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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

सोरठा सतसई विमोचित

संक्षिप्त समाचार

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर

४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर

 हिंदी की प्रथम दो सोरठा सतसई विमोचित

जबलपुर, २६-२-२०१३। ''सोरठा हिंदी का विशिष्ट छंद है जिसका लालित्य अनन्य है। आधुनिक काल में दोहा, चौपाई, आल्हा, हरिगीतिका आदि छंदों पर प्रचुर कार्य हुआ किंतु सोरठा अपेक्षाकृत कम चर्चित हुआ है। संस्कारधानी का गौरव है कि हिंदी को ५०० से अधिक नवीन छंदों की सौगात देनेवाले संजीव वर्मा 'सलिल' ने सोरठा को केंद्र में रखकर स्वयं 'सरस सोरठा छंद' शीर्षक से सोरठा सतसई की रचना की तथा अपनी शिष्या डॉ. संतोष शुक्ला का मार्गदर्शन कर 'छंद सोरठा ख़ास' सोरठा सतसई लिखवाई। इन दोनों छंद साधकों ने सर्वाधिक सोरठा-लेखन का कीर्तिमान बना दिया है।'' उक्त विचार अध्यक्षीय आसंदी से वरिष्ठ भाषाविद, उपन्यासकार डॉ. सुरेश कुमार वर्मा ने व्यक्त किए। उल्लेखनीय है कि हिंदी वांग्मय में इसके पूर्व कोई सोरठा सतसई नहीं लिखी गई है। 

इसके पूर्व सरस्वती पूजा-वंदन तथा अतिथि स्वागत के पश्चात् कृति विमोचन अतिथियोन के कर कमलों से डॉ. नमिता तिवारी तथा डॉ. आशीष तिवारी ने संपन्न कराया। मुख्य वक्ता आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी ने वर्तमान काल में छांदस कविता की प्रासंगिकता प्रतिपादित करते हुए, संस्कारधानी में छंद साधना पर प्रकाश डालते हुए हिंदी की प्रथम दो सोरठा सतसई संस्कारधानी से प्रकाशित होने पर हर्ष व्यक्त किया। वैदिक साहित्य मर्मज्ञ डॉ. इला घोष ने काव्य तथा छंद के साथ को ईश और जीव के साथ जैसा अटूट तथा कालजयी बताया। विदुषी डॉ. सुमन लता श्रीवास्तव ने सोरठा छंद के लालित्य तथा चारुत्व को अन्यतम बताते हुए छंद-साधना का महत्व प्रतिपादित किया। वरिष्ठ पत्रकार श्री मोहन शशि ने कृति के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला।

विश्ववाणी हिंदी संस्थान के सभापति छंदाचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने छंद को नाद ब्रह्म प्रणीत उच्चार से जन्मा बताते हुए वर्ण तथा मात्रा को उसका भौतिक लक्षण बताया। सोरठा छंद के इतिहास तथा महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए वक्ता ने कलबाँट पर प्रकाश डाला। कृति के विमोचन पर्व पर कृति के विविध पक्षों का विवेचन संस्थाध्यक्ष नवगीतकार बसंत शर्मा, छाया सक्सेना 'प्रभु', डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव दतिया, डॉ. संगीता भारद्वाज भोपाल, रश्मि चतुर्वेदी दिल्ली, निशि शर्मा दिल्ली सरला वर्मा भोपाल ने किया। कार्यक्रम का सरस संचालन बसंत शर्मा ने, सरस्वती वंदना का गायन अर्चना गोस्वामी ने तथा आभार प्रदर्शन डॉ. मुकुल तिवारी ने किया।

कार्यक्रम का समापन कविगोष्ठी से हुआ जिसमें सर्वश्री अजय मिश्रा के संचालन और श्री विनोद नयन की अध्यक्षता में नगर के प्रमुख कवियों ने काव्य पाठ किया।

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सरस सोरठा छंद
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वंदन गुरु-विघ्नेश, प्रणति वास-कुल देव को।
हे शारद-इष्टेश, चित्रगुप्त प्रभु वरद हो।।
नमन नर्मदा मात, गढ़ा-मंडला भू नमन।
मिला सलिल को गात, नगर जबलपुर आ बसा।।
हे पिंगल आचार्य, करें कृपा नंदिकेश्वर।
सध पाए शुभ कार्य, हो सहाय शब्दाsक्षर।।
हैं सुरेश अध्यक्ष, रक्षण वर्मा कर रहे।
कृष्ण कांत ले पक्ष, शशि अमृत बरसा रहे।।
इला कर रहीं धन्य, सु मन सुमन लालित्य मय।
छाया मुकुल बसंत, तरुण अरुण शैली नवल।।
हरि सहाय है आज, आशा पा अमरेंद्र से।
छंद सोरठा खास, रचें-सुनें संतोष हो।
सरस सोरठा छंद, सोरठ की है विरासत।
दे अनुपम आनंद, झूम सहेजें अमानत।।
सोरठ भूमि पवित्र, जन्म सोरठा को दिया।
जैसे महके इत्र, वैसे महका सोरठा।।
सौराष्ट्री दोहा मिला, डिंगल में शुभ नाम।
हिन्दी अञ्चल में खिला, ले लालित्य ललाम।।
छंद सोरठा खास, प्रति पद चौबीस मात्रा।
भाव रचाते रास, शब्द करें नव यात्रा।।
दो पद हैं दिन-रात, चार चरण वर्ण-आश्रम।
रुद्र-शुद्धि यति भात, वरे सोरठा विषम-सम।।
लिए सोरठा छंद, सम संख्या के चौ चरण।
जग जीवन आनंद, क्रम बदलें सम-विषम का।।
ग्यारह-तेरह बाद, हो विराम या यति रखें।
गुरु-लघु रखिए तात, विषम चरण के अंत में।।
सम चरणों के अंत, तुकबंधन होता नहीं।
सम-सम में है तंत, विषम-विषम रखिए कला।।
द्वै-त्रै-चौ दुहराव, कला कलाकारी करे।
खे लय-नद रस-नाव, गति-यति साधे कवि तरे।।
बन जाता रच मीत, दोहा उल्टे सोरठा।
काव्य-सृजन शुभ रीत, कविगण रचकर लुभाते।।
रचिए विविध प्रकार, न्यून न हो लालित्यता। 
करें भाव साकार, मन मोहे चारुत्वता।।
सम तुकांतता साध, चारों चरण अगर रचें। 
कथ्य प्रथम आराध, लय-गण दोषों से बचें।।
सम तुकांत अनिवार्य, गुरु-लघु विषम पदांत में। 
पूरा करिए कार्य, हो संतोष तभी तनिक।।
  
शब्द वर्ण उच्चार, त्रय तुकांत ले सोरठा। 
लिखिए विविध प्रकार, पढ़िए-गुनिए ले मजा।।
दोहे के इक्कीस, हैं प्रकार सब जानते। 
एक न उन्निस-बीस, सब प्रकार मन मोहते।।
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गुरु रख दो से बीस, रच इक्कीस प्रकार के। 
छंद सोरठा टीस, मन में शेष न रह सके।।
 
हर रस करता रास, साथ सोरठा छंद के। 
हरता कवि का त्रास, दे अनुपम आनंद भी।।
साक्षी नौ सौ साल, गाथा सोनल की करुण।
गा-रो पीटे भाल, छंद सोरठा विलक्षण।।
श्रेष्ठ सोरठाकार, तुलसीदास-रहीम हैं।
कालजयी उद्गार, व्यक्त बिहारी ने किए।।
हिंदी रत्नागार, रत्न सोरठा सतसई।
पाकर दे उजियार, नित नव रचनाकार को।।
चले सतत अभियान, छंद सृजन का अहर्निश।
रचें छंद -रस-खान, हों रस-निधि रस-लीन हम।।
अनगिन दोहाकार, दोहावलियाँ लिख गए।
मिलें अनेक प्रकार, सहस्त्रई-सतसई भी।।
दिखी सोरठावली, हिन्दी में मुझको नहीं।
लिखी-लिखा सतसई, सलिल संग संतोष ने।।
‘प्रज्ञा’ प्रज्ञावान, लगनशील हैं; श्रमी भी।
शिष्या हैं मतिमान, ग्रहण करें संकेत हर।।
युवकोचित उत्साह, बाधक उम्र न हो सके।
मिले न धीरज-थाह, कदम-कदम बढ़ती चलें।।
कच्छप अरु खरगोश, है जीवित दृष्टांत यह।
हुआ पराजित जोश, संयम ने पाई विजय।।
है सचमुच संतोष, नया काम कुछ हो सका।
हिंदी शारद-कोष, हो समृद्ध कोशिश यही।।
गुरु देते आशीष, शिष्य शतगुण यशी हो।
कृपा करें जगदीश, नित मनचाहा पा सकें।।  
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सोरठा

सोरठा छंद अर्धसममात्रिक छंद हैं, सोरठा छंद के विषम अर्थात प्रथम और तृतीय चरणों में ११-११ मात्राएँ तथा सम अर्थात दूसरे और चौथे चरणों में १३-१३ मात्राएँ होती हैं। इसलिए कहते हैं 'दोहा उलटे सोरठा'। तदनुसार सोरठा के प्रथम और तृतीय चरण के अंत में एक गुरु और एक लघु होता है। दूसरे- चौथे चरण के अंत में लघु गुरु या तीन लघु होते है, किंतु गुरु-लघु वर्जित है। सोरठा का पदांत रगण (२१२)से हो तो ले सहज होती है |

भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने पूर्वज श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि का सोरठा छंद में निबद्ध संस्कृत-कविता में इन शब्दों में स्मरण किया था-

तुलसी-सूर-विहारि-कृष्णभट्ट-भारवि-मुखाः।
भाषाकविताकारि-कवयः कस्य न सम्भता:॥


सोरठा में पहले तथा–तीसरे चरणों की समान तुक अनिवार्य है पर दूसरे-चौथे चरणों में समतुकांत स्वैच्छिक है। सोरठे में कल बाँट दोहे की ही तरह अर्थात समकल-समकल या विषमकल विषमकल होना चाहिए।

जिहि सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥

कुंद इंदु सम देह , उमा रमन करुनायतन ।
जाहि दीन पर नेह , करहु कृपा मर्दन मयन ॥

तुलसीदास जी ने सोरठों में विषम चरण में सम तुकांत रखने के साथ सम चरणों में भिन्न सम तुकांत रखा है किंतु महाकवि रहीम ने सैम चरण में सम तुकांत नहीं रखा है।

रहिमन मोहि न सुहाय , अमिय पियावत मान बिन। जो विष देत बुलाय , प्रेम सहित. मरिबो भलो ||

रोला और सोरठा, दोनों में २४-२४ मात्राएँ तथा ११-१३ मात्राओं पर विराम होता है, अंतर यह है कि रोला सममात्रिक छंद है, सोरठा अर्धसममात्रिक छंद हैं।

अपवाद

तुलसी के एक सोरठे में विषम चरण में भी भिन्न तुकांत है -

सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे। बिहसे करुणा अयन, चितै जानकी लखन तन॥

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