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रविवार, 12 फ़रवरी 2023

सॉनेट, गणतंत्र, मुक्तिका, दोहे, तलाक, सवैया, उल्लाला, पटवारी

सॉनेट
विडंबना
*
अपना दीपक आप बनो रे!
बुद्ध कह गए हमने माना।
दीप जलाना मन में ठाना।।
भूले अँखिया खोल रखो रे।।
घर झुलसा घर के दीपक से।
बैठे हैं हम आग तापते।
भोग लगा वरदान माँगते।।
केवल इतना नाता प्रभु से।।
जपें राम पर काम न करते।
तजें न सत्ता, काम सुमिरते।
भवबंधन में खुद को कसते।।
आँख न खोलें नाम नयनसुख।
निज करनी से पाते हैं दुख।
रब को कैसे दिखलाएँ मुख?
१२-२-२०२२
•••

अगिन नमन गणतंत्र महान
जनगण गाए मंगलगान
*
दसों दिशाएँ लिए आरती
नजर उतारे मातु भारती
धरणि पल्लवित-पुष्पित करती
नेह नर्मदा पुलक तारती
नीलगगन विस्तीर्ण वितान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
ध्वजा तिरंगी फहरा फरफर
जनगण की जय बोले फिर फिर
रवि बन जग को दें प्रकाश मिल
तम घिर विकल न हो मन्वन्तर
सत्-शिव-सुंदर मूल्य महान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
नीव सुदृढ़ मजदूर-किसान
रक्षक हैं सैनिक बलवान
अभियंता निर्माण करें नव
मूल्य सनातन बन इंसान
सुख-दुख सह समभाव सकें हँस
श्वास-श्वास हो रस की खान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
केसरिया बलिदान-क्रांति है
श्वेत स्नेह सद्भाव शांति है
हरी जनाकांक्षा नव सपने-
नील चक्र निर्मूल भ्रांति है
रज्जु बंध, निर्बंध उड़ान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
कंकर हैं शंकर बन पाएँ
मानवता की जय जय गाएँ
अडिग अथक निष्काम काम कर
बिंदु सिंधु बनकर लहराएँ
करे समय अपना जयगान
२६-१-२०२१
***
मुक्तिका
*
आज खत का जवाब आया है
धूल में फूल मुस्कुराया है
*
याद की है किताब हाथों में
छंद था मौन; खिलखिलाया है
*
नैन नत बोलते बिना बोले
रोज डे रोज ही मनाया है
*
कौन किसको प्रपोज कब करता
चाह ने चाहकर बुलाया है
*
हाथ बढ़ हाथ थामकर सिहरा
पैर ने पैर झट मिलाया है
*
देख मुखड़ा बना लिया मुखड़ा
अंतर में अंतरा बसाया है
*
दे दिया दिल न दिलरुबा छोड़ा
दिलवरी की न दिल दुखाया है
१२-२२०२१
***
तीन तलाक - दोहे
*
तीन तलाक दीजिए, हर दिन जगकर आप
नफरत, गुस्सा, लोभ को, सुख न सकेंगे नाप
जुमलों धौंस प्रचार को, देकर तीन तलाक
दिल्ली ने कर दिया है, थोथा गर्व हलाक
भाव छंद रस बिंब लय, रहे हमेशा साथ
तीन तलाक न दें कभी, उन्नत हो कवि-माथ
आँसू का दरिया कहें, पर्वत सा दर्द
तीन तलाक न दे कभी, कोई सच्चा मर्द
आँखों को सपने दिए, लब को दी मुस्कान
छीन न तीन तलाक ले, रखिए पल-पल ध्यान
दिल से दिल का जोड़कर, नाता हुए अभिन्न
तीन तलाक न पाक है, बोल न होइए भिन्न
अल्ला की मर्जी नहीं, बोलें तीन तलाक
दिल दिलवर दिलरुबा का, हो न कभी भी चाक
जो जोड़ा मत तोड़ना, नाता बेहद पाक
मान इबादत निभाएँ बिसरा तीन तलाक
जो दे तीन तलाक वह, आदम है शैतान
आखिर दम तक निभाए, नाता गर इंसान
***
सवैया
२७ वर्णिक
यति १४-१३
*
ये सवेरा तीर की मानिंद चुभता है, चलो आशा का नया सूरज उगाएँ
घेर लें बादल निराशा के अगर तो, हौसलों की हवा से उनको उड़ाएँ
मेहनत है धर्म अपना स्वेद गंगा, भोर से संझा नहा नवगीत गाएँ
रात में बारात तारों की सजाकर, चाँदनी घर चाँद को दूल्हा बनाएँ
१२-२-२०२०
***
रसानंद दे छंद नर्मदा १५ उल्लाला
*
उल्लाला हिंदी छंद शास्त्र का पुरातन छंद है। वीर गाथा काल में उल्लाला तथा रोला को मिलकर छप्पय छंद की रचना की जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है। उल्लाला छंद को स्वतंत्र रूप से कम ही रचा गया है। अधिकांशतः छप्पय में रोला के ४ चरणों के पश्चात् उल्लाला के २ दल (पंक्ति) रचे जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है।
जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित छंद प्रभाकर तथा ॐप्रकाश 'ॐकार' रचित छंद क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छंद हैं। नारायण दास लिखित हिंदी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के २ रूप कहा गया है। उल्लाला १३-१३ मात्राओं के २ सम चरणों का छंद है। उल्लाल १५-१३ मात्राओं का विषम चरणी छंद है जिसे हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छंद के दो भेद मानते हैं। हम इनका अध्ययन अलग-अलग ही करेंगे।
'भानु' के अनुसार:
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।
सेवहु नित हरि हर चरण, गुण गण गावहु हो शरण।।
अर्थात उल्लाला में १३ कलाएं (मात्राएँ) होती हैं दस मात्राओं के अंतर पर ( अर्थात ११ वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है।
दोहा के ४ विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। यह १३-१३ मात्राओं का सम पाद मात्रिक छन्द है जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन ८+३+२ है अंत में १ गुरु या २ लघु का विधान है।
सारतः उल्लाला के लक्षण निम्न हैं-
१. २ पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के ४ चरण
२. सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
३. चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए।
४. चरणान्त में एक गुरु या २ लघु हों।
५. सम चरणों (२, ४) के अंत में समान तुक हो।
६. सामान्यतः सम चरणों के अंत एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक सी मात्रा हो। अपवाद स्वरुप प्रथम पद के दोनों चरणों में एक जैसी तथा दूसरे पद के दोनों चरणों में
उदाहरण :
१.नारायण दास वैष्णव
रे मन हरि भज विषय तजि, सजि सत संगति रैन दिनु।
काटत भव के फन्द को, और न कोऊ राम बिनु।।
२. घनानंद
प्रेम नेम हित चतुरई, जे न बिचारतु नेकु मन।
सपनेहू न विलम्बियै, छिन तिन ढिग आनंदघन।
३. ॐ प्रकाश बरसैंया 'ॐकार'
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको सदा, उनके शुचि साहित्य को।।
४. अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
संजीव 'सलिल'
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
संजीव 'सलिल'
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
******
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
१२-२-२०१६
***
नवगीत:
.
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नवगीतों ने व्यथा-कथाएँ
कही अंतरों में गा-गाकर
छंदों ने अमृत बरसाया
अविरल दुःख सह
सुख बरसाकर
दोहा आल्हा कजरी पंथी
कर्म-कुंडली बाँच-बाँचकर
थके-चुके जनगण के मन में
नव आशा
फसलें बो पाये
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नव प्रयास के मुखड़े उज्जवल
नव गति-नव यति, ताल-छंद नव
बिंदासी टटकापन देकर
पार कर रहे
भव-बाधा हर
राजनीति की कुलटा-रथ्या
घर के भेदी भक्त विभीषण
क्रय-विक्रयकर सिद्धांतों का
छद्म-कहानी
कब कह पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
हास्य-व्यंग्य जमकर विरोध में
प्रगतिशीलता दर्शा हारे
विडंबना छोटी कहानियाँ
थकीं, न लेकिन
नक्श निखारे
चलीं सँग, थक, बैठ छाँव में
कलमकार से कहे लोक-मन
नवगीतों को नवाचार दो
नयी भंगिमा
दर्शा पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
१२-२-२०१५
.
नवगीत:
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५
.
मुक्तिका
*
यहीं कहीं था, कहाँ खो गया पटवारी जी?
जगते-जगते भाग्य सो गया पटवारी जी..

गैल-कुआँ घीसूका, कब्जा ठाकुर का है.
फसल बैर की, लोभ बो गया पटवारी जी..

मुखिया की मोंड़ी के भारी पाँव हुए तो.
बोझा किसका?, कौन ढो गया पटवारी जी..

कलम तुम्हारी जादू करती मान गये हम.
हरा चरोखर, खेत हो गया पटवारी जी..

नक्शा-खसरा-नकल न पायी पैर घिस गये.
कुल-कलंक सब टका धो गया पटवारी जी..

मुट्ठी गरम करो लेकिन फिर दाल गला दो.
स्वार्थ सधा, ईमान तो गया पटवारी जी..

कोशिश के धागे में आशाओं का मोती.
'सलिल' सिफारिश-हाथ पो गया पटवारी जी..
***
मुक्तिका
*
आँखों जैसी गहरी झील.
सकी नहीं लहरों को लील..

पर्यावरण प्रदूषण की
ठुके नहीं छाती में कील..

समय-डाकिया महलों को
कुर्की-नोटिस कर तामील..

मिष्ठानों का लोभ तजो.
खाओ बताशे के संग खील..

जनहित-चुहिया भोज्य बनी.
भोग लगायें नेता-चील..

लोकतंत्र की उड़ी पतंग.
थोड़े ठुमके, थोड़ी ढील..

पोशाकों की फ़िक्र न कर.
हो न इरादा गर तब्दील..

छोटा मान न कदमों को
नाप गये हैं अनगिन मील..

सूरज जाये महलों में.
'सलिल' कुटी में हो कंदील..
१२-२-२०११
***

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