
वे लें टाई न, ये लें फ्राईम, सुबह-शाम बदलें का दौर
***
मुक्तक :
.
जो हुआ अनमोल है बहुमूल्य, कैसे मोल दूँ मैं ?
प्रेम नद में वासना-विषज्वाल कैसे घोल दूँ मैं?
तान सकता हूँ नहीं मैं तार, संयम भंग होगा-
बजाना वीणा मुझे है कहो कैसे झोल दूँ मैं ??
.
मानकर पूजा कलम उठायी है
मंत्र गायन की तरह चलायी है
कुछ न बोले मौन हैं गोपाल मगर
जानता हूँ कविता उन्हें भायी है
.
बेरुखी ज्यों-ज्यों बढ़ी ज़माने की
करी हिम्मत मैंने आजमाने की
मिटेंगे वे सब मुझे भरोसा है-
करें जो कोशिश मुझे मिटाने की
.
सर्द रातें भी कहीं सोती हैं?
हार वो जान नहीं खोती हैं
गर्म जो जेब उसे क्या मालुम
जाग ऊसर में बीज बोती हैं
.
बताओ तो कौन है वह, कहो मैं किस सा नहीं हूँ?
खोजता हूँ मैं उसे, मैं तनिक भी जिस सा नहीं हूँ
हर किसी से कुछ न कुछ मिल साम्यता जाती है मुझको-
इसलिए हूँ सत्य, माने झूठ मैं उस सा नहीं हूँ
.
राह कितनी भी कठिन हो, पग न रुकना अग्रसर हो
लाख ठोकर लगें, काँटें चुभें, ना तुझ पर असर हो
स्वेद से श्लथ गात होगा तर-ब-तर लेकिन न रुकना
सफल-असफल छोड़ चिंता श्वास से जब भी समर हो
...
***
नवगीत:
.
'नेकी कर
दरिया में डालो'
कह गये पुरखे
.
याद न जिसको
रही नीति यह
खुद से खाता रहा
भीती वह
देकर चाहा
वापिस ले ले
हारा बाजी
गँवा प्रीति वह
कुछ भी कर
आफत को टालो
कह गये पुरखे
.
जीत-हार
जो हो, होने दो
भाईचारा
मत खोने दो
कुर्सी आएगी
जाएगी
जनहित की
फसलें बोने दो
लोकतंत्र की
नींव बनो रे!
कह गए पुरखे
***
गीत:
जब जग मुझ पर झूम हँसा
मैं दुनिया पर खूब हँसा
.
रंग न बदला, ढंग न बदला
अहं वहं का जंग न बदला
दिल उदार पर हाथ हमेशा
ज्यों का त्यों है तंग न बदला
दिल आबाद कर रही यादें
शूल विरह का खूब धँसा
.
मैंने उसको, उसने मुझको
ताँका-झाँका किसने-किसको
कौन कहेगा दिल का किस्सा?
पूछा तो दिल बोला खिसको
जब देखे दिलवर के तेवर
हिम्मत टूटी कहाँ फँसा?
***
नवगीत:
.
मन की
मत ढीली लगाम कर
.
मन मछली है फिसल जायेगा
मन घोड़ा है मचल जायेगा
मन नादां है भटक जाएगा
मन नाज़ुक है चटक जायेगा
मन के
संयम को सलाम कर
.
तन माटी है लोहा भी है
तन ने तन को मोहा भी है
तन ने पाया - खोया भी है
तन विराग का दोहा भी है
तन की
सीमा को गुलाम कर
.
धन है मैल हाथ का कहते
धन को फिर क्यों गहते रहते?
धनाभाव में जीवन दहते
धनाधिक्य में भी तो ढहते
धन को
जीते जी अनाम कर
.
जीवन तन-मन-धन का स्वामी
रखे समन्वय तो हो नामी
जो साधारण वह ही दामी
का करे पर मत हो कामी
जीवन
जी ले, सुबह-शाम कर
९-२-२०१५
***
विमर्श :
पर्ण छोड़ पागल हुए, लहराते तरु केश ।
आदिवासी रूप धरे, जंगल का परिवेश ।। - संदीप सृजन


- सलिल सर! आपने मेरे दोहे पर टीप दी। धन्यवाद ....
= मुझे पता है तीसरे चरण में जगण ऽ।ऽ हो रहा है। इसे आप सुधार कर भेजने का कष्ट करे।
= यहाँ एक बात और विचारणीय है। वृक्ष पत्ते अर्थात वस्त्र छोड़ पागल की तरह केश या डालियाँ लहरा रहे हैं। इसे आदिवासी रूप कैसे कहा जा सकता है? आदिवासी होने और पागल होने में क्या समानता है?
- क्या नग्न शब्द का उपयोग किया जाए?
= नंगेपन और अदिवासियों में भी कोई सम्बन्ध नहीं है। आदिवासियों से कम वस्त्र पहने, अधिक नग्न नायिकाएँ दूरदर्शन पर निकट दर्शन कराती रहती हैं।
- आदिवासी शब्द प्रतीक है .... जैसे अंधे को सूरदास कहा जाता है।
= लेकिन यह एक समूचा विशाल संवर्ग भी है। क्या वह आहत न होगा? यदि आप एक आदिवासी होते तो क्या इस शब्द का प्रयोग इस संदर्भ में करते? साहित्य में बात इस तरह कही जाती है की कोइ आहत न हो। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
पर्ण छोड़ पागल हुए, तरु लहराते केश।
शहर लीलता जा रहा, जंगल का परिवेश।। -यह कैसा रहेगा?
-बिंब के प्रयोग में क्या आपत्ति? ... कई लोगों ने ये प्रयोग किया है।
= मुझे कोई आपत्ति नहीं। यदि आप वही कहना चाहते हैं जो व्यक्त हो रहा है तो अवश्य कहें। यदि अनजाने में वह व्यक्त हो रहा है जो मंतव्य नहीं है तो परिवर्तन करें। दोहा आपका है,जैसा चाहें कहें।
- शहरी परवेश का पत्ते त्यागने से कोई संबध नहीं होता ..... पेड़ कहीं भी हो स्वाभाविक प्रक्रिया में वसंत में पत्ते त्याग देते हैं. सर! कोई असुविधा या खेद की बात नही .... मैं जानता हूँ आप छंद के विद्वान है... मेरे प्रश्न पर आप मुझे संतुष्ट करें तो कृपा होगी .. मैं तो लिखना सीख रहा हूँ। मुझे समाधान नही संतुष्टि चाहिए ... जो आप दे सकते हैं।
= साहित्य सबके हितार्थ रचा जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रचनाकार को होती ही है। मुझे ऐसा लगता है कि अनावश्यक किसी को मानसिक चोट क्यों पहुँचे ? उक्ति है: 'सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम' अर्थात जब सच बोलो तो प्रिय सच बोलो / अप्रिय सच को मत ही बोलो'। आपकी संतुष्टि के लिए गलत को गलत न कहना भी तो गलत होगा क्योंकि तब आप गलत को सही मान कर वही करते रहेंगे फिर परामर्श या मार्गदर्शन निरर्थक हो जाएगा।
- नीलू मेघ जी का एक दोहा देखें
महुआ भी गदरा गया , बौराया है आम
मौसम ने है काम किया, मदन हुआ बदनाम...
= यहाँ 'मौसम ने है काम किया' १३ के स्थान पर १४ मात्राएँ हैं। कुछ परिवर्तन ' मौसम ने गुल खिलाया' करने से मात्रिक संतुलन स्थापित हो जाता है, 'गुल खिलाना' मुहावरे का प्रयोग दोहे के चारुत्व में वृद्धि करता है।
९-२-२०१५
***
नवगीत:
.
गयी भैंस
पानी में भाई!
गयी भैंस पानी में
.
पद-मद छोड़ त्याग दी कुर्सी
महादलित ने की मनमर्जी
दाँव मुलायम समझा-मारा
लालू खुश चार पायें चारा
शरद-नितिश जब पीछे पलटे
पाँसे पलट हो गये उलटे
माँझी ने ही
नाव डुबोई
लगी सेंध सानी में
.
गाँधी की दी खूब दुहाई
कहा: 'सादगी है अपनाई'
सत्तर लाखी सूट हँस रहा
फेंक लँगोटी तंज कस रहा
'सब का नेता' बदले पाला
कहे: 'चुनो दल मेरा वाला'
जनगण ने
जब भौंहें तानीं
गया तेल घानी में
.
८-२-२०१५
***
सामयिक कविता:
*
हर चेहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
अलग तरीका, अलग सलीका, अलग ढंग है...
*
भगवा कमल चढ़ा सत्ता पर जिसको लेकर.
गया पाक बस में, आया हो बेबस होकर.
भाषण लच्छेदार सुनाए, सबको भए.
धोती कुरता गमछा धारे सबको भाए.
बरस-बरस उसकी छवि हमने विहँस निहारी.
ताली पीटो, नाम बताओ- ......................
*
गोरी परदेसिन की महिमा कही न जाए.
सास और पति के पथ पर चल सत्ता पाए.
बिखर गया परिवार मगर क्या खूब सम्हाला?
देवरानी से मन न मिला यह गड़बड़ झाला.
इटली में जन्मी, भारत का ढंग ले लिया.
बहुत दुलारी भारत माँ की नाम? .........
*
यह नेता भैंसों को ब्लैक बोर्ड बनवाता.
कुर्सी पड़े छोड़ना, बीबी को बैठाता.
घर में रबड़ी रखे मगर खाता था चारा.
जनता ने ठुकराया अब तड़पे बेचारा.
मोटा-ताज़ा लगे, अँधेरे में वह भालू.
जल्द पहेली बूझो नाम बताओ........?
*
माया की माया न छोड़ती है माया को.
बना रही निज मूर्ति, तको बेढब काया को.
सत्ता प्रेमी, कांसी-चेली, दलित नायिका.
नचा रही है एक इशारे पर विधायिका.
गुर्राना-गरियाना ही इसके मन भाया.
चलो पहेली बूझो, नाम बताओ........
*
छोटी दाढ़ीवाला यह नेता तेजस्वी.
कम बोले करता ज्यादा है श्रमी-मनस्वी.
नष्ट प्रांत को पुनः बनाया, जन-मन जीता.
मरु-गुर्जर प्रदेश सिंचित कर दिया सुभीता.
गोली को गोली दे, हिंसा की जड़ खोदी.
कर्मवीर नेता है भैया ..............
*
बंगालिन बिल्ली जाने क्या सोच रही है?
भय से हँसिया पार्टी खंबा नोच रही है.
हाथ लिए तृण-मूल, करारी दी है टक्कर.
दिल्ली-सत्ताधारी काटें इसके चक्कर.
दूर-दूर तक देखो इसका हुआ असर जी.
पहचानो तो कौन? नाम .....................
*
तेजस्वी वाचाल साध्वी पथ भटकी है.
कौन बताए किस मरीचिका में अटकी है?
ढाँचा गिरा अवध में उसने नाम कमाया.
बनी मुख्य मंत्री, सत्ता सुख अधिक न भाया.
बड़बोलापन ले डूबा, अब है गुहारती.
शिव-संगिनी का नाम मिला, है ...............
*
मध्य प्रदेशी जनता के मन को जो भाया.
दोबारा सत्ता पाकर भी ना इतराया.
जिसे लाड़ली बेटी पर आता दुलार है.
करता नव निर्माण, कर रहा नित सुधार है.
दुपहर भोजन बाँट, बना जन-मन का तारा.
जल्दी नाम बताओ वह ............. हमारा.
*
डर से डरकर बैठना सही न लगती राह.
हिम्मत गजब जवान की, मुँह से निकले वाह.
घूम रहा है प्रांत-प्रांत में नाम कमाता.
गाँधी कुल का दीपक, नव पीढ़ी को भाता.
जन मत परिवर्तन करने की लाता आँधी.
बूझो-बूझो नाम बताओ ......................
*
बूढ़ा शेर बैठ मुंबई में चीख रहा है.
देश बाँटता, हाय! भतीजा दीख रहा है.
जिसको धमकाए वह बोले- बचा बाप रे!
बचना है तो नाम बताओ ......................
पहलवान ताकत आजमाता राजनीति में
एक नहीं दो शादी कर फँस गया प्रीति में
पुत्रमोह ने भ्रातृमोह को हाय! किया कम
यदुवंशी का नाम न भूलो कहो ......................
*
जे पी का शागिर्द न क्रांति राह चल पाया
जिस करवट सत्ता उस करवट बैठे भाया
उठापटक में माहिर ब्याहा पर कुमार है
साथ शरद के रहा नाम ......................
धनपति नेता डूबा सूरज, कटी डोर है
जीवनसंध्या को भी बोले नई भोर है
शुगर किंग रोगी मीठे हैं बोल, अजब है
बूझो उसका नाम वही पवार ......................
*
रंग-बिरंगे नेता करते बात चटपटी.
ठगते सबके सब जनता को बात अटपटी.
लोकतंत्र को लोभतंत्र में बदल हँस रहे.
कभी फाँसते हैं औरों को कभी फँस रहे.
ढंग कहो, बेढंग कहो चल रही जंग है.
हर चेहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
९-२-२०१०
***

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